शुक्रवार, 27 फ़रवरी 2015

संघ प्रमुख का वह प्रेरक भाषण जो अनावश्यक विवाद का विषय बन गया'

राजस्थान के भरतपुर (बजहेरा गांव) में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत ने ‘परम सेवा गृह’ और ‘शिशु बाल गृह’ के लोकार्पण समारोह को सम्बोधित किया था। उन्होंने अपने भाषण में निस्वार्थ सेवा के ‘भारतीय सिद्धान्त की व्याख्या’ की है। पर संघ प्रमुख के इस भाषण के कुछ अंश को मीडिया द्वारा तोड़-मरोड़कर प्रस्तुत कर विवाद खड़ा किया जा रहा है।
सरसंघचालक डॉ. श्री मोहन भागवतजी का पूरा भाषण
आदरणीय भारद्वाज जी, उपस्थित सभी महानुभाव, माता, बंधु-भगिनी
वास्तव में वक्ताओं ने यहां पर जो कहा, उतना कहना ही काफी है। परंतु यहां बहुत सारे दानदाता बैठे हैं, बहुत सारे कार्यकर्ता बैठे हैं। वे सब लोग इस काम में अपना अपना योगदान कर रहे हैं। तो मेरा योगदान क्या है, मेरा  योगदान बोलना है। आजकल मैं यही काम करता हूं, और कुछ करता नहीं। मेरे पास इतना ही है, जितना है वह बता देता हूं। यहां भी एक तरह से मेरी यह एक सेवा ही मानिए, आप लोगों को और थोड़ी देर बिठाए रखने के लिए, आप लोगों को उपदेश देने के लिए नहीं बोल रहा हूं। अपने-अपने तरीके से सब लोग अपनी सेवा दे रहे हैं, मैं अपने तरीके से एक छोटी सी सेवा दे रहा हूं। क्योंकि जैसा आपने अभी अनुभव किया, यहां आकर जो देखेगा, वो सेवा करने वाला बन जाएगा। यहां सेवा का प्रत्यक्ष दर्शन होता है, सेवा की अपनी जो कल्पना है, उसका दर्शन होता है।
युधिष्ठर महाराज ने युद्ध जीतने के बाद राजसूय यज्ञ किया, यज्ञ में पूर्णाहुति होने के बाद वहां एक नेवला आ गया। और नेवला यज्ञ कुंड के आस पास की धुली में लोट-पोट होने लगा। उपस्थित लोगों ने देखा, उसका आधा शरीर सोने के था, नेवला वापिस जाने लगा तो युधिष्ठिर ने उससे पूछा, कि यहां क्यों आए थे? यहां लोट पोट होने का मतलब क्या है? और वापिस क्यों जा रहे हो?
नेवले ने कहा कि आपके यज्ञ से मुझे पुण्य लाभ होगा, ऐसा मुझे लगा, क्योंकि आप बड़े धर्मात्मा के नाते प्रसिद्ध हैं, लेकिन मैं निराश होकर वापिस जा रहा हूं। युधिष्ठिर ने पूछा मतलब क्या?
नेवले ने उत्तर दिया, देखो मेरा आधा अंग सोने का बन गया, यह कैसे बन गया। अकाल के दिनों में एक परिवार को खाने को सत्तू मिला, उसी समय परिवार के समक्ष अपना कुत्ता लेकर तथाकथित चांडाल आ गया। उसने खाने को मांगा, पहले गृहस्वामी ने अपना हिस्सा चांडाल को दे दिया, बाद में पत्नी, लड़के सभी ने अपना हिस्सा दे दिया। स्वयं भूखे रहे, फिर चांडाल ने पानी मांगा, पानी पी लिया, अपने कुत्ते को भी सब दिया, और वहां से चला गया। परिवार भूखा रहा, परिवार की भूख के कारण मृत्यु हो गई।
बाद में मैं वहां गया, और वहां की धूल में सना मेरा आधा शरीर सोने का हो गया, इतना उनका पुण्य था। मैंने सोचा आपके यज्ञ में भी उतना ही पुण्य होगा, लेकिन नहीं मिला।
