शुक्रवार, 3 अक्तूबर 2014

प.पू. सरसंघचालक डाॅ. श्री मोहनराव भागवत के श्री विजयादशमी उत्सव 2014 (शुक्रवार दिनांक 3 अक्तुबर 2014) के अवसर पर दिये गये उद्बोधन का सारांश


 प पू सरसंघचालक डाॅ श्री मोहनराव भागवत के श्री विजयादशमी उत्सव 2014
 3 अक्तुबर 2014 के अवसर पर दिये गये उद्बोधन का सारांश -




एक वर्ष के पश्चात् फिरसे हम सब विजयादमी के पुण्यपर्व पर यहाँ एकत्रित हैं, परंतु इस वर्ष का वातावरण भिन्न है यह अनुभव हम सभी को होता है। भारतीय वैज्ञानिकों के द्वारा पहिले ही प्रयास में मंगल की कक्षा में यान का सफल प्रवे करा कर हमारे संबंध में विष्व में गौरव तथा भारतीयों के मन में आत्मविश्वास की वृद्धि में चार चाँद जोड़ दिये है। मंगल अभियान में जुड़े वैज्ञानिकों का तथा अन्य सभी कार्यकर्ताओं का हम हृदय से शतत अभिनंदन करते हैं। वैसे ही दक्षिण कोरिया में चल रहे आशियाड खेलों में पदक जीतकर देष का गौरव बढ़ाने वाले सभी खिलाडियों का भी हम अभिनंदन करते है। यह वर्ष राजराजेंद्र चोल की दिग्विजयी जीवनगाथा का सहस्राब्दी वर्ष है। इस वर्ष पं. दीनदयाल उपाध्याय द्वारा एकात्म मानव दर्षन के आविर्भाव का 50 वाँ वर्ष भी हैं। भारत वर्ष का सामान्य समाज विश्व  के तथाकथित प्रगत राष्ट्रों की, सुखसुविधासंपन्न व शिक्षित जनता से बढ़चढ़कर न कहे तो भी बराबरी में, अत्यंत परिपक्व बुद्धि से, दे के भविष्य निर्माण में अपने प्रजातांत्रिक कर्तव्यों का निर्वाह करता है, इस साक्षात्कार के कारण विष्व के देषों में भारतीय प्रजा के संबंध में प्रकट अथवा अप्रकट गौरव की वृद्धि व हम सब भारतीयों के मन में धैर्य, उत्साह और आत्मविश्वास की वृद्धि दिखाई दे रही है। दे के बाहर बसे भारतीय मूल के निवासी भारत के प्रति जो उत्साह और संकल्प का प्रदर्शन कर रहे है, वह भी भविष्य के गौरवशाली व वैभवशाली भारत के लिये एक शुभ संकेत देता है।
परंतु हम सब को यह भी समझना और समझकर चलना होगा कि जगत में सुख, शांति व सामंजस्य के आधारपर चलने वाली नई व्यवस्था का स्वयं उदाहरण बनकर चलने वाला विश्वगुरू भारतवर्ष बनाने के अभियान का यह मात्र एक छोटा सा पदक्षेप है। अभी बहुत कुछ करना, गन्तव्य की दिषा में सतत व लंबा मार्गक्रमण शेष है। दुनिया व दे की परिस्थिति को गौर से देखेंगे तो यह बात किसी के भी ध्यान में आ सकती है।
 सृष्टि में व्याप्त स्वाभाविक विविधता को प्रेम व सम्मान के साथ स्वीकार करना, प्रकृति के साथ व परस्पर व्यवहार में समन्वय, सहयोग तथा परस्पर सह संवेदना व संवाद के आधारपर चलना तथा विचारों, मतों व आचरण में एकांतिक कट्टरपन व हिंसा को छोड़कर अहिंसा व वैधानिक मध्यममार्ग का पालन करना, इसी से संपूर्ण विश्व की मानवता को सुख शातिपूर्ण सुंदर जीवन का लाभ होगा; इस सत्य का बौद्धिक प्रबोधन तो विष्व के ज्ञात इतिहास के प्रारंभ काल से होता आ रहा है; पर्याप्त मात्रा में हुआ है। सब बुद्धि से इसको जानते है। परंतु नित्य भाषणों, प्रवचनों, उपदेशों में सुनाई देने वाले उदात्त, उन्नत व सुखहितकारक तत्वों के मंडन के पीछे सुसंगत आचरण नहीं है। परस्पर व्यवहार में व्यक्तियों से लेकर तो राष्ट्रों तक के आचरण में व नीतियों में दंभ, अहंकार, स्वार्थ, कट्टर संकुचितता आदि का ही वर्चस्व दिखाई देता है। इसी के चलते हम यह देख रहे है कि, आधुनिक मानवजाति जानकारी, शास्त्रज्ञान, तंत्रज्ञान व सुखसुविधाओं में पहले से कहीं अधिक प्रगत होने के बाद भी, विश्व  के जीवन में से दुःख, कष्ट, शोक आदि का संपूर्ण निवारण करने के सब प्रकार के प्रयोग गत दो हजार वर्षों में कर लेने के बाद में भी वहीं समस्याएँ बार-बार खड़ी हो रही है तथा मनुष्य की इस तथाकथित प्रगति ने कुछ नई दुल्र्लंध्य समस्याएँ और खड़ी कर दी हैं।
