मंगलवार, 31 मार्च 2015

निस्वार्थ और पूजा भाव से की गई सेवा ही सच्ची सेवा है – सुहास राव हिरेमठ

निस्वार्थ और पूजा भाव से की गई सेवा ही सच्ची सेवा है – सुहास राव हिरेमठ


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सच्चे अर्थों में सेवा का भाव क्या है, सेवा का उद्देश्य क्या है, संघ और सेवा भारती किन क्षेत्रों में सेवा कार्य कर रहे हैं, सेवा को लेकर भारतीय चिंतन क्या कहता है, सेवा की आड़ में मतांतरण और स्वार्थ सिद्धि के प्रयास कितने उचित हैं, ईसाई मिशनरी की सेवा के पीछे का सच क्या है….सहित अन्य विषयों पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अखिल भारतीय सेवा प्रमुख सुहास हिरेमठ जी से विश्व संवाद केंद्र भारत के प्रतिनिधि ने विस्तृत बातचीत की. सेवा से जुड़े विभिन्न विषयों पर उनके साथ बातचीत के अंश……

विसंकें सेवा क्षेत्र में राष्ट्रीय सेवा भारती कब से कार्यरत है ?

सुहास जी – सेवा भारती प्रांत में काम करने वाली संस्थाएं हैं, हर प्रांत में सेवा कार्य करने के लिये प्रांतीय स्तर पर स्वयंसेवकों ने संघ की योजना से संस्थाएं बनाई हैं. अधिकतर स्थानों पर सेवा भारती के नाम से संस्थाएं हैं, पर कुछ प्रांतों में अलग नाम से भी सेवा कार्य चल रहा है. महाराष्ट्र में जनकल्याण समिति, कर्नाटक में हिंदू सेवा प्रतिष्ठान, राष्ट्रोत्थान सेवा परिषद है, विदर्भ में लोक कल्याण समिति, डॉ हेडगेवार जन्मशताब्दी समिति सहित अनेक नामों से संस्थाएं सेवा कार्य कर रही हैं, अधिकांश प्रांतों में सेवा भारती नाम है. इन सारी संस्थाओं की अंब्रेला (छाता) आर्गेनाइजेशन है राष्ट्रीय सेवा भारती, संघ प्रेरणा से प्रांत स्तर पर कार्य करने वाली संस्थाएं, संघ के अलावा सेवा कार्य में निष्ठापूर्वक रत अन्य संस्थाओं को जोड़ने का कार्य राष्ट्रीय सेवा भारती करती है. वर्ष 2002 में राष्ट्रीय सेवा भारती का शुभारंभ हुआ था, जिसे कार्य करते हुए करीब अब 13 साल हो गए हैं.

विसंकें – सही अर्थों में सेवा का भाव क्या होता है, उद्देश्य क्या है ?

सुहास जी –  सेवा कार्यों को लेकर हिंदू चिंतन ही संघ का चिंतन है, संघ का अपना अलग कोई चिंतन नहीं है. हिंदू चिंतन के अनुसार सेवा का मतलब है निस्वार्थ भाव से, पूजा भाव से, जैसे स्वामी विवेकानंद ने भी कहा है कर्तव्य भाव से सेवा करना. दुर्भाग्यवश किसी न किसी वजह से जो लोग पीछे रह गए हैं, उनकी उन्नति के लिये, उन्हें आगे लाने के लिये एक साधन सेवा है. संघ के लिये सेवा ही साधन है, साध्य नहीं है.

अपना सेवा का यह उद्देश्य नहीं है कि समाज के दो वर्ग बनाएं, एक जीवन भर सेवा लेता रहे है और दूसरा जीवन भर सेवा करता रहे. सेवा कार्य का उद्देश्य सेवित जन के मन में स्वाभिमान जगाना है. आज जो सेवा ले रहा है, वह जल्दी से जल्दी सेवा करने वाला बने, आज जो लेने के लिये हाथ आगे बढ़ा रहा है, आगे चलकर देने के लिये हाथ बढ़ाए. सेवा कार्य के दौरान ऐसे कई अनुभव सामने आए हैं कि सेवा लेने वाले आगे चलकर अच्छे कार्यकर्ता बने हैं, पूर्ण कालिक कार्यकर्ता बने हैं.

पुणे की स्वरूप वर्धिनी संस्था में गरीब परिवार की (जिनके माता पिता दूसरों के घरों में काम कर परिवार का पालन पोषण कर रहे थे) तीन छात्राएं एमकॉम, बीएएमएस, एमएससी-बीएड की डिग्री हासिल करने के बाद सेवा में लगीं, तीनों लड़कियों ने डिग्री पूरी करने के पश्चात सेवा का निश्चय किया और अरुणाचल में तीन साल तक पूर्णकालिक के रूप में वनवासी कल्याण आश्रम के तहत कार्य किया. मन में भावना यह थी कि समाज से हमें जो मिला, उसके बदले समाज को कुछ लौटाया जाए. ऐसे ही उदाहरण सारे देश में सामने आते हैं.
केवल सेवित बन कर जीवन भर नहीं रहूंगा, स्वाभिमानी बनूंगा, स्वावलंबी बनूंगा, परिश्रमी बनूंगा, की भावना सेवा कार्य के माध्यम से सेवित जनों के मन में जागृत की जाती है.

गांव को नशा मुक्त बनाना, अस्पृश्यता को दूर करना, समाज से दूर गए लोगों को दोबारा समाज के नजदीक लाना भी सेवा कार्य का उद्देश्य है. सेवा का परिणाम यह रहा कि समाज से विषमताओं को दूर करने में सफलता मिल रही है.

विसंकें – राष्ट्रीय सेवा भारती क्या कार्य कर रही है ?

सुहास जी – संपूर्ण देश में काफी संख्या में लोग सेवा कार्य कर रहे हैं. समाचार पत्रों, संचार माध्यमों में सेवा कार्यों को लेकर अधिक जानकारी नहीं आती, न ही चर्चा होती है. लेकिन लाखों की संख्या में लोग, परिवार, ग्रुप, संस्थाएं सेवा कार्य कर रहे हैं. इन सबको जोड़ना, सामंजस्य बिठाना तथा कार्य को लेकर विचारों, अनुभवों का अदान प्रदान करें, सेवा कार्य में गुणवत्ता विकसित करना, क्षमता में विकास करना, प्रांत की सेवा संस्थाएं बहु आयामी बनें, स्थानीय आवश्यकताओं के अनुसार आयाम जोड़ना, प्रशिक्षण देना, यह कार्य राष्ट्रीय सेवा भारती का है.

विसंकें – क्या अन्य संगठन भी सेवा भारती के साथ सहभागी हैं, देश में कुल कितने सेवा कार्य चल रहे हैं, कितने संगठन साथ में कार्य कर रहे हैं ?

सुहास जी – हां, अन्य संस्थाएं भी सेवा भारती के साथ संबद्ध हैं. वर्तमान में राष्ट्रीय सेवा भारती के साथ 800 सेवा संस्थाएं संलग्न (संबद्ध) हैं, इनमें से करीब 40 प्रतिशत सेवा संस्थाएं ऐसी हैं, जो संघ की योजना या स्वयंसेवकों द्वारा नहीं, बल्कि अपनी प्ररेणा से कार्य कर रही हैं और सेवा भारती के साथ संलग्न हैं. ये संस्थाएं निस्वार्थ भाव से सेवा का उद्देश्य लेकर कार्य कर रही हैं.

राष्ट्रीय सेवा भारती के तहत आने वाली संस्थाएं करीब 65000 सेवा कार्य कर रही हैं, इसके अलावा संघ से संबंधित अन्य संगठनों विद्या भारती, विश्व हिंदू परिषद, वनवासी कल्याण आश्रम, सक्षम, आरोग्य भारती, राष्ट्र सेविका समिति, भारत विकास परिषद सहित अन्य संगठनों के सेवा विभाग के माध्यम से भी सेवा कार्य चल रहे हैं, सभी को मिलाकर देश में कुल 1,52,388 सेवा कार्य संघ के स्वयंसेवक कर रहे हैं.

विसंकें – सेवा क्षेत्र में किन आयामों या क्षेत्रों पर विशेष बल दिया जाता है?

सुहास जी – सेवा के मुख्यत चार आयाम हैं, एक है शिक्षा, दूसरा है स्वास्थ्य, तीसरा है सामाजिक, और चौथा है स्वावलंबन. ये चार प्रमुख आयाम सेवा के हैं. इसके अलावा दो विषय है, जिनका कार्य भी चार आयामों के साथ चलता है. एक है ग्राम विकास, दूसरा है गौ सेवा. राष्ट्रीय सेवा भारती भी इन्हीं के बारे में जानकारी, प्रशिक्षण, मार्गदर्शन करती है.

विसंकें – वनवासी व पूर्वोत्तर में इसाई मिशनरी भी सेवा कार्य कर रहे हैं, सेवा भारती और मिशनरी के कार्य में क्या अंतर है?

सुहास जी – संघ में किसी मत, संप्रदाय, जाति का विषय ही नहीं है. सेवा सभी के लिये चलती है, जो भी सेवा लेने के लिये आता है, उसकी सेवा संघ के स्वयंसेवक करते हैं. संघ में उसकी जाति, धर्म, पूजा पद्धति नहीं देखी जाती, न ही पूछी जाती है. संघ का सेवा का दृष्टिकोण अपने देश के दृष्टिकोण से चलता है, जिसमें सेवा एक साधन है, साध्य नहीं. जीव सेवा, शिव सेवा का भाव मन में रहता है. ईसाई मिशनरियों का उन्होंने जैसा कहा है, उस उद्देश्य से सेवा कार्य करते हैं.

ईसाई मिशनरी का सेवा कार्य हमसे विपरीत है, मदर टेरेसा को लेकर पिछले कुछ दिन चर्चा रही. मदर टेरेसा का ही इंटरव्यू समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, संचार माध्यमों में प्रकाशित हुआ है. और उसमें उन्होंने स्वयं सीधा कहा है कि प्रत्येक व्यक्ति को यीशू का पुत्र या कन्या बनाना, यही हमारा इस सबका उद्देश्य है. इसलिये उनकी सेवा का उद्देश्य कनवर्जन है, यह उन्होंने पहले भी कई बार स्पष्ट किया है, और बार-बार सामने आया भी है.

विसंकें – उड़ीसा, आंध्र प्रदेश, गुजरात. पूर्वोत्तर सहित अन्य राज्यों के वनवासी बहुल क्षेत्र में ईसाई मिशनरियों द्वारा वनवासियों के कनवर्जन के समाचार मिलते हैं. वहां सेवा भारती भी सेवा प्रकल्प चलाती है, क्या सेवा भारती के कार्यों का विरोध हुआ है, या मिशनरी द्वारा बाधा उत्पन्न की गई क्या ?

