शुक्रवार, 28 मई 2010

स्वतंत्रता संग्राम में सावरकर का अद्वितीय स्थान

विनायक दामोदर सावरकर (२८ मई, १८८३ - २६ फरवरी, १९६६) [१]भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन के अग्रिम पंक्ति के सेनानी और प्रखर राष्ट्रवादी नेता थे। उन्हें प्रायः वीर सावरकर के नाम से सम्बोधित किया जाता है। हिन्दू राष्ट्र की राजनीतिक विचारधारा (हिन्दुत्व) को विकसित करने का बहुत बडा श्रेय सावरकर को जाता है। ये न केवल स्वाधीनता-संग्राम के एक तेजस्वी सेनानी थे अपितु महान क्रांतिकारी, चिंतक, सिद्धहस्त लेखक, कवि, ओजस्वी वक्ता तथा दूरदर्शी राजनेता भी थे। वे एक ऐसे इतिहासकार भी हैं जिन्होंने हिन्दू राष्ट्र की विजय के इतिहास को प्रमाणिक ढंग से लिपिबद्ध किया है। उन्होंने १८५७ के प्रथम स्वातंत्र्य समर का सनसनीखेज व खोजपूर्ण इतिहास लिख कर ब्रिटिश शासन को हिला डाला था।[२]

विनायक सावरकर का जन्म महाराष्ट्र में नासिक के निकट भागुर गांव में हुआ था। इनकी माता जी का नाम राधाबाई तथा पिताजी का नाम दामोदर पन्त सावरकर था। इनके दो भाई गणेश (बाबाराव) व नारायण दामोदर सावरकर तथा एक बहन नैनाबाई थीं। जब ये केवल नौ वर्ष के थे तभी हैजे की महामारी में उनकी माता जी का देहान्त हो गया। इसके सात वर्ष बाद सन् १८९९ मेंप्लेग की महामारी में उनके पिताजी भी स्वर्ग सिधारे। इसके बाद विनायक के बड़े भाई गणेश ने परिवार के पालन-पोषण का कार्य संभाला । दुःख और कठिनाई की इस घड़ी में गणेश के व्यक्तित्व का विनायक पर गहरा प्रभाव पड़ा। विनायक ने शिवाजी हाईस्कूल नासिक से १९०१ में मैट्रिक की परीक्षा पास की। बचपन से ही वे पढ़ाकू थे। बचपन में उन्होंने कुछ कविताएँ भी लिखी थीं। आर्थिक संकट के बावजूद बाबाराव ने विनायक की उच्च शिक्षा की इच्छा को समर्थन दिया। इस अवधि में विनायक ने स्थानीय नवयुवकों को संगठित करके मित्र मेलों का आयोजन किया। शीघ्र ही इन नवयुवकों में राष्ट्रीयता की भावना के साथ क्रान्ति की ज्वाला जाग उठी।[२]सन् १९०१ में रामचन्द्र त्रयम्बक चिपलूनकर की पुत्री यमुनाबाई के साथ उनका विवाह हुआ। उनके ससुर जी ने उनकी विश्वविद्यालय की शिक्षा का भार उठाया। १९०२ में मैट्रिक की पढाई पूरी करके उन्होने पुणे के फर्ग्युसन कालेज में नामांकन कराया।जीवन वृत्त

