शनिवार, 30 अप्रैल 2016

केरल में वाम हिंसा पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अखिल भारतीय सह प्रचार प्रमुख जे नंदकुमार जी के साथ साक्षात्कार

केरल में वाम हिंसा पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अखिल भारतीय सह प्रचार प्रमुख जे नंदकुमार जी के साथ साक्षात्कार

नंद कुमार जी
केरल का कन्नूर एक ऐसा जिला है, जो संघ स्वयंसेवकों पर हुए अत्याचारों की अनेकों अनकही कहानियाँ अपने अन्दर छिपाये है. यह दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य है कि मीडिया की नजरे इनायत इधर नहीं है, क्योंकि उसकी व्यस्तता और रूचि संघ परिवार के सकारात्मक सेवा कार्यों को विध्वंसक बताकर उसे अकारण बदनाम करने में ज्यादा है. उसका कारण भी साफ है कि केंद्र में भले ही सत्ता परिवर्तन हो गया हो, किन्तु स्थापित मीडिया का वही पुराना एजेंडा है, संघ विरोध का एजेंडा.

कन्नूर एक ऐसा वाम गढ़ है, जहां अखबार भी कौन सा पढ़ा जाए, इसका निर्धारण भी पार्टी करती है और यहां पुलिस बल और न्यायपालिका राजनीतिक दलों के हाथ का खिलौना है.

प्रश्न 1: क्या आप बता सकते हैं कि विगत पांच वर्षों में इस प्रकार के कितने हमले हुए ? क्या उसके आंकड़े मिल सकते है ?
उत्तर : केरल में पिछले 50 वर्षों में आरएसएस से सम्बंधित 267 लोगों की हत्याएं हुईं हैं ! इनमें से 232 लोग सीपीएम द्वारा मारे गए थे. वर्ष 2010 के बाद, सोलह आरएसएस कार्यकर्ताओं की सीपीएम द्वारा हत्या कर दी गई. किसी के पैर काट दिए गए, किसी की आंख फोड़ दी गईं, अनेकों को पीट पीट कर जीवन भर के लिए अपाहिज बना दिया गया. इन घायलों की संख्या मारे गए लोगों से लगभग छह गुना है. इन झड़पों के बाद शान्ति व्यवस्था के नाम पर पुलिस द्वारा क्रूरता का नंगा नाच किया गया. हमारे निर्दोष कार्यकर्ताओं पर झूठे मुकदमे लादे गए, लोकअप में उन्हें बेरहमी से पीटा गया, यह अनुभव तो और भी बदतर था.

प्रश्न 2: क्या इन हमलों का कोई निश्चित पैटर्न है , क्या ये हमले चुनाव के पूर्व ज्यादा होते हैं ?
उत्तर: जी हां, इन सभी हमलों का एक पैटर्न है. लेकिन सामान्यतः राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के खिलाफ होने वाले सीपीएम के हमलों की संख्या का चुनाव की घोषणा से कोई संबंध नहीं है. हालांकि कांग्रेस और आईयूएमएल जैसे अन्य दलों के खिलाफ होने वाले सीपीएम के हमलों के मामले में यह सच है. आरएसएस के खिलाफ हमलों के लगभग सभी मामले आरएसएस और भाजपा के विरुद्ध सीपीएम कार्यकर्ताओं और उनके परिवारों के प्रवाह से संबंधित है. लेकिन इस बार अवश्य विधानसभा चुनाव के मद्देनजर आरएसएस और भाजपा के खिलाफ हमलों में एक बड़ी वृद्धि हुई है. इसका कारण यह है कि पहली बार सीपीएम को लग रहा है कि भाजपा को व्यापक जन समर्थन मिल रहा है, और वे किसी भी तरह से उसे रोकना चाहते हैं.

प्रश्न 3: क्या अधिकारियों द्वारा कोई कदम उठाये गए , क्या कोई गिरफ्तारी हुई ? यह आरोप लगाया गया है कि कुछ घटनाओं में , जैसे कि फरवरी में सुजीत पर हुए हमले का प्रकरण निजी दुश्मनी के कारण घटित हुआ , इन आरोपों के बारे में आपका क्या कहना है ?
उत्तर: हां यह सच है कि सीपीएम द्वारा किये जाने वाले प्रत्येक हमले के बाद पुलिस कुछ लोगों को गिरफ्तार करती है. लेकिन लगभग सभी मामलों में, विशेष रूप से कन्नूर में, वास्तविक अपराधियों को हाथ भी नहीं लगाया जाता. पुलिस केवल उन लोगों को गिरफ्तार करती है, जिन्हें गिरफ्तार करने के लिए पार्टी हरी झंडी दे देती है. इसे समझना चाहिए कि यह कैसे और क्यों होता है, दरअसल सीपीएम नेतृत्व का अपने कार्यकर्ताओं और केरल पुलिस पर पूरा प्रभाव है.

अब सवाल उठता है कि पार्टी यह क्यों करती है ? इसका एक कारण तो यह है कि गिरफ्तारी/ सरेंडर की इस नौटंकी में हत्यारी ब्रिगेड साफ बची रहती है, भविष्य में इस प्रकार के ऑपरेशन और करने के लिए पूर्ण स्वतंत्र, दूसरी बात यह कि जो कार्यकर्ता सरेंडर करते हैं, वे सबूतों के अभाव में अदालत से साफ बरी हो जाते हैं, तीसरा यह कि इसके बाद भी अगर खुदा न खास्ता किसी को सजा हो भी जाए तो पार्टी, जो सामान्यतः हर पांच वर्ष बाद सत्ता में आ ही जाती है, उनके परिवारों को मुक्त हस्त से पुरस्कृत करती है. इतना ही नहीं तो वे पैरोल पर बार बार जेल से छूटते भी रहते हैं. फिर भी, कुछ वास्तविक हत्यारों को सजाएं हुई हैं, पर उसके पीछे सीपीएम की स्क्रिप्ट को धत्ता बताने वाले कुछ अत्यंत बहादुर वरिष्ठ आईपीएस पुलिस अधिकारी होते है. इस सबके प्रति कांग्रेस पार्टी और उसके प्रशासन का कहीं सक्रिय रूप से तो कहीं निष्क्रिय होकर सीपीएम के साथ मिलीभगत रहती है. इन राजनीतिक हत्याओं के पीछे छिपे मास्टरमाइंड को गिरफ्त में न लिए जाने के पीछे मुख्य कारण यह है कि सीपीएम और कांग्रेस दोनों ही भाजपा को अपना प्राथमिक शत्रु मानती हैं. यह अपवित्र गठबंधन बार बार प्रकाश में आता है, यहां तक कि स्वयं उच्च न्यायालय ने भी खुले तौर पर (और पहली बार नहीं) कहा है कि केवल सीबीआई जांच से ही इन राजनीतिक हत्याओं का सच सामने आ सकता है , क्योंकि इनमें कन्नूर के वास्तविक शासक (सीपीएम) शामिल हैं. एक मुस्लिम लीग कार्यकर्ता शुकूर की माकपा द्वारा की गई ह्त्या की सीबीआई जांच हेतु दायर की गई याचिका में अदालत ने अपना यह अभिमत दिया.

आपने सुजीत की हत्या के पीछे निजी दुश्मनी संबंधी आरोप के बारे में पूछा है. यह सच नहीं है और मैं आग्रह करता हूं कि आप स्वयं इस आरोप के बारे में अपने स्तर पर जानकारी लें, वास्तविकता आपके सामने आ जायेगी. राज्य पुलिस की प्राथमिकी में भी इस बात की पुष्टि हुई थी कि सुजीत की ह्त्या एक राजनीतिक हत्या थी. सीपीएम के लोग अपने द्वारा की गई सभी हत्याओं को लेकर पूर्व से ही, “ व्यक्तिगत कारणों से की गईं” का आरोप लगाते रहे हैं, फिर चाहे वह असंतुष्ट मार्क्सवादी टीपी चंद्रशेखरन की ह्त्या हो, अथवा भाजयुमो उपाध्यक्ष जयकृष्णन मास्टर या सुजीत का प्रकरण हो.

उनके काम करने का यही ढंग है. पहले टारगेट को अपनी इच्छा बताकर डराने के लिए उसके खिलाफ प्रचार अभियान चलाना, और अगर यह उपाय कारगर न हो तो फिर उसकी हत्या कर देना. हत्या के बाद सीपीएम का प्रयत्न रहता है, अपने प्रचार उपकरणों, जैसे टीवी चैनल (कैरली , पीपुल्स) और समाचार पत्र (देशाभिमानी) के माध्यम से, मृत व्यक्ति की चरित्र ह्त्या करना और यह प्रदर्शित करना कि उसकी हत्या उसकी अपनी व्यक्तिगत कमजोरी के कारण हुई, किसी राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता के कारण नहीं. उनकी इस कार्यपद्धति को केरल का बच्चा बच्चा जानता है.

प्रश्न 4: जो लोग मर जाते हैं और जो लोग गंभीर रूप से घायल हो जाते हैं , उन लोगों के परिवारों का क्या होता है ? क्या राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में इन परिवारों की देखरेख हेतु कोई व्यवस्था है ?
उत्तर: आरएसएस ने स्थानीय लोगों की मदद से अपने ऐसे पीड़ित कार्यकर्ता जिनकी हत्याएं हुई हैं, के परिजनों की देखरेख हेतु समुचित व्यवस्था बनाई है. इसी प्रकार अंगभंग के कारण स्थाई रूप से अपाहिज हुए कार्यकर्ताओं के उपचार में कोई कसर नहीं छोड़ी जाती. इस राज्य की भीषण परिस्थिति को देखते हुए संगठन ने इस सबके लिए एक तंत्र विकसित किया है.

प्रश्न 5: देश में शाखाओं की सर्वाधिक संख्या केरल में है , राज्य में युवा आरएसएस में शामिल होने के लिए उत्सुक हैं , इसके पीछे आपको क्या कारण प्रतीत होता है  खासकर तब , जबकि इस क्षेत्र को कम्युनिस्टों का गढ़ माना जाता है ?
उत्तर: साम्यवाद की क्यारी रहा केरल तेजी से इस्लामी आतंकवाद की प्रजनन भूमि में बदल रहा है. केरल के हिंदुओं में असुरक्षा की भावना है और वे इन ताकतों के खिलाफ एक सेतु के रूप में संघ को देखते हैं. कम्युनिस्ट पार्टियों ने अपने हिन्दू विरोधी रुख के कारण केरल की मूल परम्पराओं और जीवन मूल्यों को नष्ट करने की कोशिश की थी. युवा पीढ़ी अब एक बार फिर अपनी जड़ों से जुड़ना चाहती है, और वह संघ और उसके अनुसंगों में अपने सांस्कृतिक पुनरुत्थान को देख रही है. इसके अतिरिक्त मुख्यधारा के राजनीतिक संगठनों के दुष्कर्म और भ्रष्टाचार को देखकर विशेष रूप से युवाओं में हताशा बढ़ रही है. संगठनात्मक योजना और प्रतिबद्ध कार्यकर्ताओं द्वारा योजनाओं के अनुशासित कार्यान्वयन के कारण केरल में आरएसएस का विकास मार्ग प्रशस्त हुआ है.

प्रश्न 6: आरएसएस कार्यकर्ताओं के खिलाफ बढ़ रहे हिंसक हमलों व उनके पीछे के कारणों के बारे में क्या आप कोई अन्य विशेष बात साझा करना चाहेंगे ?
उत्तर: केरल में भी आरएसएस की कार्य प्रणाली पूरे भारत के ही समान है . हम लोग एक लोकतांत्रिक प्रणाली में काम करते हैं, और अपने साथ सम्पूर्ण समाज को जोड़ने का प्रयत्न करते हैं. हम सीपीएम या किसी अन्य संगठन को अपने दुश्मन के रूप में नहीं देखते. हमारे पास समय है, हम फिर से शांति के लिए अपील करते हैं, ताकि यह स्थिति बदले और हम राज्य में अन्य संगठनों के समान अपने संगठनात्मक काम कर सकें.

प्रमुख गांधीवादी विचारक उदयभानु सहित कई स्वतंत्र शोधकर्ताओं ने, जिन्होंने केरल में हत्या की राजनीति का अध्ययन किया, इस तथ्य को स्पष्ट रूप से कहा है. सम्पूर्ण विश्व में साम्यवाद का पतन होने के बाद सीपीएम ने केरल में दंभ को अपना दर्शन और हिंसा को उसके उपकरण के रूप में चुना है.