सुहास जी – जहां संघ का सेवा कार्य प्रभावी होता है, उन क्षेत्रों में मतातंरण रुकता है. यह अभी तक का अनुभव रहा है. कन्याकुमारी एक जिला है, जिसमें छह हजार सेवा कार्य हैं, देश का एकमात्र जिला है, जिसमें इतने सेवा कार्य हैं. अपने देश के तटवर्तीय क्षेत्र में काफी मात्रा में कनवर्जन, ईसाइकरण पिछले कुछ वर्षों में हुआ है, कन्याकुमारी में भी ईसाईकरण हुआ है. लेकिन आज स्थिति यह है कि जिस भी गांव में अपना सेवा कार्य चलता है, कनवर्जन बंद हो गया है. वहां के लोग ईसाई मिशनरियों को गांव में प्रवेश नहीं करने देते. ऐसे ही पूर्वांचल में, देश के सभी भागों में जहां सेवा कार्य प्रभावी होता है, वहां राष्ट्रीयता का भाव जागृत होता ही है. इस कारण ऐसे लोगों द्वारा विरोध करना स्वाभाविक ही है, संघ या सेवा भारती द्वारा किये जा रहे सेवा कार्यों का कई स्थानों पर विरोध होता है. पूर्वोत्तर में, कन्याकुमारी जिले में, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ के क्षेत्रों में ईसाई मिशनरियों के विरोध का सामना करना पड़ा है. उड़ीसा में तो स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती जी की हत्या ही इसके कारण हो चुकी है. कनवर्जन बंद होने पर विरोध होता है, लेकिन उनके विरोध को हजम करते हुए अपने कार्यकर्ता काम कर रहे हैं, और जहां अपना कार्य प्रभावी हो रहा है, वहां समाज ही सेवा कार्य, अपने विचारों को समर्थन दे रहा है.

इसाई मिशनरी विरोध के लिये कार्यकर्ताओं के बारे में गांव में गलत धारणा बनाना, गलत जानकारी देना, गांव में जाने वाले कार्यकर्ताओं को रोकने का प्रयास करना, कार्यकर्ताओं के घरों में, जीवन में बाधा निर्माण करने का प्रयास करना, अपप्रचार करने का कार्य करते हैं.

सेवा भारती के कार्यकर्ता जहां भी सेवा के लिये जाते हैं, तो गांव में घूमते समय विभिन्न चिंहों से कनवर्जन का पता चलता है. घर के ऊपर क्रास लगाकर चर्च का रूप दिया गया हो, इससे ध्यान में आता है कि ईसाईकरण हो रहा है. जहां सेवा कार्य प्राथमिक अवस्था में चल रहा है, और यदि उस गांव में ईसाई मिशनरी आते हैं तो उसकी जानकारी भी कार्यकर्ता देते हैं.

अपनी पद्दति है, मिशनरी का विरोध करने के बजाय गांव के लोगों को जागरूक करना, उनके मन में अपने धर्म, संस्कृति, परंपरा के बारे में श्रद्धा का भाव जागृत करना, इस पर कार्यकर्ता जोर देते हैं. सेवा के माध्यम से उनकी उन्नति करते हैं, उनके दुखों को दूर करने का प्रयास करते हैं. जिससे अपने आप लोग दूसरी तरफ जाना बंद करते हैं.

विसंकें – सेवा की आड़ में कनवर्जन को क्या उचित कहा जा सकता है, आपका क्या कहना है ?

सुहास जी – सेवा की आड़ में कनवर्जन पूरी तरह से गलत है. विवेकानंद, राम कृष्ण परमहंस सहित अन्य महापुरुषों के वचनों के अनुसार पीड़ितों की सेवा करना भगवान द्वारा दिया गया अवसर है, और पीड़ित को भगवान के रूप में देखना चाहिये, नर सेवा नारायण सेवा, मानव सेवा, माधव सेवा. या जैसे स्वामी विवेकानंद ने कहा कि मैं उस प्रभु का सेवक हूं, जिसे अज्ञानवश मनुष्य कहते हैं, वह भगवान ही है. जीव सेवा, शिवा की भावना से निस्वार्थ भाव से सेवा करनी चाहिये, व्यक्तिगत भी नहीं, संस्था का भी नहीं, या संगठन का किसी भी प्रकार का मन में स्वार्थ नहीं होना चाहिये, सेवा के बदले कोई अपेक्षा भी नहीं रखनी चाहिये. यह अपने भारतीय चिंतन और संघ की सेवा के बारे में धारणा है.

विसंकें – इन क्षेत्रों में कनर्जन के लिये मिशनरी और अन्य संस्थाओं को यूरोप, अमेरिका, ईसाई संस्थाओं की ओर से खूब पैसा मिल रहा है, इस पर क्या तथ्य सामने आए हैं ?

सुहास जी – अभी हाल ही में सरकार ने कुछ संस्थाओं (एनजीओ) पर प्रतिबंध लगा दिया है, फेरा के तहत संस्थाओं के बैंक खाते बंद किये गए हैं, कुछ संस्थाओं के खाते सील किये गए हैं. पूर्व सरकार के समय योजना आयोग के अध्यक्ष मोंटेक सिंह आहलूवालिया ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को जानकारी दी थी कि विदेशों से पैसा लेकर कई संस्थाएं हमारे विकास के कार्यों में बाधा निर्माण करती हैं. लोगों के मन में विरोध का निर्माण करने का प्रयास करती हैं. इन तथ्यों के आधार पर वर्तमान सरकार ने पूछताछ शुरू की है, जानकारी लेना शुरू किया है और कार्रवाई की जा रही है.

मिशनरी को मिलने वाली मदद को लेकर अलग-अलग आंकड़े हैं. पुख्ता रूप से आर्थिक आंकड़ें स्पष्ट नहीं हैं. पिछले दिनों एक समाचार पत्र में मिशनरी के कार्य व विदेशी मदद को लेकर एक लेख आया था, जिसमें विभिन्न आंकड़े दिये गए थे. जिसमें सालाना बजट 40 हजार करोड़ से 80 हजार करोड़ के बजट का दावा किया था. लेकिन हमारा एक अनुमान कहा जाए तो 8 हजार करोड़ रुपये से लेकर 80 हजार करोड़ रुपये तक की मदद मिशनरी को विदेशों से प्राप्त हो रही है. लाखों की संख्या में मिशनरी वालंटियर कार्य कर रहे हैं.

विसंकें – राष्ट्रीय सेवा भारती द्वारा सेवा संगम का आयोजन किया जा रहा है, इसका उद्देश्य क्या है ?

सुहास जी – अपने – अपने स्थानों पर सेवा संस्थाएं कार्य करती हैं, इनमें कुछ छोटी हैं, कुछ बड़ी हैं, कुछ का कार्य कम है, कुछ का काफी अधिक है. इन सबको संगठित कर एक साथ लाना सेवा संगम का उद्देश्य है.
एक स्थान पर एकत्रित होने से सेवा का विशाल दृश्य देखने को मिलेगा. इतनी संख्या में लोग सेवा कर रहे हैं, इससे समस्त लोगों का आत्मविश्वास और उत्साह बढ़ेगा. कभी अपने स्थानों पर विपरीत परिस्थिति, अनुभव के कारण मन में निराशा आने लगती है, सेवा संगम में आने से निराशा का भाव दूर होता है और आत्मविश्वास का संचार होता है.

तीसरा हम जो कार्य कर रहे हैं, उसके अलावा भी देश में लोग अलग-अलग कार्य कर रहे हैं. उसकी जानकारी भी मिलती है. उनके अनुभव के आधार पर अपने स्थान पर भी हम नए प्रयोग, और कार्य कर सकते हैं, जिससे अपने क्षेत्र में सेवा को बहु आयामी रूप दे सकते हैं. ऐसे कार्यक्रम से सेवा संस्थाओं का गुणात्मक विकास होता है.

प्रत्येक पांच वर्ष में एक बार राष्ट्रीय स्तर पर सेवा संगम का आयोजन किया जाता है, पहला सेवा संगम 2010 में आयोजित हुआ था, दूसरा अब 4 से 6 अप्रैल तक दिल्ली में आयोजित किया जा रहा है. प्रांत स्तर पर भी पांच वर्ष में एक बार, जिला स्तर पर सेवा मिलन वर्ष में एक बार आयोजित किया जाता है.

विसंकें – युवाओं को सेवा कार्य से जोड़ने के लिये क्या प्रयास किया जा रहा है ?

सुहास जी – यूथ फॉर सेवा नाम से कार्य दस वर्ष पूर्व शुरू हुआ था, पहले कर्नाटक से इसकी शुरूआत हुई थी. इसका उद्देश्य यही है कि कालेज छात्र तथा पढ़ाई पूरी कर नौकरी कर रहे युवाओं को सेवा के साथ जोड़ना, सेवा कार्य करने के लिये प्रेरित करना. वर्तमान में करीब दो हजार युवा स्वयंसेवी ऐसे हैं जो नियमित सेवा कार्य करते हैं.

कुछ रोज समय देते हैं, कुछ सप्ताह में एक दिन, कुछ माह में सात दिन, कुछ साल में एक माह का समय देते हैं. और कुछ स्वयंसेवी एक या दो साल की नौकरी से छुट्टी लेकर पूर्णकालिक कार्यकर्ता के रूप में किसी न किसी क्षेत्र में सेवा कार्य करते हैं. यूथ फॉर सेवा का कर्नाटक का प्रयोग धीरे धीरे अन्य प्रांतों में शुरू किया जा रहा है. दिल्ली, मध्य प्रदेश, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र में यूथ फॉर सेवा प्रयोग के आधार पर कार्य चल रहे हैं, जिसमें कालेज विद्यार्थी कार्य कर रहे हैं. इसका अच्छा अनुभव सामने आ रहा है, और देश का युवा वर्ग सेवा कार्य से जुड़ रहा है.

