मंगलवार, 25 मार्च 2014

पांचजन्य-ऑर्गनाइजर का पत्रिका स्वरुप में परमपूज्य सरसंघचालक जी द्वारा लोकार्पण किया गया सरसंघचालक जी का उद्बोधन अविकल रूप में .......

पांचजन्य-ऑर्गनाइजर का पत्रिका स्वरुप में परमपूज्य सरसंघचालक जी द्वारा लोकार्पण
किया गया

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सरसंघचालक जी का उद्बोधन अविकल रूप में .......
परिवर्तन यह अपरिवर्तनीय नियम है ऐसा कहते हैं, समय के अनुसार अपनी यात्रा चलती रहे इसलिये जो-जो परिवर्तन करना पड़ता है, उन्हें किया जाता है. वैसा ही पांचजन्य और ऑर्गनाइजर के बारे में हुआ है. थोड़ा पहले होता तो और अच्छा होता, लेकिन ठीक है. अब यह जो दृष्टि है कि समय के अनुसार कुछ बदलना है, वह दृष्टि स्थापित हो गई और चलती रहेगी. क्या परिवर्तन होना चाहिये, कहां-कहां आगे बढ़ना चाहिये, यह कैसा चलना चाहिये, गोयनका जी स्वयं पत्रकारिता में इतने वर्षों से काम कर रहे हैं कि उससे ज्यादा अधिक कुछ सलाह मैं नहीं मानता हूं कि और कोई देगा. मैं एक दूसरी बात कहने के लिए खड़ा हूं, परिवर्तन यह एक अपरिवर्तनीय नियम है, परन्तु परिवर्तनशील दुनिया का जो मूल सत्य है, वह शाश्वत है और वह अपरिवर्तनीय है. परिवर्तन हितकारी हो इसलिये अपरिवर्तनीय जो है उसका भान रखकर चलना पड़ता है, तभी परिवर्तन भी सफल होता है.  
      पांचजन्य ऑर्गनाइजर के कार्यकर्ताओं को यह बताने की आवश्यकता नहीं है, मैं केवल स्मरण करा रहा रहा हूं. समाचार पत्र, प्रचार पत्र, विचार पत्र, एक-एक प्रकार को चलाना भी बहुत कठिन हो गया है. ऐसे समाचार पत्र की अथवा प्रचार पत्र की अथवा विचार पत्र की चिंता करने वाले अच्छे-अच्छे हट्टे-कट्टे लोगों को लगता था कि वे चट्टान जैसे खड़े हैं और कोई हवा उन्हें डिगा नहीं सकती, लेकिन उनके पास काम आने पर उन्होंने चिंता में नींद की गोलियां खाना शुरू कर दिया. यह मैंने स्वयं देखा है. इसलिये यह यात्रा कठिन है, परन्तु तीनों की थोड़ी-थोड़ी भूमिका निभाते हुए और उसको चलाते रहना यह और भी कठिन है. लेकिन इतने दिनों से काम करने के अभ्यास से कठिनाइयों की आदत पड़ गई है. 