 इसलिये हम देख रहे है कि पर्यावरण विषय की चर्चा जगत में सर्वत्र गत कई दकों से चल रही है, फिर भी प्रत्येक बीतता दिन पर्यावरण के क्षरण को और एक कदम निकट लाता हुआ सिद्ध हो रहा है। विश्व  में पर्यावरण क्षरण के कारण नित नई व विचित्र प्राकृतिक आपदाओं का सामना करना पड़ रहा है, फिर भी प्रचलित विकासपथ के पुनर्विचार में  राष्ट्रों की व बड़े-बड़े बहुराष्ट्रीय कंपनियों की नीतियों में शब्दों के परिवर्तन व ऊपरी मलमपट्टीयों के अतिरिक्त चिंतन में कोई मूलभूत परिवर्तन दिखाई देता नहीं। सारी करनी के पीछे वहीं पुरानी, एकांतिक जड़वादी, उपभोगाधारित व स्वार्थप्रेरित विचारधारा प्रच्छन्न या प्रकट रूप से काम करती हुई दिखती है।
इन्हीं एकांतिक सामूहिक स्वार्थों के कारण शोषण, दमन, हिंसा व कट्टरता का जन्म होता है। ऐसे ही स्वार्थों के चलते मध्यपूर्व में पश्चिमी देशो  के जो क्रियाकलाप चले उसमें से कट्टरतावाद का नया अवतार इसिस (प्ैप्ै) के रूप में सारी दुनिया को आतंकित कर रहा है। विश्व के सभी दे तथा अनेक पंथ-संप्रदायों के समूह इस संकट के विरोध में एक सामूहिक शक्ति खड़ी करने की मनःस्थिति में है और वैसा करेंगे भी, परंतु बार-बार रूप बदलकर आने वाला यह आतंकवाद जिन एकांतिक प्रवृत्तियों व भोगलालसी स्वार्थों की क्रिया-प्रतिक्रिया के चक्र में से जन्मा है उस चक्र की गति को मूल से खंडित कर समाप्त किये बिना विश्व में सदियों से चलती आयी हुई आतंकवाद की संकट परंपरा जड़मूल से समाप्त नहीं होगी।
ऐसा करना चाहनेवालों को स्वयं के अंदर से स्वार्थ, भय, निपट भौतिक जड़वादिता को संपूर्ण समाप्त कर एक साथ सबके सुख का विचार करने वाली एकात्म व समग्र दृष्टि अपनानी पड़ेगी। जागतिकीकरण के नाम पर केवल अपने समूह के आर्थिक स्वार्थों को सरसाना चाहने वाले, परस्पर शांति प्रस्थापना की भाषा की आड़ में अपने साम्राज्य का विस्तार करना चाहने वाले अथवा निःषस्त्रीकरण के नाम पर दूसरे देषों को स्वयं की अपेक्षा सदैव बलहीन बनाकर रखने की चेष्टा करने वाले, सुखी-सुंदर दुनिया के स्वप्न को न कभी साकार करना चाहेंगे और न करेंगे।
विश्व के गत हजार वर्षों के इतिहास में सत्य व अहिंसा के आधारपर इस दिशा में किये गये प्रामाणिक प्रयासों का उदाहरण केवल भारतवर्ष का है। अत्यंत प्राचीन काल से इस क्षण तक हिमालय और उसकी दोनों ओर की जुड़ी हुई पर्वत शृखंलाओं से सागर पर्यन्त विस्तार के अंदर जो सनातन अक्षुण्ण राष्ट्रीय विचार प्रवाह चल रहा है तथा जिसे आज हिन्दुत्व के नाम से जाना जाता है; उसकी यह विशेषता है कि भाषा, भू प्रदेष, पंथ-संप्रदाय, जाति-उपजाति, खान-पान, रीति-रिवाज आदि की सब स्वाभाविक विविधताओं को वह सम्मानपूर्वक स्वीकार करता है तथा साथ जोड़कर संपूर्ण विष्व के कल्याण में चलाता है। यहाँ जीवन के सत्य के बारे में अन्वेषण, अनुभव तथा निष्कर्ष की संपूर्ण स्वतंत्रता है। न किसी की भिन्न श्रद्धा को