लंदन आवास

सावरकर १९२०-३० के दशक में

१९०४ में उन्हॊंने अभिनव भारत नामक एक क्रांतिकारी संगठन की स्थापना की। १९०५ में बंगाल के विभाजन के बाद उन्होने पुणे में विदेशी वस्त्रों की होली जलाई। फर्ग्युसन कॉलेज, पुणे में भी वे राष्ट्रभक्ति से ओत-प्रोत ओजस्वी भाषण देते थे। बाल गंगाधर तिलक के अनुमोदन पर १९०६ में उन्हें श्यामजी कृष्ण वर्मा छात्रवृत्ति मिली। इंडियन सोशियोलाजिस्टऔर तलवार नामक पत्रिकाओं में उनके अनेक लेख प्रकाशित हुए, जो बाद में कलकत्ता के युगांतर पत्र में भी छपे। सावरकर रूसी क्रांतिकारियों से ज्यादा प्रभावित थे।[२]१० मई, १९०७ को इन्होंने इंडिया हाउस, लंदन में प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की स्वर्ण जयंती मनाई। इस अवसर पर विनायक सावरकर ने अपने ओजस्वी भाषण में प्रमाणों सहित १८५७ के संग्राम को गदर नहीं, बल्कि भारत की स्वतंत्रता का प्रथम महान संग्राम सिद्ध किया।[३] जून, १९०८ में इनकी पुस्तक द इंडियन वॉर ऑफ इंडिपेंडेंस - १८५७ तैयार हो गई, किंतु इसके मुद्रण की समस्या आई। इसके लिए लंदन,पेरिस, जर्मनी तक भी प्रयास असफल रहे। तब किसी प्रकार गुप्त रूप से हॉलैंड से प्रकाशित हुई व इसकी प्रतियां फ्रांसपहुंचायी गईं।[३] इस पुस्तक में भी सावरकर ने इस लड़ाई को ब्रिटिश सरकार के खिलाफ स्वतंत्रता की पहली लड़ाई बताया। मई १९०९ में इन्होंने वहां से वकालत उत्तीर्ण की, जिसके अभ्यास की अनुमति इन्हें नहीं मिली।

लंदन आवास के दौरान सावरकर की मुलाकात लाला हरदयाल से हुई। लंदन में वे इंडिया हाऊस की देखरेख भी करते थे। १ जुलाई, १९०९ को मदनलाल ढींगरा को गोली मार दिए जाने के बाद उन्होंने लंदन टाइम्स में भी एक लेख लिखा था। १३ मई, १९१० को पैरिस से लंदन पहुंचने पर गिरफ़्तार कर लिया गया, किंतु ८ जुलाई, १९१० को एस.एस.मोरिया नामक जहाज से भारत ले जाते हुए सीवर होल के रास्ते ये भाग निकले।[४] २४ दिसंबर, १९१० को इन्हें आजीवन कारावास की सजा दी गई। इसके बाद ३१ जनवरी, १९११ को इन्हें दोबारा आजीवन कारावास दिया गया।।[४] इस प्रकार सावरकर को ब्रिटिश सरकार ने क्रांति कार्यों के लिए दो आजन्म कारावास की सजा दी, जो विश्व के इतिहास की पहली एवं अनोखी सजा थी। सावरकर के अनुसार -

मातृभूमि! तेरे चरणों में पहले ही मैं अपना मन अर्पित कर चुका हूं। देश सेवा में ईश्वर सेवा है, यह मानकर मैंने तेरी सेवा के माध्यम से भगवान की सेवा की।[३]

सेलुलर जेल में

सेलुलर जेल, पोर्ट ब्लेयर- जो काला पानी के नाम से कुख्यात थी

नासिक जिले के कलेक्टर जैकसन की हत्या के लिए नासिक षडयंत्र काण्ड के अंतर्गत इन्हें ७ अप्रैल, १९११ को काला पानी की सजा पर सेलुलर जेल भेजा गया। उनके अनुसार यहां स्वतंत्रता सेनानियों को कड़ा परिश्रम करना पड़ता था। कैदियों को यहां नारियल छीलकर उसमें से तेल निकालना पड़ता था। साथ ही इन्हें यहां कोल्हू में बैल की तरह जुत कर सरसों व नारियल आदि का तेल निकालना होता था। इसके अलावा उन्हें जेल के साथ लगे व बाहर के जंगलों को साफ कर दलदली भूमी व पहाड़ी क्षेत्र को समतल भी करना होता था। रुकने पर उनको कड़ी सजा व बेंत व कोड़ों से पिटाई भी की जाती थीं। इतने पर भी उन्हें भरपेट खाना भी नहीं दिया जाता था। ।[४] सावरकर ४ जुलाई, १९११ से २१ मई, १९२१ तक पोर्ट ब्लेयर की जेल में रहे।

स्वतंत्रता संग्राम

१९२१ में मुक्त होने पर वे स्वदेश लौटे और फिर ३ साल जेल भोगी। जेल में इन्होंने हिंदुत्व पर शोध ग्रंथ लिखा। इस बीच ७ जनवरी, १९२५ को इनकी पुत्री, प्रभात का जन्म हुआ। मार्च, १९२५ को इनकी भॆंट राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक, डॉ. हेडगेवार से हुई। १७ मार्च, १९२८ को इनके बेटे विश्वास का जन्म हुआ। फरवरी, १९३१ को इनके प्रयासों से बंबई में पतितपावन मंदिर की स्थापना हुई, जो सभी हिन्दुओं के लिए समान रूप से खुला था। २५ फरवरी, १९३१को सावरकर ने बंबई प्रेसिडेंसी अस्पृश्यता उन्मूलन सम्मेलन की अध्यक्षता की।[४]