वास्तव में नेवला युधिष्ठिर को यह बताने गया था कि अपनी सेवा पर गर्व मत करो, सेवा में अहंकार नहीं होता, किसी प्रकार से सेवा में अहंकार नहीं। दुनियादारी में सेवा करना हम लोग बहुत बड़ी बात मानते हैं, माननी भी चाहिए। और अनुकरण भी करना चाहिए। हम लोग मनुष्य के नाते जन्म लेते हैं, तो विकारों की गठरी भी साथ में मिलती है। दुनिया की चकाचौंध में खुद को भूलनेवाले हिंदू लोग भी मिलते हैं, इसके चलते बहुत लोग आते हैं और बिना सेवा किए चले जाते हैं, ऐसे जगत में सेवा करने वाले लोगों का सदा प्रोत्साहन करना चाहिए। लेकिन सेवा करने वाले क्या सोचते हैं, हमने सेवा की तो कौन सा बड़ा काम किया?
मनुष्य को मनुष्य क्यों कहते हैं, मनुष्य तो वह होता है जो अपने जीवन से दूसरों की सेवा करता है। पशु सेवा नहीं करता, पशु स्वयं के लिए सोचता है। भगवान ने उसको वैसी ही प्रकृति दी है। उसको जन्म मिलता है, तो वो सोचता नहीं उसको जन्म क्यों मिला, मुझे इस जन्म में क्या करना है? मेरी मौत अच्छी हो वो इसके लिए भी नहीं सोचता, वो सोचता है, उसे जन्म मिला है, जब तक मौत नही आती है, तब तक जीवित रहना है। तो अपने लिए खाता है, पशु सदा पशु रहता है, वो शैतान नहीं बनता और न ही वो भगवान बनता है। उसको जब भी भूख है, जहां से रोटी मिलेगी, वहां से खाएगा। अपमान मिले, मान मिले, दूसरों की छीननी पड़े, चोरी करनी पडें तो भी  वो खाएगा। भूख लगी है तो खाएगा और भूख नही है, तो देखेगा भी नहीं। बैल को जब तक भूख है, घास खाता है, उसके निकट दूसरे बैल को आने नहीं देता, उसका पेट भर गया, तो खाना छोड़ देता है और उसकी और देखता भी नहीं, उस घास को कौन खाता है, क्या होता है, उसकी चिंता नहीं।
भूख न होने पर वो कल के लिए भी नहीं सोचता है। जिस समय उसे भूख लगती है, तबके लिए वो सोचता है, कल के लिए नहीं सोचता है, कल मिलेगा या नहीं, इसकी भी चिंता नहीं।  पशु कभी राक्षस नहीं बनता, और न ही भगवान बनता, पशु कभी सेवा नहीं करता, दूसरों की सेवा भी थोड़ी बहुत अपने लिए करता है।
लेकिन मनुष्य के पास बुद्धि है। बुद्धि को स्वार्थ में लगाए तो राक्षस बन जाएगा और परोपकार में लगाए तो नारायण बन जाएगा। ये ताकत दी होने के कारण मनुष्यों के सामने अपनी करनी से नारायण बनने का मार्ग प्रशस्त करनेवाले काम जो-जो लोग करते हैं, उनकी हमें सराहना  करनी चाहिये तथा उनका सहयोग करना चाहिए। परंतु वो ऐसा नहीं सोचते है, वो कहते कि हम मनुष्य हैं तो हम यही करेंगे, पशु थोड़े ही हैं। हमको भगवान ने बुद्धि दी है भगवान बनने के लिये, हम बनेंगे। ये स्वाभाविक बात के लिए वो करते है। मनुष्य के हृदय का ये गुण है, संवेदना, करुणा, प्रेम है। उससे दूसरों का दुख नहीं देखा जाता। इसलिए राजा रंतीदेव से जब पूछा गया, क्या चाहिए? तो उसने कहा, ‘मुझे राज्य नहीं चाहिए, न स्वर्ग चाहिए, न मुक्ति चाहिए। दुख तप्त प्राणियों के दुख को दूर करने के लिए मुझे इसी लोक में जिंदा रखो।’
अकाल में रंतीदेव राजा, रानी, राजकुमार, राज कन्या थे, थोड़ा अन्न था। एक भिक्षु आ गया, उसने सारा मांगकर खा लिया। पानी पी लिया, राजा की आंख में आंसू देखे तो कहा कि तुमको बुरा लगता था तो क्यों दिया? राजा ने कहा कि बुरा आपके खाने का नहीं लगा, मेरे पास सब समाप्त हो गया और तुम अभी गए नहीं दरवाजे के सामने से, तुमको अभी अधिक आवश्यकता होगी और तुमने मांग लिया तो मेरे पास है नहीं कुछ देने के लिए, इसका दुख है।