आपको पता होना चाहिए कि उनका टार्गेट केवल आरएसएस ही नहीं है, सीपीएम ने कांग्रेस, आईयूएमएल और यहां तक ​​कि एलडीएफ में उसके सहयोगी दलों भाकपा और आरएसपी पर भी हमले किये हैं. पिछले सप्ताह, जब त्रिवेंद्रम में पूर्व प्रदेश अध्यक्ष मुरलीधरन सहित भाजपा कार्यकर्ताओं पर एक क्रूर हमला किया गया, अल्लेप्पी में एक कांग्रेस कार्यकर्ता (जो पहले सीपीएम में था, बाद में कांग्रेस में गया) की पार्टी ने ह्त्या की और नंद्पुरम में 3 मुस्लिम लीग कार्यकर्ताओं पर सीपीएम ने बम से हमला कर घायल कर दिया. जब हिंसा की बात हो, तो सीपीएम सबसे आगे है.
साभार :: vskbharat.com

मंगलवार, 26 अप्रैल 2016

सामाजिक सरोकारों पर बनें फिल्में: जे. नन्द कुमार

सामाजिक सरोकारों पर बनें फिल्में: जे. नन्द कुमार



नोएडा। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अखिल भारतीय सह प्रचार प्रमुख डा.जे.नन्द कुमार ने कहा कि फिल्में समाज का आईना होती हैं। सकारात्मक विषयों पर फिल्मों के निर्माण पर बल देते हुए उन्होंने कहा कि इस तरह की फिल्मों से समाज में अच्छा संदेश जायेगा। फिल्मों में समाजिक सरोकारों को केन्द्रीय विषय के रूप में शामिल किया जाना चाहिए। नन्द कुमार ने उक्त बातें प्रेरणा मीडिया नैपुण्य संस्थान के सेक्टर 62 स्थित परिसर में आयोजित प्रेरणा फिल्म फेस्टिवल में कही। 

उन्होंने फिल्म फेस्टिवल में भाग लेने वाले विद्याथियों की रचनात्मक सोच की भूरि-भूरि प्रशंसा की और कहा कि रचनात्मकता से देश और समाज को नई दिशा दी जा सकती है। इण्डियन इंस्टीट्यूट आॅफ मास कम्युनिकेशन (आईआईएमसी) के महानिदेशक के.जी. सुरेश ने फेस्टिवल में हिस्सा लेने वाले विद्यार्थियों को बधाई देते हुए उनके प्रयासों को समाज द्वारा प्रोत्साहित करने की आवश्यकता पर बल दिया दिया। फिल्म सेंसर बोर्ड की सदस्य श्रीमती नीता गुप्ता ने फिल्म क्षेत्र में छात्राओं और महिलाओं के भी आने का आह्वान किया और कहा कि आधी आबादी पर बदलती सोच की अभिव्यक्ति फिल्मों में भी सकारात्मक तरीके से दिखनी चाहिए। कार्यक्रम का संचालन लोकसभा टीवी में एंकर रामवीर श्रेष्ठ ने किया। अध्यक्षता मारवाह स्टूडियो के अध्यक्ष संदीप मारवाह ने की। फिल्म फेस्टिवल का संयोजन सचिन सिंह ने किया।

कार्यक्रम दोपहर बाद दो बजे फिल्मों के प्रदर्शन से प्रारम्भ हुआ। इसमें नोएडा, ग्रेटर नोएडा, गाजियाबाद के विभिन्न पत्रकारिता संस्थानों के स्नातक और परास्नातक छात्रों की चयनित फिल्मों को दिखाया गया। कार्यक्रम में फिल्मों को दो कैटेगरी- डॉक्यूमेंट्री और फिक्शन में दिखाया गया। डॉक्यूमेंट्री श्रेणी में प्रथम पुरस्कार जागरण मीडिया संस्थान के छात्र अंकित श्रीवास्तव व द्वितीय पुरस्कार आई.एम.एस. नोएडा की छात्रा रक्षंदा सिंह को दिया गया, जबकि फिक्शन श्रेणी में गलगोटियाज विश्वविद्यालय के छात्र मंजीत कुमार को प्रथम पुरस्कार, आई.एम.एस. नोएडा के दीक्षांत वर्मा को द्वितीय व गलगोटियाज विश्वविद्यालय की समृद्धि को तृतीय पुरस्कार प्रदान किया गया। कार्यक्रम में आरएसएस के उत्तर प्रदेश एवं उत्तराखण्ड के संयुक्त क्षेत्र प्रचार प्रमुख कृपाशंकर, आरएसएस के क्षेत्र व्यवस्था प्रमुख ललित, मेरठ प्रान्त के प्रचार प्रमुख अजय मित्तल, स्वदेश के राजनीतिक संपादक सुभाष सिंह, गलगोटियाज विश्वविद्यालय में पत्रकारिता विभाग के डीन डॉ. अमिताभ श्रीवास्तव आदि प्रमुख रूप से उपस्थित रहे।

शनिवार, 23 अप्रैल 2016

विद्याभारती जोधपुर प्रान्त की प्रान्तीय प्रधानाचार्य बैठक संपन्न

विद्याभारती जोधपुर प्रान्त की प्रान्तीय प्रधानाचार्य बैठक संपन्न


 विद्याभारती अखिल भारतीय शिक्षा संस्थान से सम्बद्ध विद्याभारती जोधपुर प्रान्त का प्रान्तीय प्रधानाचार्य बैठक के अन्तिम दिन प्रान्त के प्रान्त प्रचारक श्री चन्द्रशेख जी सहप्रान्त प्रचारक श्री योगेन्द्र जी प्रान्त मंत्री श्री अमृत लाल जी दैया, सचिव श्री महेंन्द्र कुमार जी दवे, निरिक्षक श्री गंगाविष्णु जी, सदस्य श्री सत्यपाल जी हर्ष, सेवा प्रमुख श्री रूद्रकुमार जी शर्मा, शिशुवाटिका प्रमुख श्री राजकुमार जी जोधपुर प्रबन्ध समिति आदर्श विद्यामन्दिर के उपाध्यक्ष श्री निर्मल जी गहलोत, व्यवस्था प्रमुख श्री पारस जी जैन सचिव श्री संग्राम जी काला सहित अनेकों गणमान लोग उपस्थित थे।
             
प्रबन्ध समिति आदर्श विद्यामन्दिर के  सचिव   संग्राम जी काला ने बताया कि   प्रान्त के सदस्य श्री सत्यपाल जी हर्ष , श्री चन्द्रशेखर जी  व अमृत लाल जी दैया  ने माॅं शारदा के समक्ष दीप प्रज्वलन कर समापन सत्र का शुभारम्भ किया। उपेक्षित जन शिक्षा निधि में उत्कृष्ट भूमिका निभाने वाले विद्यालयों को पुरस्कार दिये गये।

 
 मुख्य वक्ता जोधपुर प्रान्त के प्रान्त मंत्री श्री अमृतलाल जी दैया ने कहा कि हम स्वतन्त्रता के 67 वर्ष बाद भी मानसिक गुलामी झेल रहे है। 1947 में हमें स्वराज तो मिला किन्तु स्वतन्त्रता नहीं मिली। डाॅ, हेडगेवार ने देश की स्थितियों पर विचार कर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना की । विद्यार्थीयों के बीच कार्य करने के लिए  विद्याभारती की स्थापना हुई। जो आज विशाल वटवृक्ष  का रूप धारण कर चुका है। आज पाठ्यक्रम बदलने पर जोर रहता है। किन्तु उनसे मात्र शिक्षा मिलती है, संस्कार नहीं , तभी जेएनयू जैसी घटनाएॅ सामने आती है। प्रकृति के अन्तर्गत जड़ चेतन सब विद्यमान है। जिसमें से मनुष्य मात्र को विवेक मिला है। इस नाते मनुष्य को जैसे शिक्षा मिलती है। वैसा ही समाज बनता है। वतर्मान  शिक्षा को ठीक करने के साथ साथ मानव का मन भी ठीक करना जरूरी है।  हमारे ऊपर सम्पूर्ण समाज को जोड़ने की जिम्मेदरी है।  हम समाज प्रबोधन कुटुम्ब प्रबोधन तथा विद्यालय की समस्त गतिविधियाॅं एक प्रेरणादायी वातावरण को निर्मित कर सके। हमारे पूर्व छात्र हमारी बहुत बड़ी पूंजी है, उनके सहयोग से समाजिक कार्यों में बढ़ चढ़ कर भाग लेना चाहिए। कार्य को भार न समझें  बल्कि अपना दायित्व मानकर करना चाहिए। इस प्रकार सम्पूर्ण देश में विद्या भारती समाज क्षेत्र में संस्कार सम वातावरण निर्मित करने का पुनीत कार्य कर वर्तमान पीढी को देश भक्त, चरित्रवान, श्रमनिष्ठ इत्यादि श्रेष्ठ गुणो का निर्माण करने मे लगी हुई है।

बुधवार, 20 अप्रैल 2016

विद्याभारती जोधपुर प्रान्त की प्रान्तीय प्रधानाचार्य बैठक सम्पन्न

विद्याभारती जोधपुर प्रान्त  की प्रान्तीय प्रधानाचार्य बैठक सम्पन्न  


जोधपुर।    विद्याभारती अखिल भारतीय शिक्षा संस्थान से सम्बद्ध विद्याभारती जोधपुर प्रान्त का प्रान्तीय प्रधानाचार्य बैठक के दूसरे दिन प्रान्त के अध्यक्ष श्री अमृत लाल देया , कोषाध्यक्ष श्री रंगलाल जी सालेचा व सचिव श्री महेन्द्र कुमार दवे ने माॅं शारदा के समक्ष दीप प्रज्जवलन कर कार्य कार्यक्रम का शुभारम्भ किया। परिचय प्रान्त के सेवा  प्रमुख श्री रूद्रकुमार जी ने करवाया। संस्कृति ज्ञान परीक्षा में उत्कृष्ठ भूमिका निभाने वाले विद्यालयों को पुरस्कार श्री महेन्द्रकुमार, श्री अमृतलाल देया व श्री रंगलाल जी सालेचा द्वारा दिये गये।

मुख्य वक्ता जोधपुर प्रान्त के सचिव श्री महेन्द्र कुमार दवे ने कहा कि किसी भी राष्ट्र का स्तर वहंां की शिक्षा से ही मापा जासकता है। प्राचीन भारत के विश्वगुरु होने में इसकी श्रेष्ठ शिक्षा पद्धति एवं जीवन मूल्य रहेे। आज भी वही श्रेष्ठ ज्ञान विज्ञान में मौजूद है किन्तु भारतवासी बदल गये। आज शिक्षा केवल डिग्री धारी युवक तक सिमट गई, आज हमारा शिक्षा दर्शन जीवन एक दूसरे के विपरीत है। गाॅधी जी की बुनियादी शिक्षा आर्यसमाज की वैदिक शिक्षा , अग्रेजों की अंग्रेजी शिक्षा इनमें से कोई भी एक शिक्षा भारत को पुनः स्थापित नहीं कर पाई है। रावतभाटा परमाणु संयंत्र की खराबी को भारत के एक साधारण से युवक ने ठीक कर दिया स्वयं के विश्वास  पर ।  हम केवल विदेशी शिक्षा नीति पर विश्वास  करते है। आज की शिक्षा आत्म विश्वास नहीं बढाती उस के लिए अपनी धरती और संस्कृति से जुडकर चिन्तन करेगे तो अत्मविश्वास जागेगा। 

विद्या भारती इसी कार्य को गत 64 वर्षो से कर रही है। इसी का परिणाम है कि आदर्श विद्यामन्दिरों की समाज में अच्छी प्रतिष्ठा है। हिन्दुत्व सबको साथ लेकर विकास करने पर विश्वास रखता है। इन विद्यालयों से पढ़कर निकले विद्यार्थीयों में यहां से मिले संस्कारों की छाप देखने को मिलती है। सैद्धान्तिकता को विकसित करने के लिए व्यावहारीकता के प्रयोग करने होगें। विद्या भारती अपने 5 आधार भूत विषयों के माध्यम से हम शिक्षा के माॅडल के रूप में खडे हो रहे है। समाज के अन्य विद्यालयों व समाज के लोगों के साथ जुडकर उसमें अपेक्षित सुथार किया जा सकता है। समाजिक कुरीतियों का निराकरण हेतु हमें अधिक गति से बढ़ना होगा। प्रधानाचार्य के हिस्से में आये सब प्रकार के कार्य व्यवस्थित एवं पूर्ण होंगें तो ही समाज में अपेक्षित परिवर्तन सम्भव है।

    

 

सोमवार, 18 अप्रैल 2016

बाबा साहब के जीवन को, उनके मूल्यों को जीवन में उतारने की आवश्यकता है - दुर्गादास जी संघ बाबासाहब के ही देखे हुए सपने को पूरा करने में लगा है - डाॅ. अमीलाल भाट