लेकर विवाद खड़े किये जाते है, न मूर्तिभंजक अभियान चलते है, न किसी पोथीबंद व्यवस्था के आधारपर श्रद्धा की व श्रद्धास्पदता की वैधता का निर्णय करने का प्रचलन इस परंपरा में है। बौद्धिक स्तर पर मतचर्चा का मुक्त शास्त्रार्थ चलते हुए भी व्यावहारिक स्तर पर श्रद्धा की स्वतंत्रता का सम्मान करते हुए समन्वय व सामंजस्य से एक समाज के नाते चलना यह हिंदु संस्कृति का परिचायक लक्षण है। प्राचीन काल से ‘‘वसुधैव कुटुम्बकम्’’ की आत्मीय दृष्टि को लेकर यहाँ से ऋषि, मुनि, भिक्खु, श्रमण, संत, विद्वान, शास्त्रज्ञ मैक्सिको से लेकर साइबेरिया तक फैले जगत के भूभाग में गये। बिना किसी साम्राज्य को विजित किये, बिना कहीं की किसी भिन्न जीवन पद्धति को, पूजा पद्धति को, राष्ट्रीय अथवा सांस्कृतिक पहचान को नष्ट किये, प्रेम से उन्होंने वहाँ आत्मीयता के सूत्र को, सुमंगल और सृष्टि कल्याण की भावना को प्रतिष्ठित किया। वहाँ के जीवन को अधिक उन्नत, ज्ञानवान, संपन्न किया। आधुनिक काल में भी हमारे जगतवन्द्य विभूतियों से लेकर तो सामान्य आप्रवासी भारतीयों का यही व्यवहार रहा है, यही कीर्ति है। दुनियाभर के चिन्तकों को, समाजों को इसीलिये भारत के भविष्य में अपने लिये और जगत् के लिये एक सुखद आषा का दर्षन होता है।
‘‘मैंने छाती का लहु पिला,
पाले दुनिया के क्षुधित लाल।
भूभाग नहीं,
शत शत मानव के हृदय जीतने का निश्चय।’’
यही अनुभव दुनिया को हमसे मिला हैं। इसलिये हमसे दुनिया की अपेक्षाएँ भी हैं। एक राष्ट्र के नाते सृष्टि में भारत के सनातन अस्तित्व का यही प्रयोजन हमारे प्राचीन ऋषि-मुनियों ने भी बताया है।
एतद्देष प्रसूतस्य सकाषादग्रजन्मनः।
स्वं स्वं चरित्रं षिक्षेरन् पृथिव्यां सर्व मानवाः।।       
इसलिये आज विजयादशमी के इस पुण्य पर्व पर हमारे सामने विजय का यह नया क्षितिज स्पष्ट है। संपूर्ण विश्व को पथप्रदर्शक भारत का जीवन खड़ा करना। देश-काल-परिस्थिति-सुसंगत भारत का ऐसा नया निर्माण जो संपूर्ण विश्व के प्रति समग्र एकात्म-भेदरहित, स्वार्थ रहित, दृष्टि रखते हुए सर्वसमर्थ व सर्वांग सुंदर संपन्न बनकर खड़ा हो। सृष्टि की सारी विविधताओं को स्वीकार करते हुए समन्वय से चलाने में उदाहरणस्वरूप बने। संपन्नता जहाँ सुनीति सहित अवतरित हो, करूणा, सेवा व परोपकार निर्भयता सहित जहाँ अजेय सामथ्र्य का अंग बने, जिसका विकास पथ सर्वत्र मंगल सृष्टि करने वाला हो ऐसे भारत का निर्माण हमें करना है। जिस भारत के सुपुत्रों के नाते विष्वभर के देशों  में जा कर बसे भारतीय मूल के लोग उन उन देशों  की जनता के सम्मुख भद्रता, चारित्र्य तथा वैष्विकता का उदाहरण प्रस्थापित करते हो, जिस सामथ्र्यसंपन्न भारत के अस्तित्व मात्र से विष्व में सर्वत्र भारतभूमि, पूर्वज तथा संस्कृति से नाता रखने वाले लोग अपने आप को निर्भय व सुरक्षित मानकर जी सके ऐसे भारत का निर्माण हमें करना है। 
      