   अनुकूलता में ही ज्यादा सावधान रहना पड़ता है. कठिनाइयों में तो कैसे चलना है इसकी बहुत आदत है. अनुकूलता उत्पन्न हुई तो कभी-कभी यह लगता है कि संकट आया, गया. ऐसा न लगने देते हुए लेकिन पर्याप्त सावधानी रखकर उस पर चलना. इन सबको करना पड़ता है, वह भी करना पड़ेगा. शाश्वत बात क्या है, कागज बदले, आकार बदले, रंग बदले, सब बदले परन्तु जो करने के लिये जो यह सारे बदल हम करते हैं, वह न बदले, आखिर यह समाचारों का आदान-प्रदान वृत-पत्रों के द्वारा फिर दूरदर्शन के द्वारा, और आजकल अंतरतानों के द्वारा ऐसा एक सिस्टम चल रहा है, उसके पहले भी होता था, लेकिन उसके पहले लोग गांव-गांव जाकर प्रवचन करते थे, कथायें करते थे, समाचार बताते थे, इतिहास बताते थे. माध्यमों का वह प्रकार उस समय था. अब आज का प्रकार है, जब यह प्रकार है, उसको करना है, परन्तु किसको करना है, विचार की स्पष्टता होनी चाहिये और संवाद उत्पन्न होना चाहिये। संवाद माध्यम ही है वैसे, और आज देखते हैं चित्र तो ऐसे लगता है कि संवाद माध्यमों से विसंवाद ज्यादा पैदा होता है.  वास्तव में माध्यमों का काम जन प्रबोधन और जनों में संवाद पैदा करना यही है. समाज के सारे जो व्यापार चलते हैं, खेती-नौकरी से लेकर राजनीति से लेकर तो माध्यमों तक, तो समाज चलाने के लिये हैं. जिस समाज में संवाद नहीं है, वह समाज कैसे आगे बढ़ेगा. संवाद उत्पन्न होने के लिये गंतव्य की स्पष्टता चाहिये. मैं कौन हूं इसकी स्पष्टता चाहिये, मुझे कहां जाना है और मैं कौन हूं उसके संदर्भ में परिस्थितियों का कैसे मैंने विचार करना इसकी स्पष्टता चाहिये. वह स्पष्टता उत्पन्न करना और वह संवाद उत्पन्न करना. संघ के स्वयंसेवकों के द्वारा जीवन के अन्य-अन्य क्षेत्रों में यह जो सारे कार्य और प्रकल्प खड़े किए गये हैं, वे इसलिये नहीं खड़े किए गये कि उससे कोई प्रभाव पैदा होगा. प्रभाव पैदा होता है उसका कोई इलाज नहीं है. संघ के स्वयंसेवक व्यक्ति निर्माण का संघ का कार्य चलाए रखते हुए अन्य-अन्य कार्यों में क्यों गये हैं. इसलिये कि संपूर्ण समाज को एक विशिष्ट दिशा में चलाना है और सम्पूर्ण समाज को जोड़कर रखना है. इस दृष्टि से समाज के सभी क्रियाकलापों में कुछ परिवर्तन की आवश्यकता है. यह परिवर्तन करने के लिये वहां वह लोग गये हैं. क्योंकि विचार के बारे में हम सब लोग भ्रमित हैं, अपने देश के सब लोग. जैसे छोटी बात मैं बताता हूं, राष्ट्रवादी पत्रकारिता, अब राष्ट्र यह वाद का विषय है नहीं, वह एक सत्य है. लेकिन भाषा जो आती है, उसी के शब्दों का उपयोग हम करते हैं. सोचकर बोलने वाला शब्दों को परिवर्तित कर देता है. पूजनीय बाला साहब ने एक बार कहा था कि हिन्दुत्ववाद कहते हैं, यह गलत शब्द है हिन्दुत्व यही शब्द है. यह हिन्दुइज्म नहीं है-हिन्दुनेस है. इसलिये राष्ट्रवाद भी राष्ट्रीय पत्रकारिता वाली बात है.  