बाबा साहब के जीवन को, उनके मूल्यों को जीवन में उतारने की आवश्यकता है -   दुर्गादास जी
संघ बाबासाहब के ही देखे हुए सपने को पूरा करने में लगा है - डाॅ. अमीलाल भाट 



राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के  क्षेत्रीय प्रचारक  माननीय  दुर्गादास जी उध्बोधन देते हुए 

जोधपुर १४ अप्रैल २०१६। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, जोधपुर महानगर द्वारा श्रद्धेय बाबा साहब डाॅ. भीमराव अम्बेडकर जी का 125वां जयंती समारोह  मेडीकल काॅलेज सभागार में आयोजित हुआ। 

कार्यक्रम के मुख्य अतिथि डाॅ. एस.एन. मेडीकल काॅलेज के प्राचार्य एवं नियंत्रक डाॅ. अमीलाल भाट  ने कहा कि संघ को लेकर समाज में अनेक भ्रांत धारणाएँ फैलायी जाती है जबकि संघ को समझने वाला व्यक्ति जानता है कि संघ बाबासाहब के ही देखे हुए सपने को पूरा करने में लगा है। इस भ्रांत धारणा को समाज से दूर करने की आवश्यकता है। उन्होंने कहा कि हिन्दू धर्म सर्व समावेशी है। इस दर्शन में विश्व के सभी धर्मों और तत्वों का सार निहित है। बाबासाहब भारत रत्न नहीं वरन विश्व के रत्न है।
 
कार्यक्रम के मुख्य वक्ता राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के  क्षेत्रीय प्रचारक  माननीय  दुर्गादास जी ने अपने उद्बोधन में कहा कि श्रद्धेय बाबासाहब संपूर्ण समाज के पथ प्रदर्शक थे, किसी वर्ग, दल या जाति तक सीमित नहीं थे। किंतु यह विडम्बना है कि उनका मूल्यांकन सही नहीं हो पाया। वे एक विश्वविभूति थे जिनका जन्म दैवीय योग से विशेष प्रयोजना हेतु हुआ था। 

माननीय  दुर्गादास जी ने उध्बोधन देते हुए बताया  कि तत्कालीन सामाजिक परिस्थितियों ने डॉ. आंबेडकर के हृदय पर गहरा आघात किया और समाज में व्याप्त विषमताओं को दूर करने हेतु वे कृतसंकल्प हो उठे। वे समाज में व्याप्त दोषों के, विषमता के विरोधी थे। किसी जाति विशेष या वर्ग विशेष के नहीं। बाबा साहब एक दूर दृष्टा थे जिन्होंने तत्कालीन विदेश नीति और विभाजन के संबंध में खुल कर विचार दिये और धारा 370 को देश के लिए खतरा बताया एवं पूर्ण जनसंख्या विनिमय को विभाजन की समस्या का एक मात्र हल बताया। 

बाबा साहब संघ के सम्पर्क में आये और संघ के कार्य और लक्ष्य की मुक्त कंठ से प्रशंसा की, किंतु उनका कहना था कि संघ की कार्यगति थोड़ी धीमी है और मेरे पास इतना समय नहीं है। 1949 में संघ पर लगे प्रतिबंध को हटाने हेतु भी उन्होंने सरकार के समक्ष अपनी बात रखी। बाबा साहब कम्युनिज्म के घोर विरोधी थे और उनका कहना था कि दलित वर्ग और कम्युनिज्म के बीच मैं एक दीवार हूॅ। हिन्दू धर्म छोड़ने की घोषणा के पश्चात् ईसाइ व इस्लाम मतावलम्बियों ने उनसे खूब सम्पर्क किया किंतु उन्होंने स्पष्ट मना कर दिया एवं हिन्दू धर्म के ही निकट बौद्ध धर्म को स्वीकार किया। 

दुर्गादास जी ने जोर देकर कहा कि आज बाबा साहब के जीवन को, उनके मूल्यों को जीवन में उतारने की आवश्यकता है। समरस समाज के बाबा साहब के सपने को पूरा करने के लिए हम अपने-अपने स्तर पर प्रयास कर इसे मूर्त रूप अवश्य देंगे यही उनके जयंती समारोह को मनाने का सच्चा उद्देश्य होगा। 

मंच पर प्रांत संघचालक श्री ललित जी शर्मा एवं विभाग संघचालक डाॅ. शान्तिलालजी चौपड़ा भी उपस्थित रहे।
कार्यक्रम का संचालन डॉ. अभिनव पुरोहित ने किया।

बुधवार, 13 अप्रैल 2016

आलेखवंचितों को राष्ट्रजीवन में सहभागी बनाना अतुलनीय





जाति-भेद छुआछूत के धधकते अग्निकुंड में स्वयं को तपाने वाले बाबासाहेब ने सामाजिक न्याय पर आधारित और संविधानमूलक
लोकतांत्रिक राष्ट्रवाद की न केवल संकल्पना रखी, उसे साकार भी किया

रमेश पतंगे

 भारतरत्न पूज्य डॉ. बाबसाहेब आंबेडकर के इस 125वें जयंती वर्ष में यह स्मरण करना समीचीन होगा कि राष्ट्र
निर्माण के विभिन्न क्षेत्रों में उन्होंने कितना अधिक योगदान दिया है। उनका एक सूत्र यह है कि जब तक समाज के निचले तबके का मनुष्य आत्मगौरव से खड़ा नहीं हो पाएगा, तब तक यह देश भी खड़ा नहीं होगा। इस दृष्टि से देखें तो डॉ. बाबासाहेब के अविस्मरणीय योगदान को दो भागों में देखा जा सकता है। पहला, समाज और देश के लिए वे कैसे जिए? और दूसरा, देश की एकता, विकास, देश के प्राकृतिक संसाधनों और देश की सुरक्षा का विचार उन्होंने कैसे किया? पूज्य बाबासाहेब ने एक धधकते अग्निकुंड में स्वयं को तपाया। आम आदमी को अगर ऊपर उठाना है तो शिक्षा की अत्यंत आवश्यकता है। इसलिए बाबासाहेब जब कहते थे 'सीखो', तब यह उनका कोरा उपदेश नहीं होता था। उन्होंने एम.ए., पी.एचडी., एम.एससी., डी.एससी., बैरिस्टर ऑफ लॉ, एल.एल.डी. आदि उपाधियां अर्जित कीं। मेरी दृष्टि में डॉ. बाबासाहेब का राष्ट्रनिर्माण में सबसे बड़ा योगदान तो है यही कि उन्होंने समाज के निचले तबके के मनुष्य को जगाया।

हजारों सालों से हिंदू समाज में पिछड़ी मानी गई जातियों को सामान्य नागरिक अधिकार, सामाजिक अधिकार, राजनीतिक अधिकार तक न थे। वे सामाजिक दासता में जी रहे थे। इस दासता के पीछे धर्म का अधिष्ठान खड़ा किया गया था। इस कारण यह दासता धिार्मक दृष्टि से भी अपरिवर्तनीय बन गई थी। विषमता का शास्र खड़ा किया गया। अस्पृश्यता सामाजिक पाप है, इस बात की बाबासाहेब के जन्म के पूर्व अस्पृश्य समाज को कोई अनुभूति न थी।

भारत पर मुस्लिम आक्रमणों और गुलामी के कारणों पर डॉ. बाबासाहेब की अलग मीमांसा है। उन्होंने कहा था,
''अस्पृश्यों के हाथों से अगर शस्त्र नहीं निकाले गए होते तो यह देश कभी गुलाम नहीं हो पाता।'' अस्पृश्य जाति में जन्मा मनुष्य राष्ट्रजीवन से तोड़ा गया और वह मुस्लिम आक्रमण का शिकार बन गया। इस समाज से कई लोग तो
अपनी इच्छा से परधर्म में चले गए। देश के निर्माण में मेरा भी सहभाग होना चाहिए, ऐसा उन्हें नहीं लगता था।

ऐसा सहभाग निर्माण करने योग्य परिस्थिति समाज में नहीं थी। डॉ. बाबासाहेब का सार्वजनिक जीवन में उदय होने से पूर्व साधारणत: ऐसी परिस्थिति थी। सामाजिक दासता में जीने वाले मनुष्य को सैकड़ों सालों की सामाजिक दासता की बेडि़यां तोड़ने हेतु प्रेरित करना, उसे संघर्ष के लिए खड़ा करना, यह साधारण बात नहीं है। बाबासाहेब की यह सबसे बड़ी राष्ट्रसेवा है। बाबसाहेब ने जो किया उसे संक्षेप में इस प्रकार बताया जा सकता है-
उन्होंने निचले तबके के मनुष्य को सोचने के लिए प्रवृत्त किया, विद्रोही बनाया।

आत्मसम्मान की ज्योति जगाई। इज्जत रक्षा की प्रेरणा जगाई और मूल्यों के लिए जीना-मरना सिखाया।
1920 से पहले राष्ट्रजीवन में यह बात कहीं भी नहीं थी कि समाज के निचले तबके और जाति-व्यवस्था के अंतिम पायदान पर खड़े मनुष्य को राष्ट्रनिर्माण में सहभागी बनाना चाहिए। ऐसा कोई नहीं चाहता था। करीब सौ साल बाद 2015 में समाज में मूलगामी परिवर्तन आया। आज वंचित समाज का व्यक्ति राष्ट्रपति, राज्यपाल, मंत्री बन सकता है। विश्वविद्यालय का कुलपति बन सकता है। उद्योग क्षेत्र में उद्योजक बन सम्मानूपर्वक खड़ा हो सकता है। साहित्य, संगीत, कला, सिनेमा, नाट्य, आर्थिक संस्था, विदेश में राजदूत आदि क्षेत्रों में निचले तबके के व्यक्ति पहुंच हुई है। राष्ट्रनिर्माण के संदर्भ में इसका क्या महत्व है? क्या यह कोई विशिष्ट जाति की उन्नति का ही प्रश्न है अथवा राष्ट्रीय समस्या है? राष्ट्र से वंचित करोड़ों लोगों को डॉ. बाबासाहेब ने राष्ट्रजीवन में सहभागी बनाने की व्यवस्था बनाकर जो राष्ट्रसेवा की है, उसका कोई मोल नहीं है।

उस समय देश राजनीतिक दासता में जकड़ा हुआ था। विदेशी शासन समाप्त कर स्वदेशी शासन लाने हेतु स्वतंत्रता आंदोलन चल रहा था। लेकिन विदेशी अंग्रेजों की राजनीतिक दासता की ही तरह हमारे हिंदू समाज की सारी अस्पृश्य मानी जाने वालीं जातियां, घुमन्तु-विमुक्त, वनवासी और अन्य पिछड़ा वर्ग सामाजिक दासता में जी रहे थे। इस सारे वंचित वर्ग को सामाजिक दासता से मुक्ति दिलाने का आंदोलन डॉ. बाबासाहेब ने छेड़ा था।

'ॲनाहिलेशन ऑफ कास्ट' (जातिनिर्मूलन)-में उन्होंने जो कहा है उसका सार इस प्रकार है-
  हिंदू समाज की रचना क्रमित विषमता पर आधारित है।  जाति जन्म से निश्चित होती है और उसे कोई नहीं बदल सकता है।  जाति के कारण श्रम विभाजन ही नहीं बल्कि श्रमिकों का विभाजन भी हो गया है।  जाति रचना का आर्थिक आयाम है। अत्यंत कनिष्ठ और हेय व्यवसाय निचले तबके के जिम्मे सौंप दिए गए थे।

 व्यवसाय चयन की स्वतंत्रता नहीं थी।
 इन सारी चीजों के लिए धार्मिक मान्यता का अधिष्ठान खड़ा किया गया था।  वर्णव्यवस्था ईश्वरनिर्मित है और इसीलिए अपरिवर्तनीय है, ऐसा माना गया था। बाबसाहेब का दो टूक शब्दों में यह सवाल था कि कांग्रेस राजनीतिक स्वतंत्रता की मांग उठाती है, यह ठीक है लेकिन हमारी स्वतंत्रता का क्या? जो अधिकार आम हिन्दुओं को हैं, वे सारे नागरिक अधिकार क्या हमें मिलेंगे? बाबासाहेब कांग्रेस को हिंदू कांग्रेस मानते थे जिसके नेता महात्मा गांधी थे। महात्मा गांधी सनातनी हिंदू थे। चातुर्वर्ण्य, जातिप्रथा, जातिनिष्ठ व्यवसाय उनको मान्य थे। इसका मतलब यह नहीं कि महात्मा गांधी को अस्पृश्यता मान्य थी।अस्पृश्यता के विरोध में उन्होंने बहुत बड़ा संघर्ष किया। आंबेडकर इतने से संतुष्ट नहीं थे। उनका आक्षेप सैद्धांतिक भूमिका के बारे में था।