साभार: VSKBHARAT.COM
 

सोमवार, 30 मार्च 2015

गाय बचने से ही धरती बचेगी - मुरलीधर जी


जोधपुर, 29 मार्च 2015   परम पूज्य माधव गौ विज्ञान अनुसंधान समिति जोधपुर द्वारा आयोजित गौ विज्ञान अनुसंधान एंव सामान्य ज्ञान परीक्षा  2015 की राजस्थान कार्यसमिति की बैठक आज स्टील भवन शास्त्री नगर में आयोजित की गई। 

बैठक को सम्बोधित करते हुए राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के प्रान्त प्रचारक मुरलीधर ने गौ माता का महत्व बताते हुए कहा कि गाय बचने से ही धरती बचेगी। उन्होनें कहा कि गाय को अपना पुनः स्थान दिलवाने के लिए समर्पण भाव से सभी को प्रयास करना होगा एवं गौ माता की धार्मिक, आर्थिक एवं सामाजिक महत्ता को पुनः स्थापित करना होगा। उन्होनंे कहा कि गौ विज्ञान परीक्षा के माध्यम से हम आने वाली पीढ़ी को अपने राष्ट्र के प्रति, हमारे मान बिन्दुओं के प्रति जागरूक कर सकते है ताकि आने वाले समय में भारत पुनः विश्व गुरू के पद पर आरूढ़ हो सके। 

बैठक में क्षेत्रीय अध्यक्ष गोविन्द सोडानी ने कहा कि इस परीक्षा में समाज के सभी वर्गों का सहयोग लेते हुए गौ माता के प्रति सभी की श्रद्धा पुनः स्थापित हो इस ओर प्रयास करना चाहिए। उन्होने कहा कि इस बार पूरे राजस्थान से  पांच लाख बालक - बालिकाओ को इस परीक्षा में बैठाने का लक्ष्य लिया गया है। 

राज्य स्तरीय पुरस्कार वितरण समारोह तय -
कार्यक्रम के आरम्भ में अतिथियों का स्वागत करते हुए क्षेत्रीय मंत्री अनिल अग्रवाल ने विगत परीक्षा सम्बन्धि जानकारी देते हुए बताया कि पिछले वर्ष तीन हजार परीक्षा केन्द्रों पर यह परीक्षा आयोजित की गई तथा इस परीक्षा में तीन लाख बालक - बालिकाओं ने भाग लिया इन बच्चों को 10 मई 2015 को राज्य स्तरीय पुरस्कार वितरण समारोह में सम्मानित किया जाएगा यह पुरस्कार वितरण समारोह जयपुर के कृषि भवन में आयोजित होगा जिसमें अध्यक्षता कृषि मंत्री प्रभुलाल सैनी करेंगे एवं मुख्य अतिथि शिक्षा राज्य मंत्री वासुदेव देवनानी होगें। 

बैठक में अगले वर्ष सम्पन्न होने वाली परीक्षा हेतु वार्षिक कार्याक्रम तय किया गया तथा विभिन्न दायित्वों की घोषणा की गई। जिसमें राजस्थान के प्रान्त अध्यक्ष गोविन्द सोडानी,  संयोजक कृष्णगोपाल वैष्णव, मंत्री अनिल अग्रवाल, परीक्षा प्रभारी ओमप्रकाश गौड रहेगें। इसी तरह जोधपुर प्रान्त के लिए प्रान्त सयोजक कैलाश जोशी (सिरोही) , मंत्री प्रीतेश कुमार (संगरिया), परीक्षा प्रभारी विरेन्द्रसिंह शेखावत  रहेगें।

बैठक में जयपुर प्रान्त सह संयोजक बहादुरसिंह गुर्जर, चितोड़ प्रान्त सेे विभाग संयोजक कैलाश शर्मा, जोधपुर विभाग संयोजक बन्नाराम पंवार, बीकानेर विभाग संयोजक दौलतराम सारण, सह संयोजक मदनलाल खत्री, पाली विभाग संयोजक तेजसिंह पंवार, श्रीगंगानगर विभाग संयोजक प्रकाश रणवा, बाड़मेर से मनोहरलाल श्रीमाली, बालोतरा से हरिप्रसाद दवे,अनिल कुमार सोनी, पाली से प्रवीण त्रिवेदी, जोधपुर से श्यामसिंह सजाड़ा, श्याम पालीवाल, खेमाराम जाखड़, लूणाराम सैन, अनिल वर्मा, बीरमाराम पटेल, श्रीगंगानगर से दलीप बेनिवाल, फलौदी से दिलीपसिंह, जिला शिक्षा अधिकारी माध्यमिक जोधपुर मंगलाराम मेघवाल, ओमसिंह चारण, अति. जिला शिक्षा अधिकारी प्रा.शि. ओमसिंह राजपुरोहित, प्रधानाचार्य हरिसिंह रतनू, पुरूषोतम राजपुरोहित, हिम्मतसिंह तंवर, भीकाराम प्रजापत एवं अन्य कार्यकर्Ÿाा उपस्थित थे।

शनिवार, 28 मार्च 2015

संगठन के कार्यकर्ताओं को श्रीराम-चरित से सन्देश'






-राघवलु
संयुक्त महामंत्री, विहिंप
राम शब्द में तीन बीजाक्षर है- ‘र’कार, ‘अ’कार, और ‘म’कार| ‘र’ अग्नि बीज है, ‘अ’ आदित्य बीज है, ‘म’ चंद्र बीज है|
सृष्टि में अग्नि, सूर्य और चंद्रमा यह तीन ही प्रकाश देनेवाले है| ये तीन एक राम शब्द में समाविष्ट है| यदि हम एक बार मनसे राम कहेंगे तो शरीर के अंदर प्रकाश उत्पन्न होता है| कोटी-कोटी बार राम जप करनेसे ही शबरी सशरीर स्वर्ग पहुँची, हनुमान देवता स्वरूप बने और वाल्मीकि ऋषी बनें| इतना सामर्थ्य है राम शब्द में|
श्रीराम का आदर्श जीवन
त्रेतायुग में बहुत आतंकवाद फैला था| उस समय ऋषि-मुनियों की हत्या करना, यज्ञ-याग आदि का विध्वंस करना, कन्या-अपहरण, अपनी राज्य सत्ता के लिए समाज में पूरा आतंक निर्माण करना, ऐसी उस समय की परिस्थिति रही| इस पृष्ठभूमि में श्रीराम एक आदर्श राजा एवं सामान्य मानव के रूप में कैसे जीवन चलाएँ, यह उनके जीवन से हमें सीखना हैं|
स्थितप्रज्ञ राम
श्रीराम को राज्याभिषेक की जानकारी मिली, उसके बाद दो घंटे के अंदर कोपगृह में बुलाकर १४ वर्ष जंगल जाने के लिए आज्ञा मिली| लेकिन दोनों को सहर्ष स्वीकार करते हुए श्रीराम ने अपने जीवन में कृती में लाया है|
उदये सविता रक्तो रक्तश्चालस्तमने तथा|
सम्पतौ च विपत्तौ च महतामेकरूपता॥
(सूर्योदय के समय जैसे सूरज का वर्ण होता है, वहीं वर्ण सूर्यास्त के समय भी होता है| वैसे ही समृद्धि तथा
विपत्काल में भी श्रेष्ठ लोग स्थितप्रज्ञ रहते हैं|)
राज्याभिषेक की वार्ता सुनकर तथा वनगमन की जानकारी सुनकर, दोनों ही स्थितियों में श्रीराम अचल थे| इतना ही नहीं, सब प्रकार से सरल जीवन अपनाया| अयोध्या का संपन्न अंत:पुर छोड़कर जंगल में आए| पर्ण-कुटिर में रहने लगे| फल-पत्ते खाकर जीने लगे| जमीन पर सोने लगे|
निरंतर और प्रभावी संपर्क
अगस्त्य ऋषि से संपर्क करते हुए आदित्य हृदय महामंत्र पाया है और भरद्वाज ऋषि से संपर्क करते हुए समंत्रित अस्त्र-शस्त्र पाए| अत्रि-अनसूया से संपर्क करते हुए समंत्रित वस्त्र पाए| सुग्रीव से संपर्क करते हुए महाबल वानरसेना पाए| नील-नल को भी संपर्क करके रामसेतु निर्माण किया| शक्तिमान महारावण को संहार करके अयोध्या वापस आए| संपर्क से सबकुछ पाए| किसी भी स्थिति में भरत से ना सैन्य मॉंगा ना धन|
कार्यकर्ता का चयन
सीता की खोज चल रही थी, उस समय श्रीराम के सामने वाली और सुग्रीवआए| किसको चुनना? वाली के पास शक्ति, साम्राज्य, सेना, संपत्ती सब कुछ है| लेकिन चरित्र, सत्य, धर्म और नम्रता आदि गुण नहीं है| ऐसी व्यक्ति धर्म संस्थापना के लिए योग्य नहीं है| इसलिए वाली को समाप्त कर दिया| जो गुण आवश्यक थे वे सुग्रीव के पास थे| इसके कारण उसको स्वीकारा| संगठन का कार्य करते समय व्यक्ति का या सहयोगी का चयन करना हो तो राम का आदर्श आवश्यक है|
यश मिला तो साथियों में बॉंटना
रावण-संहार के बाद अंगद, सुग्रीव, नील,नल, विभिषण, हनुमान, जांबुवंत सभी को लेकर श्रीराम अयोध्या पहुँचे| वहॉं इन सभी सहयोगीयों का अयोध्या वासीयोंको परिचय कराया| सेतु-बंधन इन्ही लोगों ने किया है| रावण-संहार इन्ही लोगों ने किया है, ऐसा बताया| यह सब मैंने किया, मैंने करवाया ऐसा एक भी शब्द बोले नहीं| यही संगठन कार्यकर्ता की विशेषता है|
शत्रु से भी सीखना
रावण बाणसे विद्ध होकर गिरने के बाद राम और लक्ष्मण रावण के पास पहुँचकर ‘तुमने जीवन मे क्या सीखा है’ ऐसा प्रश्न किया| तब रावण ने बताया ‘मैंने धरती से स्वर्ग तक सिढ़िया बनाने के लिए सोचा था| अष्टदिग्पाल, नवग्रह मेरे नियंत्रण में थे इस लिए यह काम कभी भी कर सकता हूँ ऐसा सोचकर उस काम को तुरंत न करते हुए छोड़ दिया| लेकिन जानकी का अपहरण करने की लालसा मन में आयी तो यह काम तुरंत कर दिया| गलत काम तुरंत करने से मेरा पतन हो गया|’
रावण का पछताना भी श्रीराम को कुछ सीखा गया| तात्पर्य, अच्छा काम को छोड़कर गलत काम जल्दी करने  से किसी का भी पतन हो सकता है|
कनक, कांता, कीर्ति का मोह
जब सुवर्ण लंका प्राप्त हुई तब, लक्ष्मण ने इसका क्या करना इस बारे में श्रीराम के विचार जानने चाहे| श्रीराम ने कहा- 
अपि स्वर्णमयि लंका न मे लक्ष्मण रोचते
जननी जन्मभूमिश्चक स्वर्गादपि गरीयसी|
लोक कल्याण कार्य में धन, व्यामोह रुकावट होगा इसलिए यह तुच्छ है, अपने जननी जन्मभूमि स्वर्ग से अधिक सुख देने वाली है| ऐसा कहकर लक्ष्मण का मार्गदर्शन किया|
शूर्पणखा अतिसुंदरी बनकर श्रीराम के पास आकर, ‘मैंने आपके लिए ही जन्म लिया है; कृपया मुझे स्वीकार करो’ ऐसी बोली तब श्रीराम ने शूर्पणखा के अनुरोध को ठुकरा दिया| इतना ही नहीं, जानकी के साथ १३ वर्ष रहे; लेकिन मुनिवृत्ति अपनाकर पूर्ण रूप से इंद्रियों को नियंत्रण कर दिया|