अभी कुछ दिन पूर्व ही ऐसी ही कुछ आकांक्षाओं को व अपेक्षाओं को मन में धारण करते हुए समाज ने देष के सत्ता तंत्र में एक बड़ा परिवर्तन लाया है। अभी इस परिवर्तन को 6 महिने भी पूरे नहीं हुए। परंतु ऐसे संकेत यदा-कदा प्राप्त होते रहते हैं, जिससे लगता है कि विश्व में भारत के उत्थान की तथा भारत की जनता के संपूर्ण सुरक्षित, सर्वांगीण उन्नत जीवन की आकांक्षा का प्रतिबिंब शासन-प्रषासन की नीतियों में खिलने लगेगा। इस अत्यंत अल्प कालखंड में  भी केंद्र सरकार द्वारा आर्थिक, सुरक्षा, वैष्विक संबंधों एवं अन्यान्य क्षेत्रों में देशहित में जो कतिपय नीतिगत पहल की गई है, उससे आशा  तो जगी हैं। इसी दिषा में आने वाले दिनों में उचित पथ पर देष की नीति सुनिश्चित और सुव्यवस्थित होकर आगे बढ़े यह इस सरकार को करना होगा। आषा और विष्वास के साथ हमें अधिक प्रतीक्षा करनी पड़ेगी।
पिछले दिनों देश  के विभिन्न भागों विषेषकर जम्मू-काशमीर में आयी बाढ़ से जन-धन की अपार क्षति हुई है। इस त्रासदी में काल कवलित हुए सभी लोगों की शांति व सद्गति के लिये प्रभु चरणों में प्रार्थना और उनके परिवारजनों के प्रति हार्दिक संवेदना है। जम्मू-कश्मीर में आयी इस अकल्पनीय त्रासदी के निवारण के लिये केन्द्र सरकार ने जिस तत्परता एवं उदार मन से सब प्रकार की सहायता उपलब्ध कराई है, वह प्रषंसनीय है। हमेशा की भांति, अन्यान्य सामाजिक संस्थाओं के साथ-साथ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ एवं सेवाभारती के कार्यकर्ताओं ने भी तुरंत राहत कार्य प्रारंभ कर दिया और आगे भी आवश्यक कार्य की योजना बनाई है। ऐसे संकट के समय सब प्रकार के भेदों से ऊपर उठकर सहायता के लिये तत्पर हो जाना ही भारतीय समाज की समान सामाजिक संवेदना एवं राष्ट्रीय एकता का परिचय देती है।

परंतु देश  की परिस्थिति व जमीन का वास्तव बहुत गंभीर है व जटिल है। केवल सत्ता व राजनीति के भरोसे देश के भविष्य को छोड़ देने से काम नहीं चलेगा। विष्व में प्रचलित सभी नीतिपथ खण्डित व अधूरी दृष्टि पर आधारित हैं। अपने देश के तंत्र व नीति पर भी स्वतंत्रता के बाद आज तक उसी का प्रभाव रहा है। एक राष्ट्र के नाते खड़े होने के लिये समाज में आवष्यक प्रामाणिकता का, समरस आत्मीयता का, उद्यमिता, ध्येयवादिता, संस्कारप्रवणता आदि सद्गुणों का सदियों से क्षरण होता आ रहा, वह अभी भी रूका नहीं है। अपने संकुचित स्वार्थ के लिये इन कमियों को कुरेदकर, बढ़ाकर, भेद के झगड़ों की आग पर अपनी रोटियाँ सेंकने का खेल करने वाली देषी व विदेषी शक्तियाँ अभी भी विद्यमान है। अपना खेल खेलने का प्रयास कर रही है। इसलिये देश का तंत्र चलाने वाले सबको सजग व सक्षम रहना ही पड़ेगा। प्रचलित विकास पथ की अच्छी बातों को अपनाते हुए नये कालसुसंगत पथ का निर्माण करना पड़ेगा। एकात्म व समग्र दृष्टि के अभाव से प्रचलित विकास पथ में आयी त्रुटिपूर्ण बातों का परित्याग करते हुए अपनी दृष्टि के आधार पर नये पर्याय खड़े करने पडेंगे। स्वामी विवेकानंद, योगी अरविंद, स्वामी रामतीर्थ, रविंद्रनाथ ठाकूर, लोकमान्य तिलक से लेकर तो महात्मा गांधी, सुभाषचंद्र बोस, स्वातंत्र्यवीर सावरकर, डाॅ. बाबासाहेब आंबेडकर, पू. विनोबा भावे, संघ के द्वितीय सरसंघचालक श्री गुरुजी उपाख्य श्री माधवराव सदाषिवराव गोलवलकर, श्री राममनोहर लोहिया, श्री जयप्रकाष नारायण, पं. दीनदयाल उपाध्याय आदि महापुरुषों ने स्वानुभव के आधार पर इस देष की शिक्षा, संस्कार, अर्थनीति, समाजनीति, सुरक्षानीति आदि के बारे में जो गहन, समग्र, मूलगामी व व्यावहारिक चिंतन किया है; उसके परिषीलन से व प्रयोगों के अनुभव से निर्मित एक नया कालसुसंगत विकास पथ देष के तंत्र में स्थापित करना पड़ेगा। देश के अंतिम पंक्ति में खड़े अंतिम मनुष्य के