सिद्धांतत: चातुर्वर्ण्य को मान्यता देकर, जातिव्यवस्था को मान्यता देकर और जातिनिष्ठ व्यवसाय का समर्थन करते हुए समताधिष्ठित समाज कैसे खड़ा हो पाएगा? यह बाबासाहेब का सीधा सवाल था।बाबासाहेब ने अपने जीवन में कई बारसामाजिक दासता का कटु अनुभव किया था। उनके जैसी ऊंची पढ़ाई पढ़ने वालेव्यक्ति की ऐसी दशा थी तो देहातों में बिखरे, धन, ज्ञान, सामाजिक दर्जे से दुर्बल मनुष्य की दशा कैसी रही होगी? उनकी गुलामी की वेदना कैसी होगी और उसका निराकरण कौन करेगा? महात्मा गांधी से बाबासाहेब ने कहा था, ''गांधीजी,मेरे पास तो मातृभूमि ही नहीं है!'' इन शब्दों से सदियों से चलती आई गुलामी की कहानी और वेदना जाहिर होती है।
बाबासाहेब के सामाजिक स्वतंत्रता संघर्ष का महत्व जानने के लिए थोड़ा विश्व इतिहास देखना आवश्यक है। अमेरिका में 1860 में 40 लाख गुलाम थे। उनको मुक्ति दिलाने हेतु अमेरिका में दक्षिण बनाम उत्तर का गृहयुद्ध छिड़ा था। अमेरिकी भूमि पर लड़ा गया वह सबसे भयानक संघर्ष था। उस युद्ध में 6.20 लाख अमेरिकी सैनिक मारे गए। उतने ही घायल हुए होंगे। युद्ध में आहत होने वाले नागरिकों की संख्या थी 13 लाख। फ्रांस में राज्यक्रांति हुई। इस विद्रोह का उद्देश्य राजनीतिक गुलामी से मुक्ति पाना था। फ्रांस हमारे देश के किसी राज्य से भी छोटा होगा, लेकिन इसमें 1793 से 1794 के बीच 40,000 लोग मारे गए। स्वतंत्रता, समता और बंधुत्व के लिए  इतना प्रचंड मूल्य चुकाना पड़ा था।

डॉ. बाबासाहेब ने सशक्त युक्तिवाद से यह दिखाया कि भारत में रही गुलामी उन दोनों देशों में रही गुलामियों से बहुत बदतर थी। ''गुलाम को गुलामी की अनुभूति करा दो, वह विद्रोह कर उठेगा'' यह वचन प्रसिद्ध है। बाबासाहेब ने गुलामों को गुलामी की अनुभूति दिलाई और संघर्ष के लिए खड़ा किया। कैसा चमत्कार! उन्होंने कोई हिंसक संघर्ष नहीं किया। महाड में मार्च 1927 में सत्याग्रहियों के भोजन मंडप पर सवर्ण समाज ने हिंसक हमला किया। सत्याग्रही इस हमले का प्रतिकार कर सकते थे। उनमें से कई लोग पूर्व सैनिक थे। एक मनुष्य दस पर भारी था। मगर उन्होंने प्रतिकार नहीं किया, क्योंकि बाबासाहेब का वैसा ही आदेश था।

बाबासाहेब ने इस देश में ऐसी अहिंसक सामाजिक क्रांति कर दिखाई। बाबासाहेब के इस सामाजिक संघर्ष में खून अवश्य बहा, मगर कोई जानलेवा हिंसा नहीं हो पाई। हम महात्मा गांधी को अहिंसक राजनीतिक संघर्ष का श्रेय देते हैं। मगर वे भी सत्याग्रह में हिंसा नहीं रोक पाए थे। बाबासाहेब के सामाजिक स्वतंत्रता आंदोलन की एक और विशेषता पर गौर करना चाहिए। महाड में सत्याग्रहियों पर लाठियां बरसाने वाले सवर्ण हिंदू थे और सत्याग्रह में सहभागी होने वाले चित्रे, सहस्रबुद्धे, टिपणिस भी सवर्ण ही थे। पर्वति, कालाराम और अमरावती सत्याग्रह में ब्राह्मण भी सहभागी हुए थे।

छात्र जीवन में बाबासाहेब को प्यार से अपने डिब्बे से भोजन खिलाने वाले पेंडसे गुरुजी भी सवर्ण ही थे। हिंसा अपनी प्रवृत्ति नहीं है। दूसरी विशेषता यह है कि जो महापुरुष दिलोजान से, माता की सी ममता से, पिता के से अनुशासन से और गुरु के से ज्ञान से समाज के लिए प्रयास करता है, उसी को कालांतर में समाज स्वीकार करता है। बाबासाहेब को स्वीकार करने की प्रक्रिया उनके जीवनकाल में ही आरंभ हो चुकी थी। उनको मुंबई विधानसभा से संविधान सभा में भेजने का आदेश देने वाला पत्र सरदार पटेल ने ही लिखा था। प्रारूप समिति में उनको लेकर संविधान लिखने का काम उनको सौंपना चाहिए, यह महात्मा गांधी ने ही सुझाया था। संविधान सभा में हिंदू सदस्य ज्यादा संख्या में थे और उन्होंने बाबासाहेब का अधिकार माना था। इन बातों को देखें तो बाबासाहेब की सामाजिक क्रांति की व्यापकता साफ हो जाती है।

उनके जीवन के स्वाभाविक रूप से जो चार कालखंड बनते हैं, उसका भी उल्लेख करना आवश्यक है। उनके जीवन का प्रथम कालखंड सामान्यत: 1920 से 1935 तक माना जाता है। इस कालखंड की प्रमुख घटनाएं हैं-महाड, कालाराम मंदिर, पर्वति सत्याग्रह, गोलमेज परिषद, साइमन कमीशन के आगे निवेदन और पुणे पैक्ट। इस कालखंड में बाबासाहेब की वैचारिक भूमिका—अस्पृश्यता की समाप्ति, हिंदू समाज में जातिनिर्मूलन और
स्वतंत्रता, समता और बंधुता—इन तत्वत्रयी पर समाज की पुनर्रचना की रही है।

महाड चवदार तालाब सत्याग्रह के समय उन्होंने जो घोषणापत्र प्रकाशित किया था, उसका शीर्षक था-'हिन्दूमात्र के जन्मसिद्ध अधिकारों का घोषणापत्र'।
गोलमेज परिषद के समय के उनके घोषणापत्र का भी बहुत सा हिस्सा संविधान में है। साइमन कमीशन के सामने गवाही देते समय उन्होंने कुछ बातें कहीं थीं, जैसे 'हम हिंदू समाज का अंग नहीं हैं, हमें आप प्रोटेस्टेंट हिंदू अथवा नॉन कॉन्फार्मिस्ट हिंदू कहिए'। उनके इस कथन को हमें ठीक से समझना चाहिए।

उनके जीवन का दूसरा कालखंड 1935 से 1947 तक का था। 1935 में उन्होंने येवला में घोषणा की थी, 'मैं हिंदू के रूप में जन्मा अवश्य हूं लेकिन हिंदू के रूप में मरूंगा नहीं।' इसी कालखंड में उन्होंने इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी की स्थापना की। 1942 में उसे बर्खास्त करके शेड्युल्ड कास्ट फेडरेशन की स्थापना की। कारण था कि भारत की आजादी निकट आ रही थी। क्रिप्स कमीशन भारत से लौट गया था। संविधान सभा निर्माण की प्रक्रिया आरंभ हो गई थी। मुसलमानों को पाकिस्तान और हिंदुओं को खंडित भारत मिलने वाला था। बनने वाला हिन्दुस्थान एक मायने में हिंदू राज्य ही होना था यानी बहुसंख्यक हिंदुओं का राज्य। लेकिन ध्यान रहे, बाबासाहेब वैसा नहीं मानते थे।

देश की राजनीतिक परिस्थिति में तेजी से आते बदलाव को ध्यान में रखकर ही बाबासाहेब ने शेड्यूल कास्ट फेडरेशन की स्थापना की। केवल अनुसूचित जातियों का दल बाबासाहेब को इसीलिए स्थापित करना पड़ा क्योंकि उस दल के बिना इस वर्ग का स्वतंत्र प्रतिनिधित्व नहीं हो पाता। नागपुर में ऑल इंडिया डिप्रेस्ड क्लासेस की परिषद हुई। इसमें 70,000 प्रतिनिधि आए। तीन प्रस्ताव पारित हुए। बाबासाहेब का मानना था, मुसलमानों की तरह अनुसूचित जातियों को भी अल्पसंख्यक मानकर उनको अलग और संरक्षित राजनीतिक अधिकार मिलने चाहिए। उनके जीवन का तीसरा कालखंड संविधान निर्माण का कालखंड था। चौथा कालखंड 1949 से 1956 का है।

 राष्ट्र का विचार अर्थात् जन का विचार, भूमि का विचार, संस्कृति का विचार है। इस संदर्भ में डॉ. बाबासाहेब का
योगदान क्या है? जन का विचार करते समय बाबासाहेब ने 'शूद्र पहले कौन थे?'

नामक पुुस्तक में आर्य आक्रमण सिद्धांत को अस्वीकृत किया है। बाबासाहेब लिखते हैं, ''ऋग्वेद में अर्य और आर्य, ऐसे दो शब्द आते हैं। अर्य शब्द 88 स्थानों पर आया है, इसका अर्थ है-1. शत्रु, 2. माननीय पुरुष, 3. देश का नाम, 4. मालिक। आर्य शब्द 31 स्थानों पर आया है, परंतु जाति के अर्थ में नहीं। अत: आर्य शब्द से मानव की जाति विशेष निश्चित नहीं होती।'' लोकमान्य तिलक का सिद्धांत भी उन्होंने अस्वीकृत किया है। उन्होंने लिखा है, ''अश्व वैदिक आर्यों का पसंदीदा जानवर है... लेकिन क्या आर्टिक प्रदेश में अश्व थे? इस प्रश्न का उत्तर अगर ना में आता है तो  तिलक का यह सिद्धांत कि आर्यों का मूलस्थान आर्टिक प्रदेश में था, पंगु बन जाता है।' बाबासाहेब ने
बताया है, ''वैदिक आर्यों का मूलस्थान हिन्दुस्थान में ही होगा, इस बात के सबूत वैदिक साहित्य में ही प्राप्त होते हैं।'' डॉ. बाबासाहेब का यह प्रतिपादन भारतीय राष्ट्रवाद के संदर्भ में अत्यंत मौलिक है।
जाति के बारे में बाबासाहेब के विचार ठीक से समझ लेना आवश्यक है। यह मत उन्होंने 'कास्ट इन इंडिया' नामक प्रबंध में भी प्रस्तुत किया है। हिंदू समाज अनगिनत जातियों से बना है, यह बात सही है। यूरोपीय इतिहासकार, समाजशास्त्री इन जातियों को विभिन्न वंश बताते हैं, लेकिन यह सत्य नहीं है, ऐसा बाबसाहेब का
मत था। बाबासाहेब स्पष्ट कहते हैं, ''हम सारे एक संस्कृति के सूत्र में बंधे हुए हैं।''  बाबासाहेब ने एक अलग संदर्भ में हिंदू संस्कृति की कड़ी आलोचना भी की है। नागपुर में दीक्षा भूमि पर बौद्ध धम्म स्वीकार करते समय उन्होंने कहा था, ''मैंने गांधीजी को वचन दिया था कि हिंदू धर्म छोड़ते समय और नए धर्म को स्वीकार करते समय मैं इस देश की संस्कृति को कम से कम आहत करने वाला मार्ग चुनूंगा। आज मैं उस वचन को निभा रहा हूं। इतिहास में मुझे विध्वंसक के नाते पहचाना जाए, ऐसी मेरी इच्छा नहीं है।''

सांस्कृतिक एकता कायम रखने का कार्य धर्म, समाज की मूल्य व्यवस्था, जीवनशैली और भाषा करती है। डॉ. बाबासाहेब अधर्मी नहीं थे, निधर्मी नहीं थे और नास्तिक भी नहीं थे। ईश्वर कोई है, यह बात वे नहीं मानते थे। लेकिन विश्व का संचालन करने वाली और उसे नियमबद्ध करने वाली एक शक्ति है, इस पर उनका विश्वास था।
दीक्षा भूमि पर दिए भाषण में उन्होंने कहा था, ''धर्म की मनुष्य को रोटी जितनी ही आवश्यकता है क्योंकि धर्म मनुष्य को आशावादी बनाता है। धर्म का काम ईश्वर और मनुष्य के बीच का संबंध निश्चित करना नहीं बल्कि मनुष्य और मनुष्य के बीच का संबंध निश्चित करना है।'' रिलिजन व्यक्तिगत होता है और धम्म सामाजिक। अगर एक ही व्यक्ति है तो उसे धम्म की कोई आवश्यकता नहीं है।