विचारधारायें अनेक हो सकती हैं, उस परिस्थिति में उस समय क्या करना इसके अनेक दृष्टिकोण हो सकते हैं, अनेक मत हो सकते हैं. परन्तु एक बात पक्की होनी चाहिये कि हम एक राष्ट्र हैं, लेकिन उसके बारे में एक भ्रम है, इसलिये हम देखते हैं कि वह भी एक खूंटा है जहां सारी बातें जन-जन से एक दिशा में जाती हैं। वहां बंधी नहीं रहने से वह भटकती हैं. पतंग आसमान में खुला विचरण करती है, पतंग उड़ाते हैं हम लोग, कई बार, हवा की दिशा से इधर-उधर जा सकती है लेकिन जब तक नीचे किसी के हाथ में उसकी डोरी है, तब तक वह विचरण करता रहेगा और नीचे का आधार जब छूट जाता है, तो हवा उसको कहां उड़ा ले जायेगी और क्या-क्या उसकी गति करेगी इसका कोई भरोसा नहीं है. ऐसे समाज के सब लोगों में एक मूल बात हम कौन हैं, हम क्या हैं, हम एक हैं, इसका होना अत्यंत आवश्यक है. उस हमारे, प्राचीन काल से चलते हुए हैं, सनातन भी जिसको कहा जा सकता है ऐसे राष्ट्र का निर्देश करने के लिये शब्द का उपयोग क्या करना है यह अपना-अपना मत होता है, लेकिन एक राष्ट्र है और वह राष्ट्र यानि संयोग से एकत्र आये लोगों में कोई स्वार्थ सामूहिक, पूरा करने के लिये, कोई तन्त्र  उत्पन्न करके, जबरदस्ती थोपी हुई एकता नहीं है. सम्पूर्ण सृष्टि के मूल में जो एकता है उसका प्रत्यक्ष साक्षात्कार करने के बाद उस एकता के भान में से पैदा हुआ यह आत्मीय संबन्ध है. इसलिये चाहे जिसका दबाव बनाओ और छोटे-छोटे स्वार्थ अलग प्रकार के हों, हम लोग एक घर के, एक बनकर रहेंगे, इस प्रकार का अगर एक दृढ़भाव सब लोगों को जवान, वृद्ध, महिला-पुरुष, जंगलों में रहने वाले वनवासियों से लेकर अंतरराष्ट्रीय उद्योग चलाने वाले उद्योगपतियों तक में  ओतप्रोत होने की पहली आवश्यकता है. जिस सत्य के आधार पर हमारा यह राष्ट्र बना है, उस सत्य की अपेक्षा में हमारा गंतव्य क्या होना चाहिये. सृष्टि के सारे क्रियाकलापों में योगदान देने के लिये हमारा कर्तव्य क्या होना चाहिये. इसके बारे में सबकी यह समझ होनी चाहिये. यह गंतव्य और यह हमारा स्वरूप निश्चित होने के कारण उसके आलोक में आज की परिस्थिति में जो-जो यहां बिखरा है, उसका क्या विचार करना, क्या चर्चा करना इसकी नीति उसके संदर्भ में बननी चाहिये. यह जब तक होता नहीं तब तक संवाद नहीं चलेगा, विसंवाद ही रहेगा. यह छोटे-छोटे स्वार्थ तो सबके अलग हैं, विविधताओं से भरा हुआ देश है. पंथ, सम्प्रदाय, जाति, उप-जाति, भाषा, प्रांत कितनी बातें हैं. इस सबको एक रसायन के आधार पर उनकी विविधता-विशेषता कायम रखते हुए, उनको बढ़ाते हुए सब बातें होनी चाहिये और हजारों वर्षों से एक दिशा में चलाने वाली जो राष्ट्रीयता है, उस राष्ट्रीयता के आधार पर सबका विचार स्पष्ट हो, उस राष्ट्रीयता के आधार पर सब समाज में संवाद चले. ऐसा होना चाहिये था स्वतन्त्रता के बाद, लेकिन आज तक ऐसा हुआ नहीं है. भौगोलिक एकता की घोषणा तो बहुत देर से हुई है, चर्चा तो बहुत हुई लेकिन भौगोलिक एकता के पीछे भावना कौन सी है. इसकी स्पष्टता नहीं है और इसलिये स्पष्टता को उत्पन्न करना. उसके प्रकाश में परिस्थिति को कैसे देखना, इसके विचार समाज में लाते रहना. यह काम निरंतर करते रहने वाले यह दो साप्ताहिक हैं और यही उनको करना है.  