इसी दौरान इंद्र देव प्रकट हो गए, और बोले तुम्हारी परीक्षा ली थी, जिसपर तुम पूरा उतरे। बोलो तुम्हें क्या चाहिए, कौन सा लोक चाहिए? इच्छानुसार तुम्हें जो पद चाहिए, वो मिलेगा। राजा ने कहा, भगवान ये सब नहीं चाहिए, दुख तप्त प्राणियों के दुख को दूर करने के लिए मुझे इसी लोक में जिंदा रखो, ले मत जाओ, जिंदगी ऐसी चाहिए, इसीलिये चाहिए।
अपने देश में अपनी करनी से नर नारायण बन सकता है। कैसे? सेवा के माध्यम से। निस्वार्थ सेवा। अपने यहां सेवा करनेवाला कृतज्ञ होता है। दूसरों के प्रति करुणा जगना यह मनुष्य का स्वाभाविक गुण है। दूसरों का दुःख देखा नहीं जाता, उस दुःख को दूर करना यह सेवा है। सेवा के पीछे भी कोई अन्य हेतु नहीं होना चाहिए। सरसंघचालक ने उदाहरण दिया कि “मदर टेरेसा की सेवा अच्छी रही होगी। परंतु इसमें एक उद्देश्य हुआ करता था कि जिसकी सेवा की जा रही है उसका ईसाई धर्म में धर्मांतरण किया जाए।” उन्होंने कहा, सवाल सिर्फ धर्मांतरण का नहीं है, लेकिन अगर यह सेवा के नाम पर किया जाता है, तो सेवा का मूल्य खत्म हो जाता है।
हमारे यहां तो ऐसा कुछ नहीं है, कुछ भी नहीं चाहिए। हमारे देश में सेवा ऐसे की जाती है, निरपेक्ष, पूर्ण निरपेक्ष। और उसमें भावना यह कि जिनकी सेवा की जाती है वह मानते होंगे कि सेवा करनेवाले के रूप में भगवान मिला। लेकिन सेवा करनेवाला कहता है कि सेवा का अवसर देकर मेरे जीवन को स्वच्छ करनेवाला भगवान मेरे सामने है। अहंकार भी नहीं है, मैं इनका उद्धार नहीं कर रहा हूं, पर ये मुझे सेवा का अवसर देकर मेरे जीवन का उद्धार करने के लिए एक सुविधा दे रहे हैं। एक साधन दे रहे हैं। समाज में ऐसी संवेदना जब हम एक दूसरे के प्रति रखते हैं। तो फिर उस समाज को कोई तोड़ नहीं सकता, उस समाज को कोई गुलाम नहीं कर सकता, उस समाज का सर्वथा दुनिया में भला ही होता है। अगर अपने देश के लोगों के बारे में कुछ षड्यंत्र चल रहे हैं, और हम अपने देश के होने के बावजूद कोई संवेदना नहीं, वहां जाएंगे नहीं तो फिर जो होना है, वो होता है। हां, जाने में कभी ताकत रहती है, कभी नहीं रहती है, कई बार जाने की परिस्थिति रहती है, नहीं रहती है, लेकिन क्या कारण रहा कि आप गए नहीं, परिस्थिति नहीं थी, लेकिन परिणाम तो वही आता है। आप समय पर पहुंचे तो अनर्थ टल गया, नहीं पहुंचे तो अनहोनी हो गई।
आग में हाथ आपने गलती से डाला या जानबूझकर डाला, यह आग नहीं सोचती। ऐसे ही संपूर्ण देश में अगर आज अपने देश के लोगों को कुछ दिखाना है, बाहर से लोग आएंगे, उन्हें यहां के बाशिंदे दिखाएंगे, स्थानीय नागरिक दिखाएंगे। लेकिन अपने देश के बालकों को क्या दिखाना है, देश का गौरव बढ़ानेवाले स्थल दिखाने हैं, देश का गौरव मन में उत्पन्न करनेवाले स्थल दिखाने हैं, और देश के प्रति अपना कर्तव्य का भाव जगानेवाले स्थान दिखाने हैं। आधुनिक समय में जहां जाने से देश के प्रति गौरव जगता है, जहां जाने से देश के प्रति कर्तव्य अपनी आंखों के सामने साफ होता है, ये दो स्थान वास्तविक तीर्थ स्थल हैं। ये बड़ा आनंद है, मैं पांच  दिन रहा हूं भरतपुर में, मुझे