लेकिन जब दो व्यक्ति साथ में आते हैं तब धम्म का कार्य आरंभ हो जाता है।धम्म का कार्य मनुष्यों के बीच के व्यवहार के नियम निश्चित करना है। वह धम्म कैसा होना चाहिए, इसका विस्तृत विवेचन 'भगवान गौतम बुद्ध और उनका धम्म'शीर्षक पुस्तक में किया               गया है।
धम्म अथवा धर्म के बिना भारतीय राष्ट्रवाद पूरा नहीं हो सकता। उसके अर्थ के बारे में विद्वानों में बहुत मतभिन्नता है। मनुष्य को नीतिमान, चारित्र्यसंपन्न बनाने का काम धम्म ही कर सकता है। इसीलिए बाबासाहेब जैसे संविधान के शिल्पकार हैं वैसे ही वे भारतीय परंपरा के महान धर्मपुरुष हैं। बाबासाहेब ने बौद्ध धर्म स्वीकार किया। गौतम बुद्ध का मत भारतीय चिंतन परंपरा का मत है। भगवान बुद्ध ने समाज को सुरक्षित रखने वाले नागरिक कानून नहीं बदले, विवाह कानून नहीं बदले और संपत्ति की विरासत के कानून नहीं बदले। उन्होंने अपने अनुयायियों के लिए अलग कानून संहिता लागू नहीं की थी।

हिंदू कोड बिल का विषय जब चल रहा था तब 'केवल हिंदुओं के लिए नागरिक संहिता क्यों? भारत में मुस्लिम, ईसाई, यहूदी और पारसी भी रहते हैं। फिर सभी के लिए समान नागरिक संहिता क्यों नहीं चाहिए?', ऐसा सवाल खड़ा हुआ था। भारतीय संविधान सभी नागरिकों को मूलभूत अधिकार देता है। इन मूलभूत अधिकारों और विभिन्न नागरिक कानूनों के बीच संघर्ष की डॉ. बाबासाहेब को पूरी कल्पना थी। मुस्लिम पर्सनल लॉ बाबासाहेब को मंजूर नहीं था, वे तो समान नागरिक कानून के पक्षधर थे। उनका स्पष्ट मत था कि सेक्युलर राज्य में व्यक्ति के जीवन पर सब प्रकार का नियंत्रण रखने का अधिकार रिलिजन को नहीं दिया जा सकता। पर्सनल लॉ मज़हब पर आधारित नहीं होना चाहिए।

बाबासाहब ने जन की संस्कृति की ही तरह इस भूमि का भी विचार किया है। 'एनिशिएंट इंडियन कॉमर्स' लेख में भारत का वर्णन उनके ही शब्दों में इस प्रकार है- ''भारतभूमि समृद्ध भूमि थी। इसीलिए वह अनेक आक्रांताओं के हमलों की शिकार बन गई।'' प्राकृतिक संसाधनों के बारे में बाबासाहेब का स्वतंत्र दृष्टिकोण था। खेती का राष्ट्रीयकरण होना चाहिए। उस पर निजी अधिकार समाप्त करने चाहिए। खेती की उत्पादकता उसके आकार पर नहीं बल्कि उर्वरक, मानव संसाधन, जन आदि पर निर्भर करती है। खेती पर निर्भर अतिरिक्त संख्या को कम करने हेतु भारत का तेजी से उद्योगीकरण करना आवश्यक है। अतिरिक्त मानव संसाधन उद्योग में लगाना चाहिए, ऐसा उनका मानना था।
डॉ. आंबेडकर वायसराय के कार्यकारी मंडल में 1942 से 1946 तक श्रम मंत्री थे। जलसंपदा विभाग का कार्यभार भी उन पर था। बाबासाहेब जब केंद्रीय मंत्री बने तब उनके कार्यकाल में दामोदर नदी पर हीराकुंड  बांध परियोजना शुरू हुई थी। उनका कहना था, पानी का अभाव दूर करना है तो उसे जमा करना चाहिए। सबसे पहले बाबासाहेब ने ही 'नदी जोड़' विषय रखा था। आज हम नदी जोड़ परियोजना पर बहस करते हैं लेकिन इस बात को भूल जाते हैं कि यह अवधारणा बाबासाहेब ने 1944 में ही रखी थी। जन, भूमि, संस्कृति ये राष्ट्र के तीन घटकहोते हैं मगर इस देश में रहने वाला बहुसंख्य हिंदू राष्ट्र बन सकता है?

इसलिए बाबासाहेब का मत अत्यंत सटीक है। उनके शब्दों में यह है: ''किसी को भी हिंदुत्व के बारे में अनुभूति नहीं है। हिंदू को एकता के बारे में जो कुछ अनुभूति है वह उसकी खुद की जाति को लेकर ही है। हिंदू एक समाज अथवा एक राष्ट्र नहीं है, ऐसा इसी कारण कहा जाता है। कुछ लोगों का कहना है कि ऊपरी भिन्नता के नीचे हिंदू समाज में मूलभूत एकता दिखाई देती है। हिंदू समाज के लोगों की आदतें, रूढि़यां, आस्था, विचार सारे भारत में एक जैसी पाई जाती हैं। यह बात सही है; मगर इससे हिंदू एक राष्ट्र है, यह निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता है।'' वे कहते हैं, ''सर्वसाधारण स्वामित्व की कुछ चीजें किसी समाज में होंगी तो ही वह समाज एक राष्ट्र बनता है....परस्पर संबंध, व्यवहार के बिना राष्ट्र का राष्ट्रीयत्व नहीं टिक पाएगा। हर मनुष्य का किसी भी कार्य में सभी के बराबर सहभाग लेना आवश्यक है। यह भावना ही मनुष्य को एक राष्ट्रीयत्व में बांधकर रखने का कारण बनती है। जातिसंस्था व्यक्ति को एक राष्ट्र बनने से वंचित करती है।''
25 नवम्बर, 1949 को संविधान सभा के आखिरी भाषण में उन्होंने कहा, ''जातियां राष्ट्र विघातक हैं। जल्दी हमें उनसे मुक्त होना चाहिए।'' एक अन्य भाषण में उन्होंने कहा, ''मेरे विचार में जाति-रहित संघ बनकर हिंदू समाज आत्मरक्षा हेतु अधिक शक्तिशाली बन जाता है तो ही उससे कुछ आशा कर सकते हैं। अन्यथा हिन्दुओं का स्वराज गुलामी के गर्त में उतरने का एक पायदान सिद्ध होगा।''

एक राष्ट्र की भावना कैसी निर्मित हो पाएगी, यह डॉ. बाबासाहेब के चिंतन का अत्यंत महत्वपूर्ण पहलू था। बाबासाहेब के शब्दों में बताएं तो, इससे 'सह अस्तित्व की भावना' निर्मित नहीं होती है। एक तरफ सांस्कृतिक एकता है। भौगोलिक अखंडता है। इसके साथ ही यहां लोगों को एक-दूसरे से विभक्त करने वाले वंश और पंथ हैं। जन, भूमि और संस्कृति, ये तीन घटक राष्ट्रवाद की जगमान्य त्रिमिति हैं। मगर उनसे ही राष्ट्र नहीं बनता है। यह बाबासाहेब ने अलग तरीके से समझाया है। चौथी मिति है सर्वत्र बंधुभाव। हम सब एक ही परमात्मा की संतान हैं अथवा एक ही आत्मतत्व हम सबमें विद्यमान है, इस तरह का भाव।

बाबासाहब लोकतंत्रवादी थे। उनकी लोकतंत्र की अवधारणा तीन तत्वों पर आधारित थी-स्वतंत्रता, समता और बंधुता। नेहरू ने संविधान सभा में जो प्रस्ताव रखा था उसमें स्वतंत्रता, समता और सामाजिक न्याय का उल्लेख था मगर बंधुभावना का उल्लेख नहीं था।
बाबासाहेब पाश्चात्य विद्वानों द्वारा दी गई लोकतंत्र की किसी भी परिभाषा को प्रमाण नहीं मानते। उनका कहना है कि वे भारतीय समाज जीवन पर लागू नहीं होती हैं। पाश्चात्य विचारक लोकतंत्र का विचार एक राजनीतिक रचना के संदर्भ में करते हैं। बाबासाहेब को लोकतंत्र की यह राजनीतिक परिभाषा मंजूर नहीं थी। उनकी परिभाषा है, ''लोगों के सामाजिक और आर्थिक जीवन में रक्तहीन मार्ग से मूलगामी परिवर्तन लाने वाली व्यवस्था ही लोकतंत्र है।'' लोकतांत्रिक राज्यव्यवस्था को सामाजिक और आर्थिक विषमता दूर करनी चाहिए। वे आदर्श समाज की अवधारणा प्रस्तुत करते हैं। ऐसा समाज जहां जातिभेद न हों, हरेक व्यक्ति को अपना सुख खोजने का अधिकार हो, विचार की स्वतंत्रता हो, सार्वजनिक जीवन में सभी का समान सहभाग हो और परस्पर मैत्री भावना से समाज घटक परस्पर जुड़े हुए हों। बाबासाहब सभी के प्रतिनिधित्व और सभी की सहभागिता का उपाय सुझाते हैं, जिसे हमारे यहां आरक्षण कहा गया है।
इस विषय को लेकर अत्यंत गलत तरीके से बहस चलती है। सभी की सहभागिता के लिए राजनीतिक आरक्षण और प्रशासकीय आरक्षण अत्यंत आवश्यक है। उसके बिना सर्वसमावेशी लोकतंत्र निर्मित नहीं हो पाएगा और क्योंकि हम राष्ट्रीयता के संदर्भ में बाबासाहेब का विचार कर रहे हैं, इसीलिए इसके बिना एक राष्ट्रीयत्व की भावना भी निर्माण नहीं हो सकती है। बाबासाहेब के सामने समस्या थी कि संविधान में अनुसूचित जाति की आशाओं-आकांक्षाओं और अधिकारों की सुरक्षा किस तरह होनी चाहिए, इसलिए उनका संविधान सभा में रहना आवश्यक
था। उनका कहना था कि अनुसूचित जाति और जनजातियों की समस्या संवैधानिक तरीके से सुलझाई जाए। भारत जब आजाद हो रहा था तब 565 रजवाड़ों को भारत में शामिल करने का अत्यंत कठिन कार्य सरदार पटेल ने कर दिखाया। यह एक राज्य-एक राष्ट्र की अवधारणा थी। कठिन कार्य था भारत को 'नेशन-स्टेट' अर्थात् 'राष्ट्र-राज्य' के रूप में खड़ा करना। बाबासाहेब ने मूर्त रूप में राष्ट्र-राज्य की अवधारणा रखी। बाबासाहेब हमारे सामने सामाजिक न्याय पर आधारित संविधानमूलक लोकतांत्रिक राष्ट्रवाद की संकल्पना रखते हैं।

राष्ट्रनिर्माण में डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर का यह योगदान अलौकिक है। (समरसता साहित्य परिषद, महाराष्ट्र द्वारा 30 और 31 जनवरी, 2016 को डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर साहित्य नगरी, कोलसेवाड़ी, कल्याण (पूर्व) में आयोजित सत्रहवें समरसता साहित्य सम्मेलन में श्री रमेश पतंगे द्वारा दिए गए अध्यक्षीय भाषण के हिंदी भावानुवाद का संपादित अंश)

मार्क्सवाद एक 'बंद व्यवस्था'




डॉ आंबेडकर ने अनेक अवसरों पर साम्यवादियों की सोच की खामियां गिनाई हैं। वे  कहते हैं कि साम्यवाद दो चीजों पर टिका है-हिंसा और मजदूर वर्ग की तानाशाही


डॉ. युवराज कुमार

आधुनिक भारत के चिंतक डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर ने साम्यवाद के प्रति अपना दृष्टिकोण अपने निबंध 'बुद्ध या कार्ल मार्क्स' में स्पष्ट किया है।1956 में काठमांडो (नेपाल) में आयोजित 'बौद्ध विश्व फेलोशिप' के चौथे सम्मेलन में उन्होंने यह निबंध प्रस्तुत किया। डॉ़ आंबेडकर कार्ल मार्क्स को आधुनिक समाजवाद या साम्यवाद का जनक मानते थे।