जब सुवर्ण लंका मिली तो वह विभिषण को दे दी| किष्किंधा का राज्य मिला तो वह सुग्रीव को दे दिया| अयोध्या का राज्य मिला तो वह भरत को दे दिया| इस प्रकार श्रीराम पदवी तथा व्यामोह से दूर रहे|
अच्छे लोगों की पहचान
रावण कुल में विभिषण एक दैवी गुण का व्यक्ति है, यह श्रीराम ने जाना| जब विभिषण श्रीराम के शरण में आ गये तो सब लोग विभिषण के बारे में संदेह करने लगे| लेकिन श्रीराम ने उनका व्यवहार देखकर विभिषण पर अनुग्रह किया| इतनाही नहीं, शत्रु भावना रखने वाले रावण के दहन संस्कार कार्यक्रम संपन्न करने के लिए विभिषण को प्रोत्साहित किया|
समरसता का कार्य
श्रीराम प्रेम के सागर है| समरसता के निर्माता है| जंगल में वनवासी महिला शबरी के झुटे फल खाकर उसपर अनुग्रह किया है| केवट को आलिंगन कर के अनुग्रह किया है| जटायु का दहन संस्कार करते हुए उसे मोक्ष उपलब्धी करायी| गिल्लरी को हस्तस्पर्श करके अनुग्रह किया|
इस प्रकार अयोध्या वासीयों के साथ परिवारपर भी अनंत प्रेम की वृष्टि की| 
सभी वर्गों के विचारों का आदर
लंका से वापस आने के बाद जब धोबी समाज के एक व्यक्ति ने सीता पर कलंक लगाया, तो उसके विचार का आदर करते हुए प्राणसमान सीता को वनवास भेजने के लिए भी श्रीराम तैयार हुए| उस समय श्रीराम ने प्रतिज्ञा की- 
स्नेहम् दयां च सौख्यं च यदि वा जानकी मति
आराधनाय लोकस्य मुंचते नास्ति मे व्यथा॥
लोककल्याण के लिए स्नेह, दया, स्वीय सुख, इतना ही नहीं अत्यंत प्रिय जानकी को भी छोड़ने में किंचित भी व्यथित नहीं है|
कठोर अनुशासन
त्रेता युग के अंत में कलि अयोध्या में प्रवेश करते हुए श्रीराम के साथ एकांत में बात करने के लिए आ गये| उस समय किसी का भी अंदर प्रवेश ना हो इसलिए श्रीराम ने लक्ष्मण को द्वार पर खड़ाकिया| ‘किसी को अंदर आने नहीं देना, यदि इस आज्ञा का उल्लंघन होता तो कठिन दंड भोगना पड़ेगा’ ऐसा बताकर श्रीराम अंदर गए| इतने में दुर्वास महर्षि आकर ‘मुझे अभी श्रीराम से बात करनी है| अनुमति नहीं मिली तो तुम्हारा पुरा इक्ष्वाकु वंश का नाश करुंगा|’ ऐसा क्रोधित हो कर कहा| लक्ष्मण दुविधा में पड़े| प्रवेश की अनुमति देते तो श्रीराम क्रोधित होंगे और अनुमति नहीं दी तो दुर्वास महर्षि इक्ष्वाकु वंश का नाश कर देंगे| अंतत: लक्ष्मण दुर्वास महर्षि को अंदर जाने की अनुमति देते है| तब राम बाहर आ रहे थे| आज्ञा का उल्लंघन देखकर अति प्रिय भ्राता लक्ष्मण को कठिन दंड देते हुए श्रीराम अपने शरीर को भी शरयु नदी में छोडकर अवतार समाप्त कर देते है|
निन्दन्तु नीतिनिपुणा: यदि वा स्तुवन्तु|
लक्ष्मी: समाविशतु गच्छतु वा यथेष्टम्|
मरणमद्यास्तु युगान्तरे वा
न्यायात्पथ: प्रविचलन्ति पदं न धीरा॥
नीतिज्ञ लोग निन्दा करे या स्तुति,  संपत्ति का लाभ हो या हानी, मृत्यु आज आये या युगों के बाद, श्रेष्ठ लोग
कभी भी न्यायपथ से दूर नहीं जाते|
श्रीराम का जीवन भी इसी प्रकार का है| उन्होंने किसी भी स्थिति में आदर्शों को तिलांजली नहीं दी| सामाजिक जीवन में संगठन का कार्य करते हुए, अनेक बाधाएँ, व्यवधान, मोह-माया के प्रसंग पग पग पर आ सकते हैं| क्या करना, क्या नहीं करना, ऐसी किंकर्तव्यमूढ़ स्थिति बनती है| किस से मार्गदर्शन लेना, समझ में नहीं आता| उस समय श्रीराम हमारे सहायक हो सकते है| उनका जीवन चरित हमें दिग्दर्शन करा सकता है| श्रीराम
नवमी के पावन पर्व श्रीराम चरित का चिंतन करने पर यह विश्वाबस हमें मिलता है|


आतंक के संदर्भ में श्रीराम की प्रासंगिकता'

आतंक के संदर्भ में श्रीराम की प्रासंगिकता'




(28 मार्च, श्रीरामनवमी पर प्रासंगिक लेख)
दुनिया में बढ़ रहे आतंकवाद को लेकर अब जरूरी हो गया है कि इनके समूल विनाश के लिए
भगवान श्री राम जैसी सांगठनिक शक्ति और दृढ़ता दिखाई जाए। आतंकवादियों की
मंशा दहशत के जरिए दुनिया को इस्लाम धर्म के बहाने एक रूप में ढालने की है।
जाहिर है, इससे निपटने के लिए दुनिया के आतंक से पीड़ित देशों में परस्पर
समन्वय और आतंकवादियों से संघर्ष के लिए भगवान राम जैसी दृढ़ इच्छा शक्ति की
जरुरत है।
- प्रमोद भार्गव
दुनिया के शासकों अथवा महानायकों में भगवान राम ही एक ऐसे अकेले योद्धा हैं, जिन्होंने आतंकवाद के समूल विनाश के लिए एक ओर जहां आतंक से पीड़ित मानवता को संगठित  किया, वहीं आतंकी स्त्री हो अथवा पुरुष किसी के भी प्रति उदारता नहीं बरती। अपनी इसी रणनीति और दृढ़ता के चलते ही राम त्रेतायुग में भारत को राक्षसी  या आतंकी शक्तियों से मुक्ति दिलाने में सफल हो पाए। उनकी आतंकवाद पर विजय ही इस बात की पर्याय रही कि सामूहिक जातीय चेतना से प्रगट राष्ट्रीय भावना ने इस महापुरुष का दैवीय मूल्यांकन किया और भगवान विष्णु के अवतार का अंश मान लिया। क्योंकि अवतारवाद जनता-जर्नादन को निर्भय रहने का विश्वास, सुखी व संपन्न रहने के अवसर और दुष्ट लोगों से सुरक्षित रहने का भरोसा दिलाता है।

अवतारवाद के मूल में यही मनोवैज्ञानिक प्रवृत्ति काम करती है। लेकिन राम  वाल्मीकि के रहे हों चाहे गोस्वामी तुलसीदास के अलौकिक शक्तियों से संपन्न  होते हुए भी वे मनुष्य हैं और उनमें मानवोचित गुण व दोष हैं।

राम के पिता अयोध्या नरेश भले ही त्रेतायुग में आर्यावर्त के चक्रवर्ती सम्राट थे, किंतु उनके कार्यकाल में कुछ न कुछ ऐसी कमियां जरुर थीं कि रावण की लंका से थोपे गए आतंकवाद ने भारत में मजबूती से पैर जमा लिए थे। गोस्वामी तुलसीदास ने  इस सर्वव्यापी आतंकवाद का उल्लेख कुछ इस तरह से किया है -
निसिचर एक सिंधु महुं रहई। करि माया नभु के खग गहई।
गहई छांह सक सो न उड़ाई। एहि विधि सदा गगनचर खाई।
यानी ये आतंकी अनेक मायावी व डरावने रूप रखकर नगरों तथा ग्रामों को आग के हवाले कर देते थे। ये उपद्रवी ऋषि, मुनियों और आम लोगों को दहशत में डालने की  दृष्टि से पृथ्वी के अलावा आकाश एवं सागर में भी आतंकी घटनाओं को अंजाम  देने से नहीं चूकते थे। इनके लिए एक संप्रभु राष्ट्र की सीमा, उसके कानून  और अनुशासन के कोई अर्थ नहीं रह गए थे। बल्कि इनके विंध्वंस में ही इनकी  खुशी छिपी थी।

ऐसे विकट संक्रमण काल में महर्षि विश्वामित्र ने आतंकवाद से कठोरता से निपटने  के रास्ते खोजे और राम से छात्र जीवन में ही राक्षसी ताड़का का वध कराया। उस समय लंकाधीश रावण अपने साम्राज्य विस्तार में लगा था। ताड़का कोई मामूली स्त्री नहीं थी। वह रावण के पूर्वी सैनिक अड्ढे की मुख्य सेना नायिका थी। राम का पहला आतंक विरोधी संघर्ष इसी महिला से हुआ था। जब राम ने
ताड़का पर स्त्री होने के नाते, उस पर हमला करने में संकोच किया, तब  विश्वामित्र ने कहा, आततायी स्त्री हो या पुरुष वह आततायी होता है, उस पर  दया धर्म - विरुद्ध है। राम ने ऋषि की आज्ञा मिलते ही महिला आतंकी ताड़का को सीधे युद्ध में मार गिराया। ताड़का के बाद राम ने देश के लिए संकट बनीं  सुरसा और लंकिनी का भी वध किया। शूर्पनखा के नाक-कान लक्ष्मण ने कतरे। भारत की धरती पर आतंकी विस्तार में लगे सुबाहु
, खरदूषण और मारीच को मारा।
दरअसल राजनीति के दो प्रमुख पक्ष हैं, शासन धर्म का पालन और युद्ध धर्म का पालन। रामचरितमानस की यह विलक्षणता है कि उसमें राजनीतिक सिद्धांतों और  लोक-व्यवहार की भी चिंता की गई है। इसी परिप्रेक्ष्य में रामकथा संघर्ष और  आस्था का प्रतीक रूप ग्रहण कर लोक कल्याण का रास्ता प्रशस्त करती है।  

महाभारत में भी कहा गया है कि ‘राजा रंजयति प्रजा
यानी राजा वही है, जो प्रजा के सुख-दुख की चिंता करते हुए उसका पालन करे।

राम-रावण युद्ध भगवान राम ने श्रीलंका को आर्यावर्त के अधीन करने की दृष्टि से नहीं लड़ा था, यदि उनकी ऐसी इच्छा होती तो वे रावण के अंत के बाद विभीषण को लंका का अधिपति बनाने की बजाए, लक्ष्मण को बनाते या फिर हनुमान, सुग्रीव या  अंगद में से किसी एक को बनाते? उनका लक्ष्य तो केवल अपनी मातृभूमि से जहां  आतंकवाद खत्म करना था, वहीं उस देश को भी सबक सिखाना था, जो आतंक का  निर्यात करके दुनिया के दूसरे देशों की शांति भंग करके, साम्राज्यवादी
विस्तार की आकांक्षा पाले हुए था। ऐसे में भारत के लिए राम की प्रासंगिकता वर्तमान आतंकी परिस्थितियों में और बढ़ गई है। इससे देश के शासकों को  अभिप्रेरित होने की जरुरत है।
- लेखक प्रिंट और इलेक्ट्रोनिक मीडिया से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार है।
शिवपुरी (मध्य प्रदेश)

सीमा पर रहने वाले भारतीय किसान हिन्दुस्तान की पहचान भी हैं

सीमा पर रहने वाले भारतीय किसान हिन्दुस्तान की पहचान भी हैं

Yaks_in_ladakhनई दिल्ली. दूर-दूर तक रेत के पहाड़ और उनके बीच निःशब्दता को भंग करती सिंधु और उसकी सहायक नदियां – श्योक और जंस्कार. श्योक और जंस्कार को भी समृद्ध करने वाली छोटी नदियां नुब्रा, सरू, डोडा और लुंगनक और छोटी-बड़ी जलधाराएं. भारत के सीमांत पर उत्तर-पश्चिम का लद्दाख क्षेत्र है यह.