१९३७ में वे अखिल भारतीय हिन्दू महासभा के कर्णावती (अहमदाबाद) में हुए १९वें सत्र में अध्यक्ष चुने गए, जिसके बाद वे पुनः सात वर्षों के लिए अध्यक्ष चुने गए। १५ अप्रैल, १९३८ को इन्हें मराठी साहित्य सम्मेलन का अध्यक्ष भी चुना गया। १३ दिसंबर, १९३७ को नागपुर की एक जनसभा में उन्होंने अलग पाकिस्तान के लिए चल रहे प्रयासों असफल करने की प्रेरणा दी थी। ।[३] २२ जून, १९४१ को इनकी भेंट नेताजी सुभाष चंद्र बोस से हुई। ९ अक्तूबर १९४२ को भारत की स्वतंत्रता के निवेदन सहित उन्होंने चर्चिल को तार भेज कर सूचित किया। सावरकर जीवन भर जीवन अखंड भारत के पक्ष में रहे। स्वतंत्रता प्राप्ति के माध्यमों के बारे में गांधी और सावरकर का एकदम अलग दृष्टिकोण था। १९४३ के बाद दादर, बंबई में रहे। १६ मार्च, १९४५ को इनके भ्राता बाबूराव का देहान्त हुआ। १९ अप्रैल, १९४५ को इन्होंने अखिल भारतीय रजवाड़ा हिन्दू सभा सम्मेलन की अध्यक्षता की। इसी वर्ष ८ मई इनकी पुत्री प्रभात का विवाह संपन्न हुआ। अप्रैल १९४६ में बंबई सरकार ने सावरकर के लिखे साहित्य पर से निषेध हटा लिया।

स्वतंत्रता उपरांत जीवन

१५ अगस्त, १९४५ को इन्होंने सावरकर सदान्तो में भारतीय तिरंगा एवं भगवा, दोनो ध्वजारोहण किए। इस अवसर पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए उन्होंने पत्रकारों से कहा कि मुझे स्वराज्य प्राप्ति की खुशी है, परंतु वह खंडित है, इसका दु:ख है। उन्होंने यह भी कहा कि राज्य की सीमाएं नदी तथा पहाड़ों से या संधि पत्रों से निर्धारित नहीं होती हैं, वे देश के नवयुवकों के शौर्य, धैर्य, त्याग एवं पराक्रम से निर्धारित होती हैं।[३] ५ फरवरी, १९४८को गांधीजी की हत्या के उपरांत इन्हें प्रिवेन्टिव डिटेन्शन एक्ट धारा के अंतर्गत गिरफ्तार कर लिया गया। १९ अक्तूबर, १९४९ को इनके अनुज नारायणराव का देहान्त हो गया। ४ अप्रैल, १९५० को पाकिस्तानी प्रधान मंत्री लियाक़त अली ख़ान के दिल्लीआगमन की पूर्व संध्या पर इन्हें सावधानीवश बेलगाम जेल में रोक कर रखा गया। मई, १९५२ में पुणे में एक विशाल सभा में अभिनव भारत संगठन को उसके उद्देश्य, भारतीय स्वतंत्रता प्राप्ति होने पर भंग किया गया। १० नवंबर, १९५७ को नई दिल्ली में आयोजित हुए, १९८७ के प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के शाताब्दी समारोह में ये मुख्य वक्ता रहे। ८ अक्तूबर, १९५९ को इन्हें पुणे विश्वविद्यालय ने डी.लिट्ट की मानद उपाधि से अलंकृत किया। ८ नवंबर, १९६३ को इनकी पत्नी यमुनाबाई चल बसीं। सितंबर, १९६६ से इन्हें तेज ज्वर ने आ घेरा, जिसके बाद इनका स्वास्थ्य गिरने लगा। १ फरवरी, १९६६ को इन्होंने मृत्युपर्यन्त उपवास लिया। २६ फरवरी १९६६ को बंबई में भारतीय समयानुसार प्रातः १० बजे इन्होंने पार्थिव शरीर छोड़कर परमधाम को प्रस्थान किया।[४]