मार्क्स का मूल उद्देश्य यह सिद्ध करना था कि उनका साम्यवाद का सिद्धांत मात्र एक कपोल-कल्पना नहीं बल्कि वैज्ञानिक कसौटी पर सच्चा साबित होने वाला एक यथार्थवादी व्यावहारिक सिद्धांत है। भारतीय साम्यवादी परंपरा में मार्क्सवाद जिस प्रकार आया, उसने अपनी दृष्टि को संकुचित रखा। साम्यवादी और समाजवादी दलों के सदस्यों ने इस अज्ञानता का औचित्य भी रखा था, पर यह सब कुछ कांग्रेस में शामिल प्रगतिशील तथा वामपंथियों पर भी लागू होता था। शोषण तथा मुक्ति के एक विस्तृत परिप्रेक्ष्य में, वर्ग श्रेणियों ने भारतीय मार्क्सवादियों को विश्लेषण के लिए एक श्रेष्ठ साधन उपलब्ध करा दिया था।

लेकिन उस परिवेश में अन्य कारकों (दलितों, किसानों इत्यादि के संघर्षों) से प्रेरणा लेकर भी बंधना था, जो कि नहीं बंध पाए, क्योंकि 1930 के पश्चात भारत में तीन अखिल भारतीय दलित संगठन उभर चुके थे। आंबेडकर ने 1930 में 'डिप्रेस्ड क्लास एसोसिएशन', जो सबसे पहला दलित वर्ग संघ था, की स्थापना की थी, 1942 के बाद जिसे 'अनुसूचित जाति संघ'  कहा गया। 'डिप्रेस्ड क्लास लीग' की स्थापना जगजीवन राम ने की थी। इनमें से कोई भी संस्था सक्रिय रूप में अखिल भारतीय स्तर पर कार्य नहीं करती थी। बाद में अखिल भारतीय स्तर पर 'अनुसूचित जाति संघ' बना। अखिल भारतीय स्तर पर ये समितियां, संघ और लीग विभिन्न अखिल भारतीय प्रवृत्तियों का प्रतिनिधित्व करती थीं। पहली प्रवृत्ति का संबंध हिन्दू महासभा से, दूसरी का आंबेडकर के साथ और तीसरी का संबंध गांधीवादियों के साथ था। स्थानीय स्तर पर दलित संगठन इन संघों के साथ जुड़ सकते थे। गांधीवादी कांग्रेस के गठबंधन दो स्तरों पर कार्य करते थे, 'हरिजन सेवक संघ' जो हिंदू जाति संगठन था, और लीग जो कांग्रेस समर्थक दलितों को लामबंद करने का काम करती थी। पर साम्यवादियों तथा वामपंथियों ने दलितों मुद्दों पर अपने स्वयं के मोर्चे खोलने की आवश्यकता नहीं समझी। अगर साम्यवादियों ने कुछ पहल की होती तो पार्टी में गैर ब्राह्मणों और दलितों की अधिक भर्ती होती और इससे भारतीय मार्क्सवाद का नया रूपान्तरण होता (गेल ओमवेट, पृ.173-175)।

लेकिन, साम्यवादियों ने कहा कि राज्य पर कब्जा करो और भूमि का पुनर्वितरण करो। यदि ऐसा हुआ तो सारी समस्याएं सुलझ जाएंगी। 
व्यवहारत: साम्यवादियों ने मार्क्सवाद को एक 'बंद सिद्धांत' के रूप में देखा, विकासशील विज्ञान के रूप में नहीं। इसका परिणाम यह हुआ कि आंबेडकर जैसे नेता के साथ उनका कोई संवाद स्थापित नहीं हो सका। इसलिए जब आंबेडकर ने मार्क्सवाद पर प्रतिक्रिया दी तब उन्होंने मार्क्सवाद को 'बंद व्यवस्था' कहा। यह कई निर्णायक बिंदुओं के संदर्भ में मात्र उदासीनता नहीं थी, बल्कि यह दलित संघषार्ें के विरुद्ध की परिस्थिति थी। मार्क्सवाद से उन्होंने कई विषय लिए पर मार्क्सवाद को विश्लेषण के स्रोत अथवा किसी कार्यक्रम को संचालित करने के लिए स्रोत के रूप में स्वीकार नहीं किया। (गेल ओमवेट,  पृ. 176)।

सितंबर 1937 के प्रारंभ में आंबेडकर ने अपने स्वतंत्र मजदूर दल का प्रचार करने के दौरान दलित वर्ग द्वारा मैसूर में आयोजित जिला परिषद के अध्यक्ष पद से भाषण देते हुए कहा, ''मेरा यह ठोस मत बना है कि गांधी जी के हाथों मजदूर और दलित वर्ग का हित नहीं होगा।'' कम्युनिस्टों द्वारा चलाए गए मजदूर आंदोलन के बारे में उन्होंने कहा, ''मेरा कम्युनिस्टों से संबंध रखना बिल्कुल संभव नहीं है।

मैं कम्युनिस्टों का कट्टर दुश्मन हूं।'' आंबेडकर का यह ठोस मत था कि कम्युनिस्ट अपनी राजनीतिक ध्येय सिद्धि के लिए मजदूरों का शोषण करते हैं। (धनंजय कीर: पृ.282)'' आंबेडकर के अनुसार,''साम्यवादी व्यवस्था शक्ति पर आधारित होती है। यदि रूस में अधिनायकवाद विफल हो जाए तब वहां की स्थिति क्या होगी? जैसा कि मैं सोचता हूं, राज्य की संपत्ति को हड़पने के लिए वहां रूसी लोगों में परस्पर रक्तिम लड़ाई होगी, क्योंकि उन्होंने साम्यवादी व्यवस्था को स्वेच्छा से स्वीकार नहीं किया है। वे उसकी अनुपालना इस भय के कारण कर रहे है कि कही उन्हें फांसी पर न लटका दिया जाए। ऐसी किसी व्यवस्था की जड़ें जम नहीं पातीं और इसलिए मेरे निर्णयानुसार, जब तक साम्यवादी इन प्रश्नों के उत्तर देने में सक्षम नहीं होते, उनकी व्यवस्था का क्या होगा?'' (बी़ आऱ आंबेडकर: 'बुद्धिज्म एण्ड कम्युनिज्म', इंटरनेशनल बुद्धिस्ट कांफ्रेंस, काठमांडो (नेपाल) में दिया गया व्याख्यान, दिनांक 20 नवम्बर, 1956 (डॉ़ आंबेडकर और मार्क्सवाद)।

आंबेडकर के अनुसार साम्यवाद को स्थापित करने के दो मार्ग हैं— हिंसा और श्रमिक वर्ग की तानाशाही। हिंसा द्वारा विद्यमान ढांचा नष्ट किया जा सकता है तथा श्रमिक वर्ग की तानाशाही द्वारा नया शासन अर्थात् साम्यवादी सरकार चलाई जा सकती है। इसका अर्थ यह है कि साम्यवाद पुनर्रचना की अपेक्षा हिंसा का ही अधिक समर्थन करता है। पूंजीपतियों के विरोध पर विजय पाकर श्रमिक वर्ग के आधिपत्य को स्थापित करने के लिए साम्यवाद हिंसात्मक मार्ग को अपनाता है। मानव जीवन का इसमें कोई मूल्य नहीं है।

बुद्ध हिंसा के विरुद्ध थे,  परंतु वे न्याय के पक्ष में भी थे और जहां पर न्याय के लिए बल प्रयोग अपेक्षित होता है, वहां उन्होंने बल प्रयोग करने की अनुमति दी है। बुद्ध एक लोकतंत्रवादी के रूप में पैदा हुए थे और लोकतंत्रवादी के रूप में ही मरे। वे अनिष्टकर साध्य को नष्ट करने की प्रक्रिया में यथासंभव अधिक से अधिक साध्यों की रक्षा कर सके।
बल-प्रयोग को हटाने के बाद जो चीज इसे कायम रख सकती है, वह केवल धर्म ही है, परंतु साम्यवादियों की दृष्टि में धर्म अभिशाप है। धर्म के प्रति उनमें घृणा इतनी गहरी पैठी है कि वे साम्यवादियों के लिए सहायक पंथों तथा जो उनके लिए सहायक नहीं हैं, उन के बीच भी भेद नहीं करेंगे। (संपूर्ण वाड्मय, खंड 7,  भाग 11) आंबेडकर ने
'बुद्धा या कार्ल मार्क्स' पुस्तक में कार्ल मार्क्स की विचारधारा की तीखी आलोचना की है और समाज में स्थायी शान्ति के लिए बौद्ध धर्म को आवश्यक बताया है। आंबेडकर ने दोनों विचारधाराओं की तुलना करते हुए कहा :-
मार्क्सवाद निश्चित रूप से भौतिक दर्शन है। उसमें मन अथवा चित्त को भौतिक तत्वों से उत्पन्न बताया है, परन्तु बौद्ध-दर्शन में 'भूत' से 'चित्त' की उत्पत्ति अथवा 'रूप' से 'नाम' की उत्पत्ति होने का संकेत नहीं है।''
बौद्ध धर्म पुनर्जन्मवादी है जबकि मार्क्सवाद पुनरुत्पत्ति को नहीं मानता।
मार्क्सवाद परिवर्तन लाने के लिए हिंसा और शस्त्रबल पर विश्वास करता है परन्तु बौद्ध धर्म इस संदर्भ में पूर्ण अहिंसक है।

मार्क्सवाद ने धर्म को 'अफीम' मानकर उसका तिरस्कार किया है जबकि बौद्ध धर्म में धर्म को समाज के नैतिक विकास में प्रधान कारण माना गया है। वह समाज का नियामक है।

मार्क्सवाद मात्र आर्थिक समानता का धर्म है जबकि बौद्ध धर्म सामाजिक समानता का पोषक है।

 मार्क्सवाद में नैतिकता सर्वहारा वर्ग के हितों की रक्षा करती है।आंबेडकर केवल सर्वहारा के लिए नैतिकता नहीं बल्कि समाज में सभी के लिए समान नैतिकता पर विश्वास करते थे।
    बौद्ध धर्म में दु:ख की उत्पत्ति का कारण अज्ञान, तृष्णा, राग, द्वेष और मोह है, पर मार्क्सवाद में वह दु:ख
आध्यात्मिक नहीं बल्कि आर्थिक है। 
    बौद्ध धर्म की आध्यात्मिक समता मार्क्सवाद में दिखाई नहीं देती। बौद्ध आचार सहिंता में दान का महत्व है परन्तु मार्क्स विचारधारा दान के प्रत्यय के बिल्कुल विरुद्ध है।        
आंबेडकर को बुद्धिज्म एवं मार्क्सज्मि, दोनों का मौलिक ज्ञान था और उनका विवेक व्यावहारिक था, न कि भावनात्मक।
साम्यवादी स्वयं इस बात को स्वीकार करते हैं कि एक स्थायी तानाशाही के रूप में राज्य का उनका सिद्धांत उनके राजनीतिक दर्शन की कमजोरी है। वे इस तर्क का आश्रय लेते हैं कि राज्य अंतत: समाप्त हो जाएगा। दो ऐसे प्रश्न हैं, जिनका उन्हें उत्तर देना है। राज्य समाप्त कब होगा? जब वह समाप्त हो जाएगा, तो उसके स्थान पर कौन आएगा? प्रथम प्रश्न के उत्तर का कोई निश्चित समय नहीं बता सकते। लोकतंत्र को सुरक्षित रखने के लिए भी तानाशाही अल्पावधि के लिए अच्छी हो सकती है और उसका स्वागत किया जा सकता है, लेकिन तानाशाही अपना काम पूरा कर चुकने के बाद लोकतंत्र के मार्ग में आने वाली सब बाधाओं तथा शिलाओं को हटाने के बाद स्वयं समाप्त क्यों नहीं हो जाती? साम्यवादियों ने इसका कोई उत्तर नहीं दिया है। जब राज्य समाप्त हो जाएगा तो उसके स्थान पर क्या आएगा, इस प्रश्न का उन्होंने किसी भी प्रकार कोई संतोषजनक उत्तर नहीं दिया। क्या इसके बाद अराजकता आएगी? यदि ऐसा होगा तो साम्यवादी राज्य का निर्माण एक निरर्थक प्रयास है। यदि इसे बल प्रयोग के अलावा बनाए नहीं रखा जा सकता और जब उसे एक साथ बनाए रखने के लिए बल प्रयोग नहीं किया जाता और यदि इसका परिणाम अराजकता है, तो फिर साम्यवादी राज्य से क्या लाभ है।

साभार :: पाञ्चजन्य

सोमवार, 11 अप्रैल 2016

स्वतंत्रता और समता एक साथ तभी आ सकती है, जब उसके साथ बंधुता हो – डॉ. मोहन भागवत जी

स्वतंत्रता और समता एक साथ तभी आ सकती है, जब उसके साथ बंधुता हो – डॉ. मोहन भागवत जी

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कर्णावती, गुजरात (विसंकें). रविवार को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, कर्णावती महानगर द्वारा आयोजित वर्षप्रतिपदा उत्सव के अवसर पर अपने उद्बोधन में सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत जी ने कहा कि संघ में हम लोग उत्सवों का जो निर्वहन करते हैं, वो सारे उत्सव इस देश में सदियों से चलते आए उत्सव हैं. संघ जिन छह उत्सवों की पालना करता है, उनको उनके राष्ट्रीय आशय के साथ जोड़कर उनको संपन्न करता है. अपने राष्ट्रीय इतिहास कि किसी घटना विशेष को लेकर उस घटना विशेष की तिथि पर उस घटना विशेष पर जो भाव उत्पन्न हुए, उन  विचारों का  एकबार फिर से स्मरण करना और उसको अपने जीवन में उतारना, इसके लिए उत्सवों की प्रासंगिकता होती है. वर्षप्रतिपदा संकल्प का दिवस है. प्राचीनतम घटना के अनुसार वर्षप्रतिपदा सृष्टि का प्रारंभ है, रूपक के रूप में कथा बताई जाती है कि मिट्टी के सैनिकों में प्राण फूंक एक बालक ने  शकों के शक्तिशाली किन्तु भ्रष्ट शासन को उखाड फैंका. उस शालिवाहन सम्राट के विजय का प्रारंभ वर्षप्रतिपदा है. लेकिन हुआ यह था कि मिटटी के पलिंदे जैसा समाज पड़ा था, शालिवाहन ने उस समाज के मन में स्वाभिमान जगाया और उस समाज की संगठित शक्ति के आधार पर शकों को अपनी भूमि से खदेड़ दिया. विजय ध्वज फहराया.