इन नदियों ने अपने साथ लायी मिट्टी से इस रेगिस्तान में जगह-जगह उपजाऊ मैदानों का निर्माण किया है. मीलों तक फैले हरे-भरे चरागाह इस क्षेत्र के पशुओं को जीवन देते हैं. इन्हीं के बीच बसे हैं छोटे-छोटे गांव, जिनमें भारत के किसी भी अन्य गांव की तरह कृषि और पशुपालन से अपना जीवन निर्वाह करते ग्रामीण. अंतर यह है कि यहां प्रकृति का अनुपम सौन्दर्य है, प्रदूषण मुक्त पर्यावरण है तो अति कठिन परिस्थिति भी है.
वर्ष में प्रायः आठ महीने तक यह इलाके बर्फ की चादर से ढके रहते हैं. उस समय सब कुछ ठप हो जाता है. तापमान शून्य से 20 से 30 डिग्री नीचे रहता है. एकमात्र गतिविधि अपने और पशुओं के जीवन को बचाये रहना होता है. मार्च के बाद जब बर्फ पिघलनी शुरू होती है तो गांव जागते हैं और शुरू होती है खेतों में हलचल. अप्रैल-मई में यहां गेहूं बोया जाता है जो अगस्त में पकता है. एक ही फसल होती है जिसमें मनुष्य और पशु, दोनों के लिये ही साल भर की व्यवस्था करनी होती है.

बर्फ के पिघलने के यहां दो अर्थ हैं. पहला, मनुष्यों के लिये फसल और पशुओं के लिये ताजे चारे की उम्मीद, वहीं दूसरी ओर सीमा पार से चीन के पशुपालकों और उनके पीछे लाल सेना की घुसपैठ. चीनी चरवाहे भारतीय चरागाहों में घुस कर अपनी भेड़-बकरियों को चराते हैं और भारतीय ग्रामीणों द्वारा रोकने पर उन्हें धमकाते भी हैं. चीनी सेना का इन्हें संरक्षण प्राप्त होता है. चीनी सैनिक अपनी मर्जी से आते हैं और अपनी शर्तों पर वापस जाते हैं. संघर्ष टालने के नाम पर भारत की ओर से आम तौर पर प्रतिरोध नहीं किया जाता.

चीनी चरवाहों द्वारा भारतीय चरागाहों पर लगातार हो रहे कब्जे का मतलब इन भोले-भाले ग्रामीणों के लिये राजनीति नहीं, विदेश नीति नहीं, सीमा विवाद भी नहीं. उनके लिये तो यह अर्थशास्त्र है, समाजशास्त्र है. इन ग्रामीणों की पीड़ा को तो मान, मराक, स्पांगमिक या चुशूल गांवों के निवासियों की जगह अपने को रख कर सोचा जाये, तभी महसूस किया जा सकता है. जिन चरागाहों पर पीढ़ी-दर-पीढ़ी वे अपनी भेड़-बकरियां चराते रहे हैं, आज उन पर चीन का कब्जा है और निगाह के सामने चरागाह होते हुए भी उनके पशु भूख से तड़प कर जान दे रहे हैं. पशुओं का मरना उनके लिये किसी त्रासदी से कम नहीं है क्योंकि वही उनकी आजीविका का एकमात्र स्रोत हैं. वे जानते हैं कि जिनके पशु भूख से मरते हैं, उनका खुद का भविष्य भी ‘भूख’ ही है. नतीजा यह है कि दस साल पहले जिनके पास हजार भेड़ें थी, आज दो सौ से भी कम हैं.

पुरानी पीढ़ी, संतोष ही जिनकी पूंजी है, ‘जाहि बिधि राखे राम ताहि बिधि रहिये’ की तर्ज पर सोचती है. लेकिन कहीं न कहीं एक दबी हुई वेदना है जो अगली पीढ़ी को इस पीड़ा की विरासत सौंपने से रोकती है और वह अपनी बकरियां बेच कर बच्चों को पढ़ने के लिये चंड़ीगढ़ या दिल्ली भेज देता है. उनके लिये यह ‘भारत’ है. यह कुछ अलग है, थोड़ा पराया सा है, पर जैसा भी है, यहीं ठौर मिलता है. इसलिये अपने गांवों को छोड़कर लोग अनजान भविष्य की तलाश में चल पड़ते हैं.

सिंधु के तट पर उपजी संस्कृति के वाहक जब मैदानों में उतर आये तो सिंधु से अपना रिश्ता ही तोड़ बैठे. आज स्कूलों में बच्चों को सिंधु घाटी सभ्यता के अवशेषों के खुदाई में मिलने की बात पाठ्यक्रम में इस तरह पढ़ाई जाती है जैसे वह भी यूनान, मिस्र और रोम की विनष्ट सभ्यता हो, पर यह नहीं बताया जाता कि सिंधु आज भी भारत में बहती है और उसके तट पर आज भी हमारे अपने बंधु रहते हैं, जिनसे हमारे सैकड़ों पीढ़ी पुराने खून के रिश्ते हैं. भारत उनको अपना लगे, इसके लिये सदियों से कोई पहल भारत ने नहीं की, आजाद भारत में भी नहीं. प्रगति मैदान में होने वाले तमाशों में उनका नाम ले लेने भर से सरकार अपने कर्तव्य को पूरा मानती है.
लेकिन तस्वीर का दूसरा पहलू भी है. भारत में जो लोग अपने आप को अजनबी पाते हैं, पड़ोसी देशों की नजर में उनके गांव ही ‘भारत’ है. हिमालय के अनंत विस्तार में पसरी निर्जनता हिन्दुस्तान नहीं हो सकती. हिन्दुस्तान वहीं है, जहां अपने आप को भारतीय कहने वाले लोग बसते हैं. इसलिये ही यह लोग और यह गांव पाकिस्तान और चीन की नजर में खटकते हैं. सीमा पर भारत की उपस्थिति के प्रतीक यह गांव जब तक मौजूद हैं, तभी तक वह भू-भाग भारत है. सिंधु की लहरों को स्पर्श करके आने वाली हवा से जब फसल हिलोरती है तो उसमें किसान को गेंहू की बाली झूमती दिखती है. किन्तु चीन और पाकिस्तान को उन्हीं बालियों में तिरंगा लहराता नजर आता है.

स्वतंत्रता के इस सातवें दशक में भी उस क्षेत्र में सड़क, बिजली, पानी, स्कूल, अस्पताल जैसी बुनियादी सुविधाएं नहीं पहुंच सकी हैं. आजीविका के परंपरागत साधन भी सिमटते जा रहे हैं. ऐसी स्थिति में पलायन स्वाभाविक है. चीन और पाकिस्तान भी चाहते हैं कि यह पलायन तेज हो ताकि वे भारत में और गहरे तक अपनी पहुंच बना सकें. लेकिन स्थानीय आबादी के इस पलायन की तुलना यूपी-बिहार से दिल्ली आने वाले लोगों से नहीं की जा सकती. यह सीमांत से ‘भारत’ का पलायन है. इसे रोकना ही होगा. जिन सुविधाओं के लिये वे अपने गांव-खेत छोड़ने को मजबूर होते हैं, वे सुविधाएं उन्हें तुरंत पहुंचानी होंगी. इनर लाइन परमिट जैसी निरर्थक व्यवस्थाएं समाप्त करनी होंगी ताकि लोगों के बीच संवाद स्थापित हो सके. इसके लिये सत्ता प्रतिष्ठान को पहले स्वयं यह स्वीकार करना होगा कि सीमा पर रहने वाले यह भारतीय किसान ही नहीं, हिन्दुस्तान की पहचान भी हैं.

आशुतोष भटनागर  (लेखक वरिष्ठ स्तंभकार एवं जम्मू कश्मीर अध्ययन केंद्र के सचिव हैं)
साभार:: vskbharat.com
 

गुरुवार, 26 मार्च 2015

हिन्दू कुटुम्ब को जाना, तो देश की जड़ों को जान लिया' - पद्मश्री भालचंद्र नेमाडे


'हिन्दू कुटुम्ब को जाना, तो देश की जड़ों को जान लिया'


2014 के ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित प्रसिद्ध मराठी लेखक, पद्मश्री भालचंद्र नेमाडे मराठी साहित्य का एक ऐसा नाम है, जिसने अपनी लेखनी से साठ के दशक की धारा ही बदल दी। मराठी साहित्य में तीन पीढि़यों के पाठकों का सर्वाधिक प्यार पाने वाले नेमाडे मातृभाषा के मुखर पैरोकार हैं। 

वह जड़ों पर विश्वास रखते हैं और अपनी खरी बातों के लिए जाने जाते हैं। शिक्षा और भाषा, पाठ्यक्रम में इतिहास के विकृतीकरण, इस देश की सांस्कृतिक पहचान और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा द्वारा पारित मातृभाषा में प्राथमिक शिक्षा के प्रस्ताव जैसे विभिन्न विषयों पर उनसे लंबी बात की पाञ्चजन्य के संपादक हितेश शंकर ने। प्रस्तुत हैं इस वार्ता केप्रमुख अंश।
 
- पुरानी शिक्षा पद्धति और नई विद्यालयी शिक्षा मेंसबसे ज्यादा चुभने वाली बात आपको क्या लगती है? या कहिए, आज के बाबा कोपोते की पढ़ाई में क्या बात सबसे ज्यादा खटकती है?
 