दोनों प्रकार के तीर्थ स्थलों का दर्शन करने का भाग्य प्राप्त हो गया। राणा सांगा के संग्राम स्थल पर गया था, महाराजा सूरजमल के राजमहल और किले का दर्शन किया, एक गौरव जागा। जिस वीरता के साथ और दृढ़ता के साथ हमने अपने देश की प्रकृति, संस्कृति को सुरक्षित रखने के लिये कुशलतापूर्वक, वीरतापूर्वक प्रयास किये, ये हमारी विरासत है, गौरव है। और आज यहां आकर देख रहा हूं कि क्या कर्तव्य है देश के प्रति हमारा सबका?
भारत के सामने बहुत सारी समस्याएं हैं, ये भी हो रहा है, वो भी हो रहा है, मानो जैसे आसमान फट रहा है, तो पैचअप कहां-कहां करना, कितनी जगह करना ऐसी स्थिति है। रामकृष्ण परमहंस ने भी कहा है कि ‘शिव भावे जीव सेवा’ सबका समाधान हो जाएगा। इतनी जगह से कट रहा है, इसका कारण यह है कि हम जोड़नेवाली बात का ध्यान ही नहीं रख रहे, और जोड़नेवाली बात यह है। घट-घट में राम है, शिव विद्यमान है, शिव भावे जीव सेवा। जो मेरा अपना है, उसका कोई नहीं ऐसा कैसे हो सकता है? मेरा अपना है, जर्मनी से, इंग्लैंड से, अमेरिका से, विदेशी आकर कोई उसकी सेवा करे, क्यों करे? मेरा अपना है तो मैं देखूंगा, अनाथ है क्या, दुनिया की दया पर पलेगा क्या? नहीं, वह मेरी अपनी सेवा पर पलेगा, बड़ा होगा। और सेवा से सक्षम हो गया तो सेवा मांगेगा नहीं, सेवा देनेवाला बनेगा, ऐसी सेवा करें। ‘शिव भावे जीव सेवा करो’ यह संदेश है हम सबके लिए। सेवा के अनेक प्रकार हैं, अभाव को दूर करना, जो भी अभाव है, उसे दूर करना एक प्रकार है। दूसरा प्रकार है, अभाव को दूर करने की कला सिखाना। तीसरा है, अभाव दूर करने की कला को प्रचारित करना, जिससे किसी को सेवा की जरूरत नहीं रहेगी, सभी के अभाव दूर हो जाएंगे। चौथी सेवा है, ये मैं करूं। किसी के पास नहीं तो उसे उपलब्ध करवाऊं। स्वयंभाव से जागृत होना।
मेरा जीवन मेरे लिए नहीं है, मेरा जीवन मेरे अपनों के लिए है, और ऐसा आदमी बनाना यह सर्वश्रेष्ठ सेवा है। चारों प्रकार की सेवाओं का एकत्रित दर्शन यहां मिल रहा है, जिनका अभाव है, उनका अभाव दूर करने का प्रयास, अभाव दूर होने के बाद उन लोगों के मन में आ रहा है कि हम भी इसी काम में लग जाएं, एक जगह केवल दो व्यक्ति सेवा नहीं कर रहे, धीरे-धीरे इसका विस्तार कर रहे हैं, ताकि सब लोग इसको करने लगें। इसमें से हम भी शिक्षा ले रहे हैं कि यह करना चाहिए, मुझे भी करना चाहिए। ‘शिव भावे सेवा’ वाले स्थान पर कार्यों का दर्शन हमने कर लिया तो समझो जीवन में पवित्रता आ गई, और यदि हम भी उसी काम में लग जाएंगे तो तीर्थ में डुबकी लगाकर तीर्थ रूप हो जाएंगे।
आप सब लोग प्रभु जी की सेवा में डुबकी लगाओ, सेवा करते-करते आपका जीवन तीर्थ रूप बन जाए, यह शुभकामना देता हुआ, और आपको धन्यवाद देता हुआ यह मेरी श्रद्धांजलि कार्य के प्रति अर्पित करता हूं और विराम देता हूं।
‘निस्वार्थ सेवा’ के सन्देश को छोड़ ‘टेरेसा’ के नाम पर विवाद खड़ा कर रही मीडियाघ प्रमुख का वह प्रेरक भाषण जो अनावश्यक विवाद का विषय बन गया'
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धर्म में लौटने पर मिल सकता है एससी का दर्जा : सुप्रीम कोर्ट