संयोग से वर्षप्रतिपदा संघ के संस्थापक परमपूज्य डॉ. हेडगेवार जी का जन्म दिवस है. भारत के नवोत्थान का संकल्प जो नियति के रूप में आया, वही डॉ. साहब का रूप लेकर जन्मा. नवोत्थान का संकल्प किस लिए तो डॉ. आंबेडकर जी ने संविधान सभा में हमारा संविधान प्रस्तुत करते हुए कहा था कि हमारा देश किसी विदेशी शक्ति ने अपने बलबूते पर नहीं जीता, बल्कि अपने छोटे छोटे संकीर्ण स्वार्थो के कारण आपस में झगड़ते हुए हम लोगों ने अपने भेदों के कारण देश को गुलाम बनाने में परकियों की मदद की.  डॉ. आंबेडकर ने कहा कि हम सब एक हैं, लेकिन स्वतंत्रता और समता को लेकर तरह तरह के पंथों को लेकर अलग अलग शिविर बनाकर बैठे हैं. 

उन्होंने कहा कि स्वतंत्रता, समता और बंधुता मैंने इस मिटटी में उपजे बुद्ध के विचार को मैंने स्वीकार किया है. लेकिन स्वतंत्रता और समता एक साथ तभी आ सकती है, जब उसके साथ बंधुता हो बंधुभाव हो. उस बंधुभाव को ही धम्म कहा गया है. ऐसा डॉ. आंबेडकरजी ने कहा. यही धर्म है. उनको भी यह चिंता थी. उन्होंने कहा आपस के भेदों को भूलकर एक देश के नाते यदि हमने अपने जीवन को जीया नहीं तो मात्र यह संविधान आपकी रक्षा नहीं कर सकेगा.

6डॉ. हेडगेवार जी के मन में भी यही प्रश्न था. डॉ. हेडगेवार जी ने आजीवन ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए संपूर्ण जीवन राष्ट्र के लिए समर्पित किया और यह शिक्षा दी कि संपूर्ण समाज को गुण संपन्न, देश भक्त और संगठित करना है तथा भारत वर्ष को परम वैभव पर पहुंचाना है. देश के महापुरुषों से संपर्क के कारण उनके ध्यान में यह आया कि गुलामी का कारण हमारे अंदरूनी दोष हैं, उन दोषों को दूर कर इस देश के लिए जीने मरने वाला संगठित समाज खड़ा करना. इसके लिये उन्होंने एक पद्धति का निर्माण किया, जिसका नाम है – राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ. अपने इस संकल्प को पूर्णता की ओर जाता देखने के बाद ही उन्होंने मृत्यु का वरण किया.
वर्षप्रतिपदा पर हमारा संकल्प क्या हो, उसकी सिद्धि कैसे हो ? हमारे संकल्प के बारे तो किसी के मन में कोई शंका नहीं है. रोज शाखा में अपने संकल्प का सामूहिक उच्चारण हम सब लोग करते हैं. समाज की संगठित शक्ति के आधार पर नित्य विजय प्राप्त करते हुए भारतवर्ष का दुनिया को जो मूलभूत और महत्वपूर्ण अवदान है धर्म, उसकी सुरक्षा करते हुए हम लोग इस राष्ट्र को परम वैभव संपन्न बनाने के लिए समर्थ होना चाहते है. यह काम हमें करना है और इसके लिए सारे समाज को राष्ट्रभक्ति के सूत्र में आबद्ध करते हुए समाज के लिए देश के लिए संगठित गुण संपन्न बनाना है. सारी दुनिया में भारत माता की जय हो. संघ में एक ही जयकारा चलता है भारत माता की जय और कुछ नहीं.

5लेकिन संकल्प की सिद्धि तब होती है, जब संकल्प के पीछे आचरण होता है. प्रत्येक स्वयंसेवक को जैसा विश्व होना चाहिए, जैसा भारत का समाज होना चाहिए, वैसा बनना पड़ेगा. हमें अपने आचरण को समाज के सामने स्थापित करना है. संघ का प्रभाव बढ़ा है, लेकिन प्रभाव से भी ज्यादा लोगों में संघ का विश्वास बढ़ा है. हमारे आचरण में हमको राष्ट्रीयता का स्पष्ट परिचय देना होगा. अपने जीवन के उद्घोष में राष्ट्रीयता का बिल्कुल संकोच नहीं होना चाहिए.

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हमारी हिंदू संस्कृति का विचार संकुचित नहीं है, हम सर्व समाज को संगठित करना चाहते हैं. हमें तप, स्वाध्याय, शौर्य, धर्म के लक्षणों का पालन करते हुए और सभी को जोड़ते हुए विश्व कल्याण का विचार करना है. इस विचार का बल हमें भारत माता से मिलता है. संघ में स्वयंसेवक किसी स्वार्थ के लिए नहीं आता, यहां सिर्फ देना होता है और यहां आत्मीयता के द्वारा निर्बल को भी सबल बनाने की प्रेरणा देता है. हमारे व्यक्तिगत, पारिवारिक, सामाजिक और आजीविका इन चारों पहलुओं में सेवाभाव प्रकट होना चाहिए और यह सेवा भाव ऐसा है जो सेवा करते करते अन्य को भी सेवाभावी बना देता है. ऐसी सेवा करने वाले हम स्वयंसेवक हैं, ऐसा आत्मविश्वास के साथ कहते बनना चाहिए. हर परिस्थिति में हर जगह तब हम स्वयंसेवक है और हम संघ हैं. हमें अपने आचरण का उदहारण प्रस्तुत करना होगा. तभी विश्व में सभी कंठों से अपने आप जयकार फूटेगी “भारत माता की जय” यह हमको करना है, यह हमारा व्यक्तिगत, सामूहिक संकल्प है. विषम परिस्थिति में भी अपना धैर्य कायम रखते हुए कटुता मिटाते हुए आचरण करना है. संपूर्ण दुनिया को सुखी करने का संकल्प हमने लिया है. उसी ओर प्रयासरत रहना है, अनुकूलता इतनी है कि ऐसा हम आज करना प्रारंभ करेंगे तो निकट भविष्य में हम लोग ऐसे भारत वर्ष का उदय और उत्कर्ष होते हुए देख लेंगे. हम सबको उस ओर बढ़ने की सदबुद्धि आज अपने संकल्प के स्मरण के कारण हो इतनी प्रार्थना के साथ में अपने चार शब्द समाप्त करता हूँ.
साभार :: vskbharat.com

गुरुवार, 7 अप्रैल 2016

भारतीय नववर्ष 2073 का पहला कार्यक्रम - स्नेहमिलन सम्पन्न


भारतीय नववर्ष 2073 का पहला कार्यक्रम - स्नेहमिलनसम्पन्न

प्रान्त प्रचारक मान. चन्द्रशेखर  उध्बोधन देते हुए


जोधपुर, 06 अप्रेल। नववर्ष महोत्सव समिति के तत्वाधान में नववर्ष के आगमन पर समिति का प्रथम कार्यक्रम आज स्नेह मिलन व स्नेह भोज का आयोजन हुआ। समिति के सरंक्षक महापौर घनश्याम ओझा, राष्ट्रीय  स्वयंसेवक संघ जोधपुर प्रान्त के प्रान्त प्रचारक माननीय चन्द्रशेखर ,समिति के समन्वयक उपमहापौर देवेन्द्र सालेचा, समिति के अध्यक्ष नरेश  सुराणा एवं महासचिव निर्मल गहलोत ने भारतमाता के समक्ष दीप प्रज्ज्वलन कर नववर्ष स्नेह मिलन  कार्यक्रम का  शुभआरम्भ किया ।

राष्ट्रीय  स्वयंसेवक संघ जोधपुर प्रान्त के प्रान्त प्रचारक माननीय चन्द्रशेखर जी ने नववर्ष  की शुभकामनायें  देते हुए कहा कि वर्तमान परिस्थितियों को हमें आँखे मूंद कर नहीं देखना है, हमें इसका आकलन करना होगा और परिवर्तन के लिए धैर्य रखते हुए सकारात्मक प्रयास करना होगा।  

नववर्ष महोत्सव समिति के अध्यक्ष नरेश सुराणा ने बताया कि  कमला नेहरू नगर स्थित आदर्श  वाटिका में नववर्ष की पूर्व संध्या पर स्नेह मिलन व स्नेह भोज में सभी को तिलक लगाकर स्वागत किया गया। जिसमें शहर के गणमान्य नागरिक साहित्यकार, शिक्षाविद् एवं व्यवसायी आदि लोगों ने भाग लिया एवं भारतीय नववर्ष को परम्परागत तरीके से मनाने का संकल्प लिया। 
नृत्य का एक दृश्य

समिति की सचिव एवं प्रतियोगिता आयोजन प्रमुख श्रीमती प्रीति गोयल ने बताया कि स्नेह मिलन पर बालक-बालिका एवं महिलाओं के लिए आयोजन स्थल पर प्रतियोगिता का आयोजन किया गया जिसमें भारतीय संस्कृति, संस्कार, भारतीय महापुरूषों एवं नववर्ष से सम्बन्धित प्रष्नोत्तरी की प्रतियोगिता का आयोजन रखा गया। पहला वर्ग में बच्चों से पूछे गये तथा प्रत्येक प्रष्नों के उत्तर पर बच्चों को पुरस्कृत किया गया और दूसरा वर्ग में महिलाओं का वर्ग था उसमें भी प्रत्येक प्रष्न पर पुरस्कृत किया गया। इस प्रतियोगिता में आरती, हरप्रीत, तन्मय, प्रीति, सिद्धार्थ, अनिल, पुष्पा को पुरस्कार दिया गया। विजयी बालक - बालिकाओं को नववर्ष महोत्सव समिति के संरक्षक महापौर घनष्याम ओझा, समिति के समन्वयक उपमहापौर देवेन्द्र सालेचा, अध्यक्ष नरेश सुराणा, निर्मल गहलोत, जिला प्रमुख पूनाराम चैधरी, हेमन्त घोष, डाॅ. करणी सिंह खींची, डाॅ. सोहन चैधरी, महेन्द्र उपाध्याय, प्रवक्ता अनिल राखेचा ने पुरस्कार वितरण किये।
गेर नृत्य का दृश्य

समिति के महासचिव निर्मल गहलोत ने बताया कि जालोर के प्रसिद्ध कलाकार गैर नृत्य, भवाई नृत्य, कच्छी घोडी, मटकी नृत्य, भरत नाट्यम, एकल व सामूहिक नृत्य, भजन गायन, डांडिया नृत्य, मिमिक्री, जादूगर गोपाल की पोत्री बालिका विशखा जो कि कक्षा 7 वीं की विद्यार्थी है अपने जादू से सभी को आश्चर्यचकित व सभी का मन मोह लिया। 

समिति के कोषाध्यक्ष व स्नेह मिलन के संयोजक डाॅ. सोहन चौधरी ने बताया कि स्नेह मिलन में सांस्कृतिक प्रश्नोतरी व कार्यक्रम में बच्चों, महिलाओं ने अति उत्साह से भाग लिया पहले प्रश्नों के उतर देने की होड तथा अति उत्साह देखने का मिला तथा भजन संध्या में तो सभी  वनस मोर, वनस मोर का नारा लगा रहे थे। गैर में तो महिलाए  भी साथ नृत्य करने लगी।