पुस्तक एवं फिल्म

सावरकर पर भारत सरकार द्वारा जारी डाक-टिकट
जालस्थल

इनके जन्म की १२५वीं वर्षगांठ पर इनके ऊपर एक अलाभ जालस्थल आरंभ किया गया है। इसका संपर्क अधोलिखित काड़ियों मॆं दिया गया है।[१] इसमें इनके जीवन के बारे में विस्तृत ब्यौरा, डाउनलोड हेतु ऑडियो व वीडियो उपलब्ध हैं। यहां उनके द्वारा रचित १९२४ का दुर्लभ पाठ्य भी उपलब्ध है। यह जालस्थल २८ मई, २००७को आरंभ हुआ था।

पुस्तक

द इंडियन वॉर ऑफ इंडिपेंडेंस - १८५७ सावरकर द्वारा लिखित पुस्तक है, जिसमें उन्होंने सनसनीखेज व खोजपूर्ण इतिहास लिख कर ब्रिटिश शासन को हिला डाला था। अधिकांश इतिहासकारों ने १८५७ के प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को एक सिपाही विद्रोह या अधिकतम भारतीय विद्रोह कहा था। दूसरी ओर भारतीय विश्लेषकों ने भी इसे तब तक एक योजनाबद्ध राजनीतिक एवं सैन्य आक्रमण कहा था, जो भारत में ब्रिटिश साम्राज्य के ऊपर किया गया था।

चलचित्र

सामाजिक उत्थान

सावरकर एक प्रख्यात समाज सुधारक थे। उनका दृढ़ विश्वास था, कि सामाजिक एवं सार्वजनिक सुधार बराबरी का महत्त्व रखते हैं व एक दूसरे के पूरक हैं। उनके समय में समाज बहुत सी कुरीतियों और बेड़ियों के बंधनों में जकड़ा हुआ था। इस कारण हिन्दू समाज बहुत ही दुर्बल हो गया था। अपने भाषणों, लेखों व कृत्यों से इन्होंने समाज सुधार के निरंतर प्रयास किए। हालांकि यह भी सत्य है, कि सावरकर ने सामाजिक कार्यों में तब ध्यान लगाया, जब उन्हें राजनीतिक कलापों से निषेध कर दिया गया था। किंतु उनका समाज सुधार जीवन पर्यन्त चला। उनके सामाजिक उत्थान कार्यक्रम ना केवल हिन्दुओं के लिए बल्कि राष्ट्र को समर्पित होते थे। १९२४ से १९३७ का समय इनके जीवन का समाज सुधार को समर्पित काल रहा।

सावरकर के अनुसार हिन्दू समाज सात बेड़ियों में जकड़ा हुआ था। ।[४]

  1. स्पर्शबंदी: निम्न जातियों का स्पर्श तक निषेध, अस्पृश्यता [५]
  2. रोटीबंदी: निम्न जातियों के साथ खानपान निषेध [६][७]
  3. बेटीबंदी: खास जातियों के संग विवाह संबंध निषेध[८]
  4. व्यवसायबंदी: कुछ निश्चित व्यवसाय निषेध
  5. सिंधुबंदी: सागरपार यात्रा, व्यवसाय निषेध
  6. वेदोक्तबंदी: वेद के कर्मकाण्डों का एक वर्ग को निषेध
  7. शुद्धिबंदी: किसी को वापस हिन्दूकरण पर निषेध

अंडमान की सेल्यूलर जेल में रहते हुए उन्होंने बंदियों को शिक्षित करने का काम तो किया ही, साथ ही साथ वहां हिंदी के प्रचार-प्रसार हेतु काफी प्रयास किया। सावरकरजी हिंदू समाज में प्रचलित जाति-भेद एवं छुआछूत के घोर विरोधी थे। बंबई का पतितपावन मंदिर इसका जीवंत उदाहरण है, जो हिन्दू धर्म की प्रत्येक जाति के लोगों के लिए समान रूप से खुला है।।[३] पिछले सौ वर्षों में इन बंधनों से किसी हद तक मुक्ति सावरकर के ही अथक प्रयासों का परिणाम है.

strot : http://hi.wikipedia.org/wiki/विनायक_दामोदर_सावरकर


विश्व संवाद केन्द्र जोधपुर द्वारा प्रकाशित