जीवन की स्थिति ही इस देष के विकास की निर्णायक कसौटी होगी तथा आत्मनिर्भरता देष की सुरक्षा व समृद्धि का अनिवार्य घटक है यह ध्यान में रखकर चलना पड़ेगा। जीवन का भिन्न दृष्टि से विचार करने वाला तथा उस विचार के आधार पर विष्व का सिरमौर देष बनकर सदियों तक जगत का नेतृत्व करने वाला अपना देश रहा है, इस तथ्य को निरंतर स्मृति में रखकर चलना पड़ेगा। उस दृष्टि में भारत में ही समस्त विष्व के कल्याण का सामथ्र्य विद्यमान है। उसका युगानुकूल आविष्कार नीतियों में प्रकट करना पड़ेगा।
              
ऐसी नीतियाँ चलाकर देष के जिस स्वरूप के निर्माण की आंकांक्षा अपने संविधान ने दिग्दर्षित की है उस ओर देष को बढ़ाने का काम होगा, इस आशा  और विश्वास के साथ सत्ता अपना कार्य करे इसके लिये उनको समय तो देना पड़ेगा।
पर इसके साथ ही समाज के सहयोग के बिना मात्र सत्ता के प्रयासों से जीवन परिवर्तन नहीं होता, यह विश्व के सभी प्रगत देश के विकास का इतिहास बताता है। इसलिये समाज को व समाज का प्रबोधन करने में, समाज की तरह-तरह की समस्याओं का निराकरण करने में, लगे व्यक्तियों को व संगठनों को अपना कर्तव्य समझकर सक्रिय व सजग रहने की आवष्यकता है। प्रजातंत्र में उनकी सक्रियता, सजगता तथा समाज की राष्ट्रहितपरक प्रबुद्धता के कारण ही नीतियों के सफल होने में शासन-प्रशासन को सहयोग मिलता है व सत्ता की राजनीति में देश भटक जाने की संभावना से बचाव होता है।
               
ऐसे सब व्यक्ति, संस्था तथा संगठन, लोक प्रबोधन तथा लोक समस्या परिष्कार के काम में अपने संस्थागत स्वार्थ से ऊपर उठकर राष्ट्रहित बुद्धि से लगे रहें। शासन, प्रषासन के साथ संवाद का उनका क्रम बने और चलता रहे तथा नीतियों के सुपरिणाम आखरी व्यक्ति तक पहुँच रहे हैं अथवा नहीं इसका सीधा प्रतिभाव शासन तक पहुँचते रहें इसकी आवश्यकता प्रजातांत्रिक देश में सदैव बनी रहती है।
देश की प्रगति में उपरोक्त सहयोग की आवष्यकता सद्यःस्थिति की गंभीरता और जटिलता को देखकर ध्यान में आती है। देश के दक्षिण भाग में स्थित केरल तथा तमिलनाडु राज्यों में जिहादी गतिविधियों में चिंताजनक वृद्धि दिखाई देती है। उन गतिविधियों के प्रतिरोध में ठोस व परिणामकारक उपाययोजना होती हुई ध्यान में नहीं आती है। दक्षिण सागर तट से वहाँ की रेत में पाये जाने वाले विरला खनिजों की (त्ंतम म्ंतजी) तस्करी में कोई कमी नहीं आयी है। पष्चिम बंगाल में तथा असम में घुसपैठ तथा अन्य कारणों से निर्मित जनसंख्या की असंतुलित स्थिति तथा संप्रदाय विशेषों के कट्टरपन के आगे चुनावी मतों के लिये झुककर खुषामत की वहाँ के राज्यकर्ताओं की दब्बू नीति के कारण वहाँ पर हिन्दु समाज का जीवन, कानून व्यवस्था तथा देष की सुरक्षा भी खतरे में आ गये है। संपूर्ण देष में ही देष की अंतर्गत सुरक्षा को चुनौति बनने वाला जिहादी और नक्सली उग्रवाद तथा उनका पोषण करने वाली शक्तियों पर नियंत्रण लाने के लिये केन्द्र और राज्य सरकारों के सहयोग से प्रभावी उपाययोजना प्रत्यक्ष होती हुई दिखना अभी बाकी है। परंतु इसमें समाज की भी महत्वपूर्ण भूमिका है। समाज में इन सब समस्याओं के प्रति अधिक सजगता की आवष्यकता है। सीमापर दोतरफा चलने वाली अनेक प्रकार के तस्करी में लिप्त होने वाले व्यक्ति तो समाज से ही मिलते हैं। बिना अनुमति सीमा के अंदर घुसकर संपूर्ण