      यह काम स्वयंसेवकों ने इन दो नामों से शुरू किया है और चला रहे हैं. उसके पीछे तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ नाम के संगठन में मिला संस्कार और प्रेरणा है. लेकिन वह संस्कार ही उनको कहता है कि मत अलग-अलग हो सकते हैं, मन अलग-अलग नहीं होना चाहिये. हमारी तो पहले से परम्परा है, मतों को लेकर एक-दूसरे से वाद करना, शास्त्रार्थ करना, किसलिये?  तत्वबोध  के लिये. यह हमारी परम्परा है और आज तो हमने प्रजातांत्रिक रूप को स्वीकार किया है. उसमें तो है ही कि मैं तुम्हारी बात को बिलकुल भी नहीं मानता लेकिन तुम्हारी बात को तुम रख सको, इसके लिये मैं प्रतिबद्ध हूं. इस प्रकार का वातावरण दिखता नहीं और इस प्रकार का वातावरण माध्यमों के कारण उत्पन्न हो रहा है ऐसा भी दिखता नहीं. जन प्रबोधन करने वाले सबकी यह जिम्मेदारी है, दायित्व है, यह कर्तव्य है, जनप्रबोधन करने वाले सब लोगों का यह धर्म है. प्रिय ही क्यों, सत्य बोलना है तो सत्य तो कटु भी होता है. लेकिन सत्य बोलने के बाद आदमी जुड़ना चाहिये और आदमी जुड़े इसलिये असत्य मत बोलो. अप्रिय सत्य मत बोलो. यह कुशलतापूर्वक करने का काम है और समाज इसको कुशलतापूर्वक कर सके इसलिये उसके प्रबोधन करने का कर्तव्य माध्यमों का होता है. 
      जिस जमाने में वृतपत्र नहीं थे, प्रिंट मीडिया जिसको कहते हैं, नहीं था, विजुअल मीडिया नहीं था, ऐसा कुछ नहीं था, उस समय आदमी-आदमी के पास जाता था. इसकी व्यवस्था थी, तरह-तरह के लोग तरह-तरह के वेश बनाकर आते थे और यह सारी बातें बताते थे. खेल-खेल में बताते थे, अपनी आजीविका भी उस पर चलाते थे. अब वह समय गया, अब आते ही नहीं, लेकिन यह दायित्व तो है और दायित्व माध्यम होता है. उसको रिझाने वाली बात बननी चाहिये, कैसे बनेगी, नमक के घोल में सेर नमक को एक स्फटिक के रूप में जमा करना है तो पहले किसी नमक के स्फटिक को बांधकर उसमें टांगना पड़ता है. घुला नमक अगर स्फटिक के रूप में फिर से लाना है तो स्फटिक का रूप लेकर किसी को वहां अंदर रहना पड़ता है घोल में. वह स्वयं घुल न जाये, वह बना रहे स्फटिक के रूप में तब सारा नमक उस स्फटिक के नाते उसमें जमा होता है. तो उदाहरण के रूप में राष्ट्रीय पत्रकारिता को चलाना यह काम है और हम सब लोग यह कह सकते हैं यह देख रहे हैं कि वर्षों की लम्बी परम्परा में पांचजन्य और ऑर्गनाइजर यह दो ऐसे नाम हैं कि जिन्होंने  इतने दशकों तक इस व्रत को अखण्ड अक्षुण्ण रखा है. यह एक व्रतस्थ होकर अपनी परम्परा को अखण्ड अक्षुण्ण रूप से निभाना यह बात न बदलने वाली बात है और उसका बार-बार पालन किया है. बाकी सब बदले,वह बदलना ही पड़ता है, समय के अनुसार रूप बदलना पड़ता है. लेकिन रूप के पीछे जो व्यक्ति है अन्दर का जो व्यक्त होता है, उस रूप के माध्यम से वह वहीं रहता है और वह समय को देखता है और उसके लिये चलता है, वह कालजयी बनता है. ऐसी कालजयी यात्रा जो करते हैं उनके उद्घोष में यह सामर्थ्य रहता है कि सोये हुए को जगा सके. दुष्ट बुद्धि वाले को हटा सके और सज्जनों को उनका अधिकार दिलाये. सामान्यों को उनका संदर्भ रहता है. 