समिति के संरक्षक रतनलाल डागा, घनश्याम ओझा, देवेन्द्र जोषी,  देवेन्द्र सालेचा, पूनाराम चौधरी, शैलाराम सारण, श्याम मनोहर, महेन्द्र दवे, नरेन्द्र कच्छवाह, गणेष बिजाणी, हेमन्त घोष, महेन्द्र मेघवाल, पूर्व महापौर संगीता सोलंकी, इन्द्रा राजपुरोहित, रतनलाल गुप्ता, पुष्पा जांगिड, हरिओम, डाॅ. करणीसिंह खींची, शिवकुमार सोनी, रामस्वरूप गोधा, पवन वैष्णव, बनाराम पंवार, सरदार जितेन्द्र सिंह, प्रतिपालसिंह वालेचा, नितेश शर्मा, हिम्मतसिंह रतनू, तथा जोधपुर के गणमान्य नागरिकों ने अपनी उपस्थिति दी तथा भारतीय नववर्ष 2073 का स्वागत बडे धूमधाम से मनाने का संकल्प लिया ।

नववर्ष पूर्व संध्या पर भव्य शुभकामना शोभायात्रा

समिति के महासचिव निर्मल गहलोत ने बताया नववर्ष की पूर्व संध्या पर नववर्ष शुभकामना शोभायात्रा निकाली जायेगी। जिसकी तैयारियों के लिए एक बैठक सरदारपुरा स्थित कार्यालय पर हुई जिसमें शोभायात्रा की तैयारियों को अन्तिम रूप दिया गया। शोभात्रा में जालोर की गैर, नवदुर्गा की झांकिया, महापुरूषों की झांकिया, इस्काॅन की भजन मण्डली, जयपुर की प्रसिद्ध जिया बैण्ड के 51 वादक द्वारा आकर्षक प्रस्तुतियां दी जायेगी। भारतीय नववर्ष से सम्बन्धित एवं भारतीय संस्कृति से सम्बन्धित 21 झांकियाँ कल सायं 4 बजे घन्टाघर से होते हुए नई सड़क चैराहा, सोजती गेट, रेलवे स्टेषन, जालोरी गेट, गोल बिल्डिंग, सरदारपुरा बी रोड, राणीजी का मन्दिर, सरदारपुरा सी रोड़, होते हुए जलजोग चैराहा जायेगी तथा जलजोग चैराहा में अखण्ड भारत पर 2073 दीप प्रज्ज्वलित कर संतो द्वारा उद्बोधन कर नववर्ष की शुभकामनायें दंेगे।

समिति के प्रवक्ता अनिल राखेचा ने बताया कि शोभायात्रा के मार्ग पर व्यापारिक संघो, गणमान्य नागरिकों एवं विभिन्न समाजों द्वारा स्वागत किया जायेगा। 
बैठक में समिति के अध्यक्ष नरेश सुराणा, संरक्षक घनष्याम ओझा, निर्मल गहलोत, महेन्द्र मेघवाल, डाॅ. करणी सिंह खींची, नथाराम रिणवा, प्रति गोयल, रतन (काका), संगीता सोलंकी, मीना सांखला आदि नववर्ष समिति के सदस्य उपस्थित थे। 

भारतीय सिन्धु सभा, राजस्थान की क्षेत्रीय कार्यसमिति की बैठक समपन्न

भारतीय सिन्धु सभा, राजस्थान की क्षेत्रीय कार्यसमिति की बैठक समपन्न 
राज्यभर में 150 सिन्धी बाल संस्कार शिविरों का आयोजन,
 20वीं सिन्धु दर्शन  यात्रा 23 जून से



28 मार्च - जननी जन्म भूमि स्वर्ग से महान है, ऐसी भावना कार्यकर्ता में होनी चाहिये । संगठन, सेवा संस्कार का भाव लेकर कार्यकर्ता क्षेत्र में कार्य करे। संघ का विचार है कि मन्दिर, शमशान  भूमि व जल के स्त्रोत सभी के लिए उपलब्ध हो और हम सामाजिक समरसता  से कार्य करते रहे। सिन्ध के गौरवमयी इतिहास पर गर्व करते हुये युवा पीढी को संस्कारों से जोडना कार्यकर्ता का दायित्व है। ऐसे आशीर्वचन  भारतीय सिन्धु सभा, राजस्थान की दो दिवसीय क्षेत्रीय कार्यसमिति की होटल कृष्णा,जोधपुर में आयोजित बैठक के समापन सत्र में मा.कैलाषचन्द्र मार्गदर्शक  भारतीय सिन्धु सभा राजस्थान ने दिये। प्रदेषाध्यक्ष श्री लेखराज माधू ने अध्यक्षता करते हुये कहा कि सभा पूज्य सिन्धी पंचायतों, सामाजिक व धार्मिक संगठनों की सहभागिकता से कार्य कर रही है। हम सब सेवक है और सिन्ध मिलकर अखण्ड भारत बने ऐसे विचार को आगे बढाये।

प्रदेश संगठन महामंत्री मोहनलाल वाधवाणी ने कहा कि प्रदेश के ग्रीष्मकालीन में सभा की ओर 150 सिन्धी बाल संस्कार शिविरों  का लक्ष्य तय किया गया है और राज्यभर में प्रत्येक तहसील ईकाई में आयोजन किया जायेगा। सिन्धी सेन्ट्रल पंचायत जोधपुर अध्यक्ष श्री राम तोलाणी व चै.हा.बोर्ड पंचायत रमेश  खटवाणी, उपाध्यक्ष प्रभू ठारवाणी ने भी विचार प्रकट किये। रामापीर मनिदर के महन्त भाऊ कन्हैयालाल ने आशीर्वचन देते हयु सभा के कार्यकर्ताओं द्वारा वर्षभर किये जाने वाले कार्यों की सराहना करते हुये सहयोग की बात कही। राष्ट्रीय उपाध्यक्ष व राजस्थान प्रभारी श्री गौतम सम्राट, श्री नवलराय बच्चाणी ने देश  भर में होने वाले कार्यक्रमों की जानकारी देते हुये राज्यभर में सिन्धी बाल संस्कार शिविरों  व अभ्यास वर्गाें को कार्यकर्ताओं से जुडाव का अच्छा कार्य बताया। 

प्रदेश प्रचार मंत्री श्री सतराम दास मंघनानी ने बताया कि ग्रीष्मकालीन अवकाश में प्रदेश भर में 150 सिन्धी बाल संस्कार शिविरों का आयोजन किया जायेगा तथा माह जुलाई  2016  में सम्पूर्ण प्रदेश में सदस्यता अभियान चलाया जायेगा जिसमे 40ए000 सामान्य सदस्य बनाये जाने तथा 7000 सक्रिय  सदस्य बनाये जाने का लक्ष्य तय किया गया द्य इसके अतिरिक्त माह सितम्बर. 2016 से दिसम्बर. 2016 के मध्य प्रदेश के विभिन्न संभागो में कार्यकर्ताओ के लिए 10 संभागीय अभ्यास वर्ग लगाये जायेंगे .

बैठक में प्रदेश  व केन्द्रीय कार्यकारिणी के सदस्य, संभाग प्रभारी, नगर अध्यक्ष व मंत्री, जिलाध्यक्ष व जिलामंत्री सम्मिलित हुये। सत्र का संचालन प्रदेश महामंत्री महेन्द्र कुमार तीर्थाणी ने किया।

इससे पूर्व सभी अतिथियों द्वारा ईष्टदेव झूलेलाल, भारत माता व सरस्वती माता के चित्र पर पुष्पहार व दीप प्रज्जवलन कर कार्य का शुभारम्भ  किया। स्वागत भाषण अध्यक्ष तीर्थदास डोडवाणी व मंत्री डाॅ. प्रदीप गेहाणी ने आभार प्रकट किया। सिन्धी गीत नरेश भगत ने प्रस्तुत किया। राष्ट्रगान के साथ बैठक का समापन किया गया।

पाच प्रस्ताव सर्वसम्मति से हुए पारित
1.    सिन्धी विषय लेकर अध्यन करने वाले विद्यार्थियों के लिए सिन्धी किताब प्रकाशन वितरण राजस्थान सिन्धी अकादमी की और से मिलने वाली प्रोत्साहन राशि कि राज्य सरकार से मांग के साथ राजस्थान सिन्धी अकादमी के शीघ्र गठन कि भी मांग की द्य
2.    महर्षि दयानंद सरस्वती विश्वविद्यालय अजमेर में स्थापित शोधपीठ में शीघ्र कोर्स तैयार कर शोधकार्य प्राम्भ किये जाये द्य
3.    सिन्धी भाषा के ज्ञान एवं विस्तार हेतु राजस्थान सिन्धी भाषा विकास बोर्ड कि स्थापना कि जाये द्य
4.    सिन्धु दर्शन यात्रा लेह लदाख हेतु राज्य सरकार कि और से स्वीकृति आदेश में संशोधन के साथ बजट में राशि स्वीकृत कि जाये द्य
5.    भारतीय सिन्धु सभा  राजस्थान कि और से पुष्कर में संपन्न हुए पूज्य सिन्धी पंचायत अध्यक्ष ध् मुखी  सम्मलेन में तय किये गए 21 सूत्रीय घोषणा पत्र से प्रदेश भर में पंचायतो के साथ मिलकर कार्य की योजना बने द्य



20वीं सिन्धु दर्शन यात्रा का आयोजन आगामी 23 जून से होगा-

बैठक के द्वितीय सत्र में प्रदेश  महामंत्री महेन्द्र कुमार तीर्थाणी ने बताया कि आगामी 23 जून से 26 जून तक यात्रा का आयोजन होगा। यात्रा दिल्ली से हवाई मार्ग के साथ सडक  मार्ग जम्मू व चण्डीगढ से होगी। राजस्थान से 300 तीर्थयात्रियों का लक्ष्य रखा गया है। इस वर्ष नवनिर्मित सिन्धु भवन का लोकार्पण भी होगा।


सिन्ध से आये हिन्दु नागरिकों को शीघ्र नागरिकता प्रदान की जाये- आहूजा

सभा की केन्द्रीय कार्यसमिति सदस्य व विधायक ज्ञानदेव आहूजा ने सिन्ध से आये हिन्दु परिवारों की वर्तमान स्थिति पर विस्तृत चर्चा करते हुये भारत सरकार से शीघ्र नागरिकता देने के साथ एल.टी.वी पर रह रहे नागरिकों को सुविधाये देने के भी विचार रखे। भारत सरकार से संगठन की ओर से सवंाद की भी जानकारी दी।
अलग अलग सत्रों में राष्ट्रीय सह-संगठन मंत्री श्री गोविन्द रामनाणी ने समाज में कुरीतियों को समाप्त करने के लिए जागरूकता के साथ सामूहिक विवाह सम्मेलनों पर बल दिया। अनावश्यक  खर्चों पर रोक लगे व सेवाकार्यों को बढाया जाये। डाॅ. वासुदेव केसवाणी ने चेटीचण्ड व असूचण्ड पर समाज की ओर से धार्मिक आयोजनो से युवा पीढी को संस्कार मिलने के विचार प्रकट किये।

    डाॅ. प्रदीप गेहाणी ने केन्द्र व राज्य सरकार की योजनाओं में सिन्धी विद्यार्थियों को तकनीकी व कम्प्यूटर ज्ञान के कोर्स से जुडने के सुझाव के साथ प्रभावी बनाने के विचार रखे। प्रदेष उपाध्यक्ष टीकम पारवाणी ने युवा पीढी को प्रदेश व महानगर कार्यकारिणी में जोडकर सेवा कार्यों से जोडने के विचार प्रकट किये।
       सांस्कृतिक कार्यक्रम घनश्यामदास हरवाणी, पदमपुर व नरेश  भगत ने कार्यकर्ताओं के साथ प्रस्तुत किये। सिन्धी गीत, भजन व सामूहिज छेज लगाई गई।

    अलग अलग सत्रों का संचालन राधाकिशन शिवनानी (पाली) महेश  टेकचंदाणी (अजमेर) मास्टर गिरधारीलाल (खेरथल) डाॅ. प्रदीप गेहाणी जोधपुर ने किया।

बैठक में कार्यकर्ताओं के सितम्बर, नवम्बर व दिसम्बर 2016 में राज्यभर में 10 संभागीय अभ्यास वर्गों के आयोजन के साथ विभिन्न विषयों पर चर्चा की गई।

विश्व संवाद केन्द्र जोधपुर द्वारा प्रकाशित