देश में फैल जाने वाले घुसपैठियों को रोजगार व आश्रय देने वाले समाज के सामान्य लोग ही रहते हैं। समाज में शोषण के प्रभाव व विकास के अभाव के कारण नक्सली उग्रवाद को गोलाबारुद (ब्ंददवद विककमत) उपलब्ध होता है। शोषण समाप्ति व विकास लाभ के लिये जैसे प्रषासन की चुस्ती, पारदर्षिता, संवेदनषीलता तथा नियमबद्धता आवष्यक है वैसे ही और उतना ही इन सब में समाज का सक्रिय सहयोग, अपनी स्वतंत्र गतिविधियों से शोषण समाप्ति के लिये प्रजातांत्रिक तरीके से संघर्षरत रहना तथा विकास को समाज के अभावग्रस्त व्यक्तियों तक पहुँचाने के लिये तरह-तरह की सेवा गतिविधि वहाँ प्रारंभ करना भी आवष्यक है। शासन की नीतियाँ देश को आत्मनिर्भरता की ओर ले जाने वाली ही हो परंतु साथ में समाज की उद्यमिता बढ़े, सस्ती मिलती है इसलिये नित्य उपयोग की सामग्री, यहाँ तक की देवी देवताओं की मूर्तियाँ भी विदेश  में बनी हुई खरीदने की प्रवृत्ति हम समाज के सामान्य लोग त्यागे व जीवन में स्वदेशी का आचरण करें यह भी अनिवार्य आवश्यकता हैं। देश की सुरक्षा को शासन की सजग व शक्तिशाली नीति के तथा सेना की पूर्ण सिद्धता व पराक्रम के साथ-साथ ही समाज की जागरुकता, व्यक्तिगत चारित्र्य व देशभक्ति भी सुनिश्चित करती है। समाज में चलने वाला संवाद शासन और सेना का बल बढ़ाने वाला हो। सेना में सैनिकों तथा सैनिक अधिकारियों की पर्याप्त संख्या में आपूर्ति समाज के युवा वर्ग में से होती रहे तथा सामान्य लोगों के आँखे व कान समाज में चलने वाली गतिविधियों पर चैकस लगी रहें इसकी आवष्यकता है। देश से मांस का निर्यात विषेषकर गौमांस का निर्यात तथा गौ तस्करी पर भी भविष्य में शीघ्रता से रोक लगाने की आवष्यकता महसूस होती है।
                 
परंतु क्या इस दृष्टि से हम अपने समाज की स्थिति को लेकर आष्वस्त हो सकतेे हैं? हमारे घरों में पलने-बढ़ने वाले बालकों, किशोरों की तैयारी घर में मिलने वाले वातावरण के संस्कारों से क्या इस प्रकार गढ़ी जाती है? ऐसे संस्कारों के पोषण के लिये आवष्यक आचरण का उदाहरण क्या घर के अभिभावक उपस्थित करते हैं? नई पीढ़ी में बढ़ने वाला नषीली द्रव्यों के उपयोग का प्रमाण, शिक्षा व परिवारों में आयी हुई आत्मीयता, संवाद व संस्कारों की कमी की ओर भी निर्देश  करते हैं। ‘‘मातृवत् परदारेषु, परद्रव्येषु लोष्ठवत्। आत्मवत् सर्वभूतेषु’’ यह हमारी परंपरा का मुख्य संस्कार रहा है। उन संस्कारों का क्षरण देष में बढ़ते हुए अपराधों का, महिलाओं के साथ अत्याचार का तथा युवा पीढ़ी में बढ़ते अनाचार व उच्छृंखलता का मूल है। उस पर नियंत्रण करने के लिये कानून की कड़ाई व व्यवस्थाओं की पुनर्रचना जितनी आवष्यक है, उतनी ही आवष्यकता समाज के वातावरण में सुयोग्य आचरण के उदाहरण व सुसंस्कार प्रवणता की है।
इस वातावरण के परिवर्तन को लाने में शासन की भी भूमिका है यह सब जानते है। षिक्षा सर्वसुलभ, संस्कार प्रदान करने वाली व्यवस्थित हों, जीवनसंघर्ष में स्वाभिमान से खड़ा रहने का सामथ्र्य व साहस देने वाली हों यह षिक्षा विभाग को देखना चाहिये। जनता को जानकारी देना व उनका प्रबोधन करना यह जिनका कर्तव्य है उन दृकश्राव्य तथा पाठ्य् माध्यमों (टपेनंस ंदक च्तपदज उमकपं) के द्वारा संस्कार बिगाड़ने वाले कार्यक्रम व विज्ञापन न परोसे जाय ऐसा नियंत्रण रखने का काम भी सरकार