      राम जन्म-भूमि के आन्दोलन में कौन समाचार ठीक रहेगा कौन नहीं, इसका कोई भरोसा नहीं था तो आम जनता भी पांचजन्य और ऑर्गनाइजर को देखने के लिये भागती थी कि वास्तव में क्या हो रहा है. क्योंकि उनको विश्वास था उनके ऊपर कि सही क्या है यह उनको यही बताएगा. है एक विचारधारा की प्रेरणा है, एक संगठन के स्वयंसेवक हैं, परन्तु वह संगठन ही ऐसा है और वह विचार ही ऐसा है जो कहता है कि एकम् सप्राः विधा समबोधा वधन्ति, कि सत्य एक है इसलिए एक होकर सबको चलना चाहिये और विचार भी ऐसा है कि वह संगठन की उत्पति नहीं है वह तो अपने देश का सनातन काल से चलता आया हुआ विचार है, दुनिया का सत्य है जिसको पहचाने की आवश्यकता आज दुनिया के सामने फिर से उपस्थित हो गई है. इसलिये यह लोग चलेंगे तो ठीक चलेगा. क्योंकि यह धैर्यशाली लोग हैं.  
      यह जो शब्द प्रयोग यहां हुआ अभी विवेक जी ने भी यहां किया, पत्रकारिता कौन सी, ‘करेजजर्नलिज्म आफ करेज, तो धैर्य और साहस दोनों की ध्वनि हैं करेज शब्द में. धृति, उत्साह, समन्वितः ऐसा देखा गया है. तो जिसके पास धृति नहीं है वह साहसी नहीं बन सकता वह दुःसाहसी हो सकता है और जिसके पास साहस नहीं है उसकी धृति का कोई उपयोग नहीं है. यह तो कायरता हो गई. इसलिये धृति उत्साह समन्वितः चलने वाले यह लोग हैं, यह विश्वास है. उसका बड़ा महत्व होता है. अभी जो दृश्य दिखता है देश में, परिस्थिति का उसमें ध्यान में आता है कि लोग आधार कहां है कहां मिलेगा इससे परेशान हैं, जहां उनको दिखता है वहां जा रहे हैं, परन्तु उनको आधार ही देना है तो धृति उत्साह समन्वितः वाले लोग आधार दे सकेंगे. विचारों की भूमि में जिनके पैर पक्के जड़े-गढ़े हैं, कहां जाना है जिनकी दृष्टि के सामने साफ है, उसका नित्य स्मरण है, वहां जाने का अटूट संकल्प जिनके पास है वह स्वयं की चिंता नहीं करते वह संकल्प की पूर्ति की चिंता करते हैं. ऐसे लोग जहां मिलेंगे वहां जैसा वह सारा नमक एक स्फटिक के रूप में इकट्ठा आ जाता है वैसा होगा. वैसा होने की आवश्यकता है. इसलिये पांचजन्य ऑॅर्गनाइजर का जब मैं विचार करता हूं, क्योंकि उनकी यात्रा की कठिनाइयों को मैंने भी बहुत करीब से देखा है, सुलझाया उन्होंने ही है, लड़कर अपने रास्ते को निकालने वाले वीर तो वही हैं. मैं उनका वर्णन करने वाला एक कार्यकर्ता हूं. परन्तु मुझे एक अंग्रेजी कविता याद आती है कविता कोई बड़े जग प्रसिद्ध कवि की है ऐसा नहीं है लेकिन पांचवी की क्लास में अंगे्रजी विषय में हमको वह कंठस्थ करनी पड़ी थी. पांचवी की  परीक्षा होने के बाद पांचवी का पाठ्यक्रम याद रखने की आवश्यकता नहीं है. लेकिन वह कविता जिनको जीवनभर याद रहती है, उनका जीवन सफल हो न हो, उनका जीवन समाधानी-सुखी तो निश्चित हो जाता है. वह कविता कहती है गॉड गिव मी करेज, टु डू व्हाट इज राइट, करेज टू स्पीक, करेज टू फाइट, फॉर