आज अंग्रेजी का प्रयोग ज्यादा होता है, यह मुझे बहुत खटकता है। वैसे, मेेरी पोतियां मराठीभाषी विद्यालयों में जाती हैं। मुझे यह अच्छा लगता है कि यहां सब विषय मराठी में पढ़ाये जाते हैं और पांचवीं के बाद अंग्रेजी सिर्फ एक विषय के रूप में रहती है। मैं इसे अच्छा समझता हूं और यह भी मानता हूं कि इसमें पढ़ने वालों की अंग्रेजी, अंग्रेजी माध्यम वालों से अच्छी रहती है।
 
-भूख लगने पर जिस भाषा में खाना मांगते हो, जिस भाषा में रोते हो, जिस भाषा मेंसोते हो, सपने देखते हो, उस भाषा में सोचोगे तो आगे तक जाओगे। इस बात मेंकितनी सचाई है?
 
बिल्कुल सही है यह। यही मानव जाति का इतिहास रहा है।लेकिन जो देश गुलाम रहे या दूसरे कुछ और उनमें ही परभाषा में शिक्षा होती है, बाकी कहीं भी ऐसा नहीं है। चीन, जापान और यूरोप में तो आज तक परभाषा में शिक्षा नहीं हुई। यह हमारे लिए एक सबक भी है कि दुनिया मंे सब बच्चे जब अपनी-अपनी भाषा में पढ़ रहे हैं तो हम क्यों परभाषा में पढ़ाएं। पूरे देश में यह जाल फैल रहा है। वैसे, बिहार और उत्तर प्रदेश से जो लोग महाराष्ट्र आते हैं उनकी हिन्दी अच्छी होती है और उन्हीं के कारण महाराष्ट्र मेंहिन्दी जीवित है। राष्ट्र के तौर पर यह अच्छी बात है।
 
-अंग्रेजी में बोलना, अंग्रेजी में सोचना श्रेष्ठता की बात समझी जाती है। श्रेष्ठ विचारसिर्फ अंग्रेजी में ही आते हैं या भारत का मानस ऐसा बनाया गया?
 
भारत मेंइस प्रकार का माहौल स्वतंत्रता के बाद बनाया गया। वैचारिक श्रेष्ठताअंग्रेजी के बिना संभव नहीं यह धारणा मेरी राय में पूरी तरह गलत है। हमारेबच्चों के समय भी अंग्रेजी के प्रति झुकाव था लेकिन आज(पोते) के समय यहमाहौल अधिक हो गया है।
 
-अंग्रेजी का यह बढ़ता प्रभुत्व आपकी राय में क्या करने वाला है? खतरा क्या है?
 
यहबहुत खतरनाक और आक्रामक है। आज अंग्रेजी का वैश्विक स्वरूप राक्षसी है अन्य भाषाओं और विविधताओं को निगलने वाला अंग्रेजी व्याकरण या ताना-बानाबहुत ज्यादा डरावना है। आस्टे्रलिया में 6 सौ के लगभग भाषाएं थीं लेकिन अबयह 30-35 ही बची हैं और यह शायद अगले पचास साल बाद लुप्त हो जाएंगी।इंग्लैंड में सौ साल पहले विभिन्न प्रकार की 6-7 भाषाएं थीं इन सबको अंग्रेजी ने तबाह कर दिया। स्कॉटिश नहीं बोली जाती, गेलिक नहीं बोली जाती, मैंक्स बंद हो गई। उत्तर पश्चिम यूरोप में केल्टिक बंद हो गई। अभी वेल्श कोकुछ लोगों ने बचा रखा है। अंग्रेजी की बजाय मातृभाषा का प्रयोग करने केलिए डटना ही इससे मुकाबला करने का अकेला तरीका है। आयरलैंडवासियों ने भीआइरिश शुरू कर दी है। कनाडा और अमरीका मेंें कोई 200 भाषाएं थीं इनमें महज 38 ही बची हैं। अब इनमें कोई 4-5 ही बची होंगी। यह स्थिति भारत में होने काडर है इसलिए अंग्रेजी खतरनाक है। भारत में, इसके अलग-अलग प्रांतों में यहअपनी-अपनी मातृभाषा के पक्ष में खड़े होने का वक्त है।
 
- आप दुनिया घूमे हैं, पढ़े हैं। दुनिया को समझा है, पढ़ाया है। लेकिन एक लेखक के रूपमें अपने विशाल देश को जानने के आपके स्रोत क्या हैं?
 
देश कितना भी बड़ाहो लेकिन अगर आपने हिन्दू कुटुम्ब को जाना है तो देश की जड़ों को जान लियाहै। क्योंकि पूरे शरीर के विषय में जानने के लिए एक कोशिका बहुत है। हमेंबड़ा गर्व है कि हमारे देश के हर गांव में, हर कुटुम्ब में किसी भी घर मेंया किसी भी राज्य में असम हो या फिर कश्मीर में या अन्य कहीं भी जो संस्कार एक घर में मिलेगा वही दूसरे घर में भी मिलेगा। तो किसी चीज को समझने केलिए हमें बाहर जाने की कोई आवश्यकता नहीं है। हमारे दिमाग के विकास में विविधता का बड़ा ही योगदान है। अनेक प्रकार की अलग-अलग चीजों को ग्रहण करनेसे हमारा विकास हुआ है। तरह-तरह का अनाज, अलग-अलग मौसम, भिन्न-भिन्न सब्जियां, हम इस विविधता के साथ बड़े हुए लोग हैं। यह इस राष्ट्र का मूल, इसकी हिन्दू संस्कृति है। यहां चीजों का अंबार है, कुछ भी बेकार नहीं।लेकिन आज चीजें कुछ बदल रही हैं। हम कुछ ही चीजों पर निर्भर होने लगे हैं।यह एकपक्षीय सोच, एक तरह का खाना-पहनना। यह इस भूमि के विविधता संजोने केस्वभाव के विरुद्ध है।
 
-जैसा कि आपने कहा कि अंग्रेजी की एक राक्षसीप्रवृत्ति है। आस्ट्रेलिया में 300 वनवासी भाषाएं थीं जो अंग्रेजी चट करगई, वैसे ही हमारे पूर्वोत्तर के वनवासी क्षेत्रों में अनेक उनकी अपनीरीति-नीति व सांस्कृतिक परम्पराएं भी थीं। लेकिन उन क्षेत्रों में अंग्रेजीकी वर्णमाला सिखाना और साथ में एक मजहबी किताब पढ़ाना। इससे वनवासी औरजनजातीय समाज अपनी परंपराओं और रीति-नीति से दूर हुआ। इसे आप किस प्रकार देखते हैं।
 
मैंने कई बार मुखर होकर कहा है कि पूर्वोत्तर के लोगों को उनकी ही भाषा में प्राथमिक शिक्षा मिलनी चाहिए। रही बात अंग्रेजी के साथ ईसाईकरण की, तो जो लोग सेवा की आड़ में कुछ और कर रहे हंै, उस पर रोक लगनी चाहिए। क्योंकि ये दोनों साथ नहीं हो सकते।
 
-मदर टेरेसा ने स्वयं टाइमपत्रिका से बात करते हुए कहा था कि मैं प्रेम से ईसाईकरण करती हूं। उनकी ऐसी 'सेवा' पर भारत ही नहीं विश्व में भी सवाल उठे। तो ऐसी सेवा को आप क्या मानते हैं? साहित्यकार के तौर पर आपको क्या लगता है कि इस चुनौती से कैसेनिपटा जा सकता है?
 
सेवा करना अच्छी बात है। यीशू ने कहा कि सेवा करो, कि यह कहा कि सबको कन्वर्ट करो। अगर इस प्रकार का कुछ हो रहा है तो कहीं नकहीं इसके पीछे कुछ हमारी अपनी भी कमजोरी है। अगर समाज को मिशनरियों के चंगुल से बचाना है तो लोगों को इसके विषय में जागरूक करना होगा। यही इसकाएक उपाय है। आज यह बहुत जरूरी है। हमारी प्राथमिक शिक्षा में इस प्रकार कीचीजों को जोड़ना चाहिए और बच्चों के माता-पिता को समझना चाहिए कि मिशनरियोंकी शिक्षा और भारत की शिक्षा में बड़ा अंतर है। इस कार्य को करते ही दूधका दूध और पानी का पानी हो जायेगा।
 
-आपके अनुसार भिन्नता में एकता केलिए स्थान की संस्कृति कहीं है तो भारत में है। ऐसे में आईएसआईएस या ईसाईकरण की खबरें, लोगों को एक रंग में रंगने की सनक को आप कैसे देखते हैं?
 
यह हमारी हिन्दू व्यवस्था के लिए खतरनाक बात है कि हम एक कुछ माने। हमने कभीएक चीज, एक देवता,एक ग्रन्थ नहीं माना। तो हमारे लिए यह गलत है और इसप्रकार की चीजों को समर्थन तो दूर, हम सहन भी नहीं कर सकते। क्योंकि हम विविधताओं को मानने वाले हैं और इसको आज तक भलीभांति संभलाते आ रहे हैं जिससे आजतक इसका संतुलन स्थापित है।
 
-आपने कहा कि गलत चीजों को हम सहननहीं कर सकते। परन्तु हिन्दू के बारे में एक पर्याय शब्द गढ़ा गया किहिन्दू सब सहन कर सकता है, सहिष्णु है। कुछ भी कहो या करो यह सहन करता रहेगा?
 
यह हमारी कमजोरी है। गुप्तकाल तक हिन्दू सशक्त था और इसका कोई भीकुछ बिगाड़ने वाला नहीं था। उसके बाद हिन्दू जात-पात में बंटा और बंटताचला गया। हमने उन हिन्दुओं को अंगीकार नहीं किया जो जबरन या किसी विघटनकारीपरिस्थिति के चलते हिन्दू समाज से दूर हुए थे। यह बहुत बड़ी गलती रही। जिसप्रकार शिवाजी महाराज खुलेआम जो हिन्दू किसी कारणवश किसी अन्य मत-पंथ मेंचले जाते थे, लेकिन सुध आने पर जैसे ही वे घर वापसी करते थे शिवाजी उनकोउसी सम्मान के साथ वापस लाते थे। लेकिन उनके बाद यह बंद हो गया। इससे हमकमजोर हुए। सहोदर घर लौटते हैं तो उन्हें हमें सम्मान देना चाहिए। अस्वीकारऔर तिरस्कार की सामाजिक बेडि़यां तोड़नी चाहिएं।
 
-यदि कहा जाये कि मातृभूमि की शक्ति मातृभाषा है। इस तर्क के आप पक्षधर हैं?
 
बिल्कुल पक्षधर हूं। ऐसा ही है।
 
-क्या विविधताओं वाले इस देश में शिक्षा की भाषा और पाठ्यक्रम एक जैसा होना चाहिए? आप क्या कहते हैं?
 