के सूचना व प्रसारण विभाग का है ही। परंतु समाज इन कार्यों के शासन के द्वारा होने की बाट जोहते रुका रहे इसकी आवष्यकता नहीं। हमारा अपना परिवार भी समाज का एक छोटा रूप है। कुटुंब समाज की परिपूर्ण ईकाई के रूप में आज भी हमारी जीवनव्यवस्था में चल रहा है। उसमें हम विभिन्न विषयों के पाठ्यक्रम नहीं पढ़ा सकेंगे, परंतु जीवन में मनुष्यता का संस्कार भरने वाला, कर्तव्या-कर्तव्य का विवेक सिखाने वाला, साहस से जीवन का सामना करने की शक्ति व धैर्य देने वाला प्रषिक्षण तो अपने घर के वातावरण में ही मिलता है। इस दृष्टि से अपने कुटुंब के बड़े व सन्मान्य व्यक्तियों का व्यवहार, कुलपरंपरा की इस दृष्टि से उपयुक्त रक्षणीय बातें तथा तदनुरूप व्यवहार व संवाद का चलन बनाना तो पूर्णतया अपने ही हाथ में है। प्रत्येक घर में यह होना आज आवष्यक हो गया है।
               
शासन की भूमिका के बिना भी हम जिन क्षेत्रों में अपना कर्तव्य करने में अग्रेसर हो सकते है वह है अभाव व भेदभाव की समाप्ति। सौभाग्य से इन दोनों क्षेत्रों में चिंतन व कार्य पूर्व से चलता आ रहा है। शिक्षा, स्वास्थ्य, पर्यावरण के प्रति जागृति व पर्यावरण परिष्कार, स्वावलंबन के लिये स्वयं सहायता समूह व उद्यमिता प्रशिक्षण, जलसंधारण, जैविक कृषि, गौसंवर्धन, ग्राम विकास ऐसे अनेक क्षेत्रों में अनेक लोग कार्य कर रहे हैं। संघ के स्वयंसेवक भी इन क्षेत्रों में कार्यरत है। परंतु समाज की विशालता के अनुपात में इन कार्यों के विस्तार की बहुत गुंजाईश  है। अपनी रुचि, प्रकृति व समय आदि क्षमताओं के अनुसार हम किसी पहले से चले कार्य में जुड़ सकते हैं अथवा हम स्वतंत्र रूप से किसी कार्य को कर सकते है। कम से कम अपने अड़ोस-पड़ोस में अथवा हमारे अपने घर में आजीविका के लिये सेवा देने वाले अपने समाज के अभावग्रस्त बंधु-भगिनिओं के लिये किसी उपयोगी कार्य में हम अपने कुटुंब को साथ लेकर जुट सकते हैं।
 समाज से भेदभावना दूर करने का कार्य बहुत अधिक प्रमाण में व बहुत अधिक गति से होने की आवष्यकता हैं। मन में से भेदभावना निकालने का काम तो शासन अथवा अन्य कोई व्यवस्थागत तंत्र कर भी नहीं सकता। इसे तो समाज के उद्यम के द्वारा ही संपन्न किया जा सकता है। अपने मन से, अपने घर से तथा अपने मित्र परिवार से प्रत्यक्ष कृति प्रारम्भ करके ही यह कार्य संभव होगा। इस हेतु मेरे अपने व्यक्तिगत व्यवहार में, मेरे अपने परिवार के वातावरण में, जो आदतें, रूढि़, कुरीतियाँ, भेदभाव के व्यवहार का पोषण करने वाली चली आ रही है उनका संपूर्ण त्याग करना होगा। जातिगत, प्रांतगत, भाषागत, अहंकारों तथा अभिनिवेषों के सूक्ष्मतम अवषेषों को भी निकाल बाहर करना होगा। ऐसे अहंकारों को लेकर भावना भड़काने वाले वक्तव्य सुनने, बोलने तथा भडकाऊ वातावरण में बह जाकर किसी आतताई कार्य को करने से बचना होगा। अपने विषाल हिंदू समाज का प्रत्येक व्यक्ति, भारतमाता का प्रत्येक सुपुत्र, मेरा अपना बंधु है इस आत्मीय भावना की कसौटी पर अपनी प्रत्येक छोटी-बड़ी कृति को तराषना होगा। अपने समविचारी सहयोगियों को साथ लेकर हिंदुओं के धर्मस्थान, स्मशान व जलाभरण के स्रोत सब हिंदुओं के लिये खुले हों, हिंदुओं के अनेकविध पंथ-संप्रदाय, भाषा, प्रांत, जातियों के गौरवास्पद महापुरुषों के नाम पर होने वाले कार्यक्रमों, उत्सवों में सब हिंदुओं की सहभागिता हों यह पहल करनी पड़ेगी। इस कार्य का स्वयं से प्रारंभ हम आज ही कर सकते हैं। कालक्रम में संकुचित हुए अपने आत्मीयता के दायरे के लिये यह एक सीमोल्लंघन आज हम अनिवार्य रूप से कर लें।