ऑनेस्टी, गुडनेस, जस्टिस एण्ड ट्रुथ, करेज टू डू, इन गुड.. बाकी तो आसान है पांचवी की कक्षा की जिसकी इंग्लिश ठीक है वह व्यक्ति इसका अर्थ जान सकता है. लेकिन उसको अगर पूछा जाये कि करेज टु डू गुड इन माई यूथ ऐसा क्यों? बुढ़ापे में भी क्यों नहीं, बचपन में भी क्यों नहीं. तो इन सब सद्गुणों की तारुण्य एक परीक्षा है. तारुण्य धन-सम्पति, प्रभुत्वम, अविवेकितः एक भी आदमी के जीवन को तबाह कर सकने की क्षमता रखने वाला विकार है दुर्गुण है. चार इकट्ठा आ गये तो क्या होगा, तो एक सुभाषित है. तरुणाई में शक्ति रहती है भटकने की, बुढ़ापे  में भटकने का साहस नहीं रहता और बचपन में भटकने की इच्छा नहीं रहती, बड़ों के पीछे चलना. अब मनुष्य की तरुणाई यह एक अलग विषय है. पांचजन्य-आर्गनाइजर मैं मानता हूं कि अभी अपने यौवन में हैं, उनका शैशव समाप्त हो गया है. अभी आ गये हैं ऐसा नहीं है, कुछ वर्ष  हो गये हैं. लेकिन अभी अपने यौवन में हैं. इसलिये इन सब बातों पर ध्यान रखना. नये-नये परिवर्तन अपने जीवन में उत्पन्न होते हैं, यश उत्पन्न होता है, वैभव उत्पन्न होता है उस समय अविवेक हटाना, विवेक रखना. विवेक यानी कहां जाना है इसका स्मरण, मैं कौन हूं इसका स्मरण. इसके संदर्भ में परिस्थिति का विचार और अपना रास्ता तय करना. यह जो सारे समाज में भान लाना है, विचारों की स्पष्टता लानी है, उसका उदाहरण इन साप्ताहिकों का विचार बने, इन साप्ताहिकों का चलना बने. अब तक बना है, जो एक बड़ी तपस्वी परम्परा मिली है, उदाहरण अपने सामने हैं, आदर्श अपने सामने हैं और जो आदर्श कल्पनायें उन्होंने दी हैं, हो सकती हैं यह उनके जीवन से हम देखते हैं यह कठिन नहीं है. कष्ट साध्य है, कष्टों को सहना  पड़ेगा, कष्टों से डरना नहीं है, संकटों से डरना नहीं है, विपत्तियों से डरना नहीं है, यह भी हमारी परम्परा नहीं है, हमारे खून में है. उसका उपयोग करना चाहिये और उसके अनुसार चलना चाहिये. तो उद्यमम् साहसम् धैर्यम् ऐसे जो सद्गुणों की संपत्ति है, वे जिनके पास हैं, उनको दैव भी सहायता करता है. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की यात्रा, पांचजन्य की परम्परा, ऑर्गनाइजर की परम्परा, यह सब इसकी साक्षी है. उसको ध्यान में रखना, उसी दिशा में आगे बढ़ना. तो हम भी जिस बात के लिए इतने सारे कष्ट करके, कठिन यात्रा, प्रवाह के विरुद्ध चलने वाली यात्रा को धीरे-धीरे उसको बढ़ाते हुए उसको करने में लगे हैं, वह यात्रा बहुत जल्दी सम्पूर्ण सुफल के साथ सफल होगी, यह विश्वास मन में मेरे भी है, उनके भी है, इस यात्रा के लिये शुभकामना देता हुआ, मैं अपनी बात समाप्त करता हूं.


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साभार: दैनिक भास्कर , जोधपुर
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विश्व संवाद केन्द्र जोधपुर द्वारा प्रकाशित