मेरामानना है कि अपने-अपने प्रदेशों के मुताबिक पाठ्यक्रम होना चाहिए। अगर आपगोवा के निवासी हैं तो पुर्तगाली और उत्तर हिन्दुस्थानी हों तो मंगोलों केविषय में पता होना चाहिए कि यह कैसे आए, फिर यहां कैसे किन तरीकों काप्रयोग करके लोगों को ईसाई बनाया गया, यह सब इस राज्य के लोगों को पढ़ायाजाना चाहिए। ऐसे ही अलग-अलग राज्यों का जो इतिहास, भूगोल है उसे पढ़ायाजाना चाहिए। आज के पाठ्यक्रम में जो होना चाहिए वह होता ही नहीं है। इसकीबजाय जो निरर्थक होता है वह प्रमुखता से पढ़ाया जाता है। जैसे, इंग्लैंडमें संसद कैसे चलती है, हिटलर ने क्या किया... यह हमारे लिए काम की बातनहीं हैं। काम की बातें यह हैं कि हमारे देश के अच्छे-अच्छे लोगों ने क्याकिया। यह पाठ्यक्रमों में पढ़ाना चाहिए।
 
-एक राय यह भी है कि कुछतथाकथित शिक्षाविदों ने हमारे इतिहास को ग्लानिपूर्ण बनाने का प्रयास किया।वे हमेशा बाहर की शिक्षा, बाहर की बोली, बाहर की चीजों से आकृष्ट हुए।उन्होंने यहां के विषय में एक हीनता का भाव दर्शाया। आपको लगता है ऐसा कुछहुआ है?
 
स्पष्ट कहें तो प्राथमिक स्तर से लेकर उच्च स्तर तक जो भी इतिहास पढ़ाया जाता है वह पूरी तरह से झूठा लिखा हुआ लगता है। इसमें सच नके बराबर है। इसलिए क्योंकि इनके जो स्रोत हैं वह एक तो बाहरी होते हैं, उन्हें यहां की समझ नहीं होती है। आपने जिसके बारे में भी लिखा है वह भाषाभी आपको आनी ही चाहिए। पर ऐसा कम ही होता है। इसलिए हमारे यहां इतिहास गलतहै और यही पढ़ाया जाता रहा है।
 
-आपको कभी लगा कि इसमें भी राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी रही?
 
राजनीतिकइच्छाशक्ति की बहुत कमी है। हमारे यहां। सबसे गलत बात है कि आज तक हम एकभाषा नहीं कर सके। संस्कृत इतनी उत्कृष्ट और बड़ी भाषा थी वह भी लगभगसमाप्त होने पर आ गई है। दूसरी जो राष्ट्रभाषा चाहिए थी वह भी हम नहीं लासके। इसी कारण अंग्रेजी बढ़ रही है। यही प्रमुख विफलता है।
 
-संस्कृति केबारे में कुछ लोग आत्ममुग्धता की स्थिति तक जाते हैं और कुछ इसे सिरे सेखारिज करते हैं। जब आप जड़ों तक जाते हैं तो किन्हें आक्रान्ता गिनते हैं?
 
हमइतिहास देखें तो पाते हैं कि यहां आक्रमण होते आए हैं। ग्रीक, शक, पुर्तगाली, मुगल, अंग्रेज यह सब आक्रान्ता ही थे। और जो भी ऐसे लोग यहां आएउनका मूल्यांकन कर ही उन्हें जाना जा सकता है कि इन लोगों ने यहां क्याकिया। अधिकतर आक्रान्ताओं ने यहां आकर लोगों को बांटा और दिग्भ्रमित किया।हमारे यहां अधिक नुकसान अंग्रेजों ने किया। यहां उन्होंने जात-पात मेंबांटना शुरू कर दिया। हमारे यहां जो मुसलमान भी हुए वे पहले खुद को मुसलमाननहीं कहते थे। वह अपने को पंजाबी, खटीक, जुलाहा कहते थे। उनसे पूछा जाताथा कि आप का पंथ क्या है तो उन्हें इसके बारे में कुछ पता ही नहीं होता था।धर्म को पहले कर्म से जोड़ते थे, जैसे- यह काम पिता का नहीं है, बच्चे कानही है। अलग होने पर भी खुद को एक मानने के कारण हम अखंड रहे।
 
- आपातकाल के बाद संविधान में शब्द जोड़ा गया सेकुलरिज्म। इस शब्द ने कितना नुकसान किया इस देश का?
 
मैंसेकुलर शब्द, इसकी व्याख्या और विचार के बहुत ही खिलाफ हूं। मैं इसका मतलबही नहीं समझता। इस संस्कृति में मैं पहले से जैसा था मुझे वैसा ही रहनाचाहिए। बुद्धिजीवियों से आग्रह है कि हमें विदेशी शब्द मत ओढ़ाइए, बांटनेवाले अर्थ मत समझाइए।
 
-यानी, जिन्होंने यह शब्द गढ़ा, उन्होंने इसे किसी खास मंतव्य से गढ़ा?
 
ये कम बुद्धि के लोग थे। ऐसे लोगों ने इंग्लैंड में जो शिक्षा पाई और वहां केलोगों के विषय में पढ़ा तो उन्हें लगा कि यह बड़े लोग हैं। लेकिन जो इंग्लैंड गए उन्हें यह पता ही नहीं था कि हमारे यहां कपिल, पतंजलि, पाणिनी और कणाद ऋषि भी हुए हैं। जिस मैकाले की बात वे करते हैं उसे खुद उसके हीदेश में पागल तक कहा गया। भारत में ऐसी गलत शिक्षा लाने का काम ईस्ट इंडिया कंपनी का रहा और उसने यहां शिक्षा में जो चाहा वह भरा। जबकि हमारे यहां सभी विषयों की शिक्षाओं का उच्च से उच्च भंडार है।
 
- आपने कहा कि पीछे जाएं तो भारतीय ज्ञान का खजाना खुलता है। पिछले दिनों दिल्ली में विश्व वेद सम्मेलन हुआ जहां यह बात हुई भी। किन्तु मीडिया के एक हिस्से में इस कार्यक्रम की खिल्ली उड़ायी गई?
 
मैं ऐसे मीडिया द्वारा परोसी गईचीजों को पढ़ता ही नहीं हूं, यही उनको मेरा जवाब है। मैंने कहा कि अंग्रेजी माध्यम के विद्यालय बंद करने चाहिएं तो कुछ ने कहा कि ये अंग्रेजी को हटाना चाहते हैं। पर मैंने ऐसा नहीं कहा। हमने कहा कि माध्यम मातृभाषा ही हो। लेकिन जानबूझकर यह मीडिया उन चीजों को बढ़ाता है क्योंकि उनके लिए अंग्रेजी ही पेट भरने का साधन है।
 
-हाल में नागपुर में हुई रा.स्व.संघकी अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा ने प्रस्ताव पारित किया है कि प्राथमिक शिक्षा मातृ भाषा में हो। आपका क्या कहना है?
 
यह बहुत ही अच्छी और आनन्द की बात है। मैं रा.स्व. संघ के इस प्रस्ताव का पूरा समर्थन करता हूं। संभव हुआ तो मैं इसका प्रचार भी करूंगा, जबकि यह मेरा काम नहीं है। इस प्रस्ताव को सभी जगह लागू करना चाहिए। इससे जो नई पीढ़ी आ रही है उसका दिमाग अच्छा होगा क्योंकि इससे देश की व्यवस्था बचेगी।
 
-आपकी राय में इस देश को एकसूत्र में बांधने वाली बात क्या है? आपने अपनी पुस्तक का शीर्षक हिन्दू ही क्यों सोचा?
 
हमारी हिन्दू संस्कृति ही सबको एक रख सकती है। क्योंकि यही एक संस्कृति है जो सर्वसमावेशक है और किसी में भेद नहीं करती जो भी संस्कृति यहां है उसे मैं हिन्दू समझता हूं। यहां सब लोग हिन्दू ही हैं। मुसलमान भी खुद को हिन्दू समझते हैं। अकबर, औरंगजेब आदि भी अपने को हिन्दू ही समझते थे।हिन्दू-मुसलमान के बीच जो खाई आयी उसके सूत्रधार अंग्रेज हैं।
 
-विश्व में एक नई खिलाफत की स्थापना, आईएसआईएस का बढ़ता प्रभाव इन सब को आप कैसे देखते हैं?
 
जिन लोगों ने उन्हें पाला है उन्हें खामियाजा भुगतना होगा। मैं नहीं समझता कि यह वैश्विक समस्या है। हमारे यहां इस तरीके की हिंसा की जगह नहीं है। अगर इस प्रकार का कुछ होता है तो हमारे यहां प्रतिकार भी होता है। हां यह अलग बात है हम ही उनके आने का वातावरण तैयार करें तो फिर अलग बात है। यहां अच्छी चीजें ज्यादा हैं इसलिए यहां गलत चीजें नहीं बढ़ेंगी।
 
- आज भूमण्डलीकरण की बात होती है, आप देशीकरण की बात करते हैं। लोग कहेंगे कि क्या पुराने जमाने की बात कर रहे हैं?
 
जितना भी भूमण्डलीकरण हो जाए उसमें भी आपका एक गांव का बाजार, दुकान रहेगा। यही हमारे लिए बहुत होगा क्योंकि हम बाहरी दुकानों का क्या करेंगे? अपना संभालना और आगे बढ़ाना जरूरी है। साहित्य का भी देशीकरण हो। हम दूसरी शताब्दी से ही नॉवेल लिख रहे हैं। हम लोगों की स्मृतियां सदियों से लिख रहे हैं। लेकिन दु:ख इस बात का है कि फ्रांस, जर्मनी में अच्छी नॉवेल आई, अमरीका में आई और भी अन्य देशों मंे नॉवेल आई पर भारत में एक भी अच्छी नहीं आईं। फणीश्वरनाथ रेणु, प्रेमचंद को छोड़ दें तो और इस बारे में कुछ अधिक नहीं आया।
 
-हिन्दी द्वारा अन्य भारतीय भाषाओं के शब्दों को अपनाने में संकोच और क्लिष्ट शब्दों से चिपके रहने की शुद्धतावादी बहस को आप कैसे देखते हैं?
 
इसने बड़ा नुकसान किया। स्वतंत्रता के बाद हिन्दी ही हमारी राष्ट्रभाषा होनी चाहिए थी। हमारी सभी राज्यों की भाषाएं अंदर से एक ही हैं।
 
-अभी अंग्रेजी के विषय में कहते हैं कि यह बाजार के हिसाब से चलतीहै। पढ़ने वाले सीमित हैं। परन्तु हिन्दी पट्टी और बाकी सब में पढ़ने की गुंजाइश बढ़ रही है। आपको लगता है कि बाकी भाषाओं में जो विपुल साहित्य रचागया है उसको हिन्दी के जरिये मुख्य धारा में आना चाहिए?
 