हमारे पास दर्शनों की कमी नहीं है। अपने शाष्वत मूल्यों के आधार पर व्यक्तिगत व सामूहिक जीवन का काल-सुसंगत विचार भी अनेक महापुरुषों ने रखा है। पं. दीनदयाल जी उपाध्याय के द्वारा प्रतिपादित एकात्म मानव दर्षन के आविर्भाव का 50 वाँ वर्ष चल रहा है। सौभाग्य से प्रामाणिकता व निःस्वार्थ बुद्धि से राष्ट्र कल्याण के लिये अपने आप्त पूर्वजों के द्वारा दिये गये उन स्वानुभूत उपदेषों को चरितार्थ करने का संकल्प भी देष का नेतृत्व करने वाले व्यक्तियों में विद्यमान दिख रहा है। समाज में सजगता, एकात्मता, व्यक्तिगत व राष्ट्रीय चारित्र्य, अनुषासन इत्यादि सद्गुणों के आधार पर धैर्यपूर्वक सामूहिक उद्यम खड़ा हो तो अपने सामने खड़ी सारी चुनौतियों व संकटों को पार कर स्वयं के उदाहरण से संतुलित, सुखी, सर्वांग सुंदर, वैष्विक जीवन का पथ प्रदर्षक राष्ट्र जीवन खड़ा करना शीघ्र संभव होगा।

विजयादमी विजयपर्व है। राष्ट्र के सामने प्रकट यह नये विजय का क्षितिज हमको ललकार रहा है। प्रतिपदा से लेकर नवमी तक जागृत रहकर सामूहिक शक्ति की उपासना चली तब दैवीसंपत्तियुक्त देवगणों को विजयादमी के विजय प्राप्ति का अवसर देखने को मिला। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ 1925 से आजतक इसी दैवीसंपदयुक्त, शक्तिसंपन्न, संगठित समाज की निर्मिति में लगा है। समाज में वातावरण निर्मिति से आचरण का परिवर्तन होता है, उसी के बल पर व्यवस्था परिवर्तन यषस्वी होता है। जितना बड़ा अपना समाज है, जितनी गंभीर व जटिल अंतर्गत व बाहî समस्याओं का घेरा उस पर लगा है और जितने भव्य प्रयोजन की सिद्धी के लिये अपने इस राष्ट्र का अस्तित्व है, उसको देखते हुए अभी बहुत कार्य होना बाकी है। अपने राष्ट्रीय स्वत्व-हिन्दुत्व का गौरव मन में जगाकर उस गौरव के अनुरूप सद्गुणों को अपने स्वभाव का अंग बनाकर, देष के लिये संगठित होकर जीवन जीने वाले व प्रसंगोपात्त प्राणसर्वस्व अर्पण करने की तैयारी रखने वाले व्यक्तियों के निर्माण का यह कार्य राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अपने जीवन के प्रारंभ से करते आया है। सभीको अपने अंदर समा लेने वाला, सर्व समावे, सर्वव्यापक सत्य ही हिंदुत्व है। वहीं अपना स्वत्व है। इसीलिये् राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शाखा गाँव-गली-मोहल्ले में घर-घर तक पहुँचानी पड़ेगी। अपने इस सनातन राष्ट्र के उस स्वरूप के खड़े होने की प्रतीक्षा सारा विष्व कर रहा है, जिसके बारे में किसी कवि ने यह कहा है-
‘‘विश्व का हर दे जब भी, दिग्भ्रमित हो लड़खड़ाया,
                            सत्य की पहचान करने, इस धरा के पास आया।
      भूमि यह हर दलित को पुचकारती, हर पतित को उद्धारती,
                            धन्य दे महान, धन्य हिन्दुस्थान।’’
                उस महान देश  की नवनिर्मिति में सहयोग का आवाहन करता हुआ मैं अपना निवेदन समाप्त करता हूँ।

।। भारत माता की जय ।।
                   

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

विश्व संवाद केन्द्र जोधपुर द्वारा प्रकाशित