बिल्कुल आना चाहिए। यह बहुत ही आसान है। हिन्दी तो हर स्थान पर पढ़ी जाती है। हिन्दी तो एक तरीके से वैश्विक भाषा है और लोगों के लिए यह अजब नहीं है। हिन्दी में साहित्य आए और समाज जुड़े तो यह सेकुलरिज्म से बहुत बड़ा काम हो सकता है। जो संस्कृत के बाद हमारी परंपरा खंडित हुई है उसे हिन्दी ही अखंड कर सकती है।
 
-हिन्दू संस्कृति का प्रसार अगर होता है तो क्या सेकुलरिज्म के मुकाबले यह ज्यादा फायदेमंद होगा?
 
हां बिलकुल यह फायदेमंद होगा और यह हमारे इतिहास और लोगों के लिए भी अच्छा होगा।


साभार: पाञ्चजन्य

बुधवार, 25 मार्च 2015

अपनी बात :सहमत हो तो आगे बढ़ो


- हितेश शंकर 



नीति-निर्माताओं, बुद्धिजीवियों और पत्रकारों में कई बातें साझी होती हैं। यह शक्ति-केंद्र के करीब सदा चलने वाली ऐसी रस्साकशी है जहां पाले बंटे होने पर भी रस्सी एक को दूसरे से जोड़ती है। विकर्षण में भी एक आकर्षण है।

कुछ ऐसे रुझान हैं जो साझे हैं, किन्तु समय के साथ बदलते हैं। जैसे पहनावा। जहां पहले नेहरू जैकेट की ठसक थी वहां अब मोदी कुर्ते की ललक है। जैसे किताबें। जहां पहले समाजवादी पोथियां या 'दास कैपिटल' सजी थीं वहां अब एकात्म मानव दर्शन को बूझने की बेचैनी है। लेकिन, कुछ साझा चीजें शाश्वत हैं। ये समय बदलने पर भी नहीं बदलतीं। जैसे मंच, या फिर एक से मुहावरे। समय बदलता रहे, मंच और मुहावरों की साझेदारी इन बिरादरियों को एक करती है। 

भारत विविधताओं का देश है, यह ऐसा ही एक मुहावरा है। मंच कोई भी हो, यह मुहावरा खूब चलता है। लेकिन क्या सिर्फ 'चलना' काफी है! पोशाक हो या पुस्तक, लोगों के लिए सिर्फ चलन के करीब दिखना क्या काफी है? पुस्तक सिर्फ अलमारी या मेज पर सजी रहे तो एकात्म मानववाद मन में नहीं उतरेगा। यह देश विविधताओं की
भूमि है, यह बात मंच पर निकली मगर मन से नहीं फूटी तो तालियां मिलने पर भी भाव खाली ही होगा। यह शून्य कौन भरेगा? अंतर कैसे पाटा जाएगा? 

क्या सत्ता-केंद्र के ईद-गिर्द विमर्श और साझेपन की कोई धुरी नहीं होनी चाहिए? यह फौरी चलन और रुझान से परे की बात है, ऐसे विचार पर टिके रहने की बात जिस पर टिका रहना हम सब के लिए जरूरी है। नीति-नियंता, बुद्धिजीवी और मीडिया यदि किन्हीं बातों पर एकमत हैं तो उन्हें साकार रूप क्यों नहीं लेना चाहिए? भारत विविधताओं का देश है और इस बात पर सब एकमत हैं तो इस विविधता को सहेजने के लिए क्या कर रहे हैं? मानवता को एक सूत्र में पिरोने वाली इस संस्कृति को बल देने के लिए क्या कर रहे हैं? 

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की प्रतिनिधि सभा से निकले प्रस्ताव इस मायने में सभी को जगाने वाले हैं। यह प्रस्ताव अंतरराष्ट्ीय योग दिवस की घोषणा के स्वागत और मातृभाषा अथवा संविधानसम्मत भारतीय भाषाओं में प्राथमिक शिक्षा दिए जाने से जुड़े हैं। इन प्रस्तावों में देश के वैविध्य को पुष्ट करने की शक्ति है। साथ ही मानवता
को एकरस करने वाली सांस्कृतिक जीवन शैली के सम्मान का भाव भी है।

योग सिर्फ योगासन या कसरत नहीं, योग का अर्थ है जोड़ना। आज यदि दुनिया भारत की सांस्कृतिक जीवन शैली को सम्मान दे रही है तो यह बात किस भारतीय को बुरी लगेगी? कौन इस विचार की स्वीकार्यता पर सहमत नहीं होगा? जब सब सहमत हैं तो विरोध कैसा? क्या यह योग के पक्ष में और जोर-शोर से उठ खड़े होने का वक्त
नहीं? इस बात को बढ़ना ही चाहिए।

इस विविधता भरे देश में अभी हमारे बच्चों की प्राथमिक शिक्षा की भाषा कौन सी है? उनकी लाड़-लड़ाई की भाषा, गिनती-पहाड़े में मजा देने वाली भाषा, जगते में रोने और सोते में सपनों की भाषा कौन सी है? मासूम मनों पर कोई बोझ तो नहीं है? अगर है तो इस बोझ को कौन हटाएगा? उडि़या, असमिया, मराठी, मलयाली, पंजाबी, बंगाली, तमिल, तेलुगू... इन भाषाओं को कौन बचाएगा? इस देश की विविधता को कैसे सहेजा जाएगा?

क्या यह मातृभाषा में शिक्षा के पक्ष में, भारतीय भाषाओं के पक्ष में उठ खड़े होने का समय नहीं है? दुनिया भर के शोध-अध्ययन इस बात पर एकमत हैं। हमारे अपने शिक्षाविद् लंबे समय से यह मांग उठाते रहे हैं। खुद गांधी
और टैगोर इस विचार के पोषक रहे हैं। सबने कहा है, फिर सहमति में कहां कसर है? इस बात को बढ़ना ही चाहिए।

राजनीति नचाती है, ठीक। लेकिन सत्ता का लट्टू भुरभुरी जमीन पर नहीं चल सकता। वैचारिक दृढ़ता राजनीति को ठोस आधार देती है। भारत और भारतीयता से जुड़े ऐसे विषयों पर, जिन पर दो राय हैं ही नहीं, वहां भी करीब सात दशक से वैचारिक कच्चापन-अनमनापन रहा है। यह बात खलती है। जहां-जहां विवाद नहीं वहां-वहां विस्तार क्यों नहीं होना चाहिए? 

राजनेता, बुद्धिजीवी और मीडिया जिन मुद्दों पर एकमत हैं, यह उन मुद्दों पर आगे बढ़ने का वक्त है। अगर हम भारतीय एकमत हैं तो यह भारत और भारतीयता का वक्त है। 
स्त्रोत: सम्पादकीय , पाञ्चजन्य ,

मंगलवार, 24 मार्च 2015

सीमाजन कल्याण समिति की जिला बैठक संपन्न कार्यकर्ता-निर्माण और मंडलों के विस्तार पर चर्चा

सीमाजन कल्याण समिति की जिला बैठक संपन्न
कार्यकर्ता-निर्माण और मंडलों के विस्तार पर चर्चा

जैसलमेर । सीमाजन कल्याण समिति के प्रदेश संगठन मंत्री नीम्बसिंह ने कहा कि जैसलमेर जिले का सीमावर्ती क्षेत्र विशाल है। यहां की समस्याएं भी अनेक हैं। परिस्थितियां विकट हैं इसलिए कार्यकर्ता कार्य की गति और बढ़ाएं। तहसील इकाइयां अत्यधिक मंडलों तक अपने कार्य क्षेत्र का विकास करें। वह स्थानीय सीमाजन छात्रावास में आयोजित समिति की जिला बैठक को सम्बोधित कर रहे थे। इस अवसर पर जिला और तहसील कार्यकारिणी के पदाधिकारी उपस्थित थे।

सीमाजन कल्याण समिति के जिला मंत्री शरद व्यास ने बताया कि बैठक में तहसील व मंडल कार्यकारिणी के अभ्यास वर्ग आयोजित करवाने का निर्णय लिया गया ताकि कार्यकर्ताओं का निर्माण हो सके। जिले के शक्ति केन्द्रों पर समिति के स्थापना दिवस के अवसर पर विभिन्न कार्यक्रमों के आयोजन की रूपरेखा पर विचार विमर्श किया गया। इसके साथ ही फतेहगढ़ तहसील क्षेत्र के बड़े भू भाग को सेना के लिए अवाप्त करने की कार्यवाही से उत्पन्न जनाक्रोश और गो शिविरों की अवधि बढ़ाये जाने तथा जिम्मेदार नागरिक होने के नाते अपने क्षेत्र में घटित होने वाली संदिग्ध व अराष्ट्रीय गतिविधियों पर दृष्टि रखकर प्रशासन व समिति के ध्यान में लाये जाने पर सहमति बनी।

जिलाध्यक्ष अलस गिरी ने सभी के प्रति धन्यवाद ज्ञापित करते हुए कहा कि सीमा पर समाज का पलायन रोकने के लिए गोवंश संरक्षण आवश्यक है। इस अवसर पर समिति के पदाधिकारी वीरेन्द्रसिंह बैरसियाला, भंवरूराम म्याजलार, माणक पालीवाल पोकरण, हमीरसिंह रामगढ़, सगताराम रामगढ़ आदि ने कार्य विस्तार के संबंध में सुझाव प्रस्तुत किये।

सोमवार, 23 मार्च 2015

सधे कदमों से निकला गुणवत्ता पथ संचलन

सधे कदमों से निकला गुणवत्ता पथ संचलन



बाड़मेर २२ मार्च २०१५ भारतीय नव वर्ष के उपलक्ष्य में  रविवार को सधे कदमों से गुणवत्ता पथ संचलन निकाला। सुबह 11 बजे जिले के कुछ विशेष प्रशिक्षित स्वयंसेवकों नें पूर्ण गणवेश में नगर के प्रमुख मार्गों से अपना संचलन निकाला। संचलन में घोष वाहिनी एवं ध्वज वाहिनी भी शामिल रही। 

पथ संचलन सुबह 11 बजे कदम से कदम मिलाते हुए हाई स्कूल के पास से रवाना होकर महिला महाविद्यालय, विश्वकर्मा सर्कल, पांच बत्ती चौराहा, तनसिंह सर्कल, सरदारपुरा संघ स्थान, सिटी कोतवाली, स्टेशन रोड, अहिंसा सर्कल, माल गोदाम रोड, गल्र्स स्कूल, तेलियों का मोहल्ला, राम द्वारा, हनुमान मंदिर, गांधी चौक से होता हुआ आदर्श विद्या मंदिर, जोशियों का निचला वास पहुंच समाप्त हुआ। भारत माता की जय और जय श्री राम जैसे देशभक्ति उद्घोषों से स्वयंसेवकों का उत्साहवर्धन किया गया। पथ संचलन के प्रमुख मार्गों पर समाज के गणमान्य नागरिकों एवं महिलाओं ने पुष्प वर्षा कर स्वागत किया। 

संचलन में 'मातृभूमि गान से गूंजता रहे गगन' का सामूहिक गान आकर्षण का केंद्र रहा।




विश्व संवाद केन्द्र जोधपुर द्वारा प्रकाशित