धर्म में लौटने पर मिल सकता है एससी का दर्जा : सुप्रीम कोर्ट 
 
एजेंसी|नई दिल्ली . सुप्रीमकोर्ट ने गुरुवार को कहा कि किसी व्यक्ति को दोबारा हिंदू धर्म अपनाने पर अनुसूचित जाति का दर्जा मिल सकता है। हालांकि कोर्ट ने इसमें तीन अहम शर्तें रखी हैं। पहली- वह उस जाति का है, जिसे संविधान ने मान्यता दी है। दूसरी- वह उस धर्म में वापस गया हो जिससे उसके माता-पिता और पुरखे संबंधित थे। तीसरी- उस जाति के लोगों के उसे स्वीकार करने का स्पष्ट सबूत हो। कोर्ट ने कहा कि तीनों शर्तें अहम हैं। अगर एक भी प्रमाणित नहीं होती तो अनुसूचित जाति का दर्जा मिलना मुश्किल है। केरल निवासी केपी मनु की याचिका पर जस्टिस दीपक मिश्रा वी. गोपाल गौडा की बेंच ने यह फैसला दिया है।

मनु के दादा ने ईसाई धर्म स्वीकार किया था। लेकिन मनु 24 साल की उम्र में हिंदू धर्म में वापस गया। उसे अपने पुरखों की मूल जाति के आधार पर अनुसूचित जाति का दर्जा आैर उस आधार पर नौकरी भी मिली गई। लेकिन एक शिकायत पर एक समिति ने उसके अनुसूचित जाति दर्जे को गलत बता दिया। हाईकोर्ट ने भी इस पर मुहर लगा दी। मनु ने सुप्रीम कोर्ट में इसे चुनौती दी थी। 

साभार:दैनिक भास्कर
स्त्रोत: http://epaper.bhaskar.com/nagpur/196/27022015/mpcg/1/

हम विविधताओं को स्वीकार करने वाली संस्कृति का अनुसरण करते हैं – सरसंघचालक

हम विविधताओं को स्वीकार करने वाली संस्कृति का अनुसरण करते हैं – सरसंघचालक


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मुंबई (विसंकें). राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डॉ मोहन भागवत ने कहा कि स्वातंत्र्यवीर विनायक दामोदर सावरकर जी ने किसी पक्ष, जाति, संप्रदाय अथवा गट का नहीं, उन्होंने पूरे समाज का विचार किया. संपूर्ण राष्ट्र का चिंतन किया. समग्र जीवन का विचार उन्होंने प्रस्तुत किया. इसीलिए उनके विचार आज भी उतने ही प्रभावी व सटीक हैं. उनके जीवन से प्रेरणा लेकर अगर उनके जीवन में किये गये काम का १ प्रतिशत काम भी हम अपने जीवन में कर सकें तो यह जीवन सफल हो जाएगा. मातृभूमि के लिए जीना व उसी मातृभूमि के हित के लिये मृत्यु प्राप्त करना, यह सावरकरजी का आदर्श हम सभी को अपनाने की जरुरत है.

वह मुंबई में ‘विक्रम नारायण सावरकर – एक चैतन्य झरना’ नामक पुस्तक के विमोचन कार्यक्रम में शिरकत कर रहे थे. इस अवसर पर मंच पर स्वातंत्र्यवीर सावरकर राष्ट्रीय स्मारक के अध्यक्ष अरुण जोशी विराजमान थे.

_DAS5318सरसंघचालक ने कहा कि सावरकर जी ने अपना सारा जीवन जिस समाज के लिये समर्पित किया, उस समाज ने सावरकरजी को क्या दिया? देश स्वतंत्र होने के पश्चात भी एक लज्जाजनक अभियोग से उनका नाम जोड़ना तथा उन्होंने अपने देश के लिये जहां बहुत दर्द झेला, वहां के स्मारक पर से उनका नाम हटाया जाना, लेकिन सावरकर ने अपने पूरे जीवन काल में किसी व्यक्ति को दोष नहीं दिया. वह अपने देश के लिये तन-मन-धन पूर्वक आजीवन जीते रहे. उनकी यह सोच हमारे जीवन को वास्तव में उजागर कर सकती है.

सावरकरजी ने स्वतंत्रता और समयानुकूलता इन दो तत्वों का अपने जीवन में हमेशा प्रचार किया. स्वातंत्र्य का अर्थ स्वआचरण का तंत्र, प्राचीन परंपराओं में से अच्छी बाते लेना गलत बातें छोडना और गलत बातों के लिये अपने पूर्वजों का आदरपूर्वक खंडन करना यह सावरकरजी का विचार था. प्राचीन काल के संदर्भ को लेते हुए गलत परंपराओं का अनुसरन करने के वे विरोधी थे. धर्म की उन्होंने बहुत स्पष्ट व्याख्या की. सब को समाकर लेता है, वह धर्म, कोई भी पूजा पद्धति धर्म नहीं होती. सदाचार से श्रेय व प्रेम प्राप्त होता है. यह अपने पुरखों का विचार है. विविधताओं को स्वीकार करने की बुध्दि जिस मातृभूमि ने हमें दी और जिस उदात्त संस्कृति का हम अनुसरण करते है, उसको मानने वाले वह हिेंदू है, ऐसी व्याख्या सावरकरजी ने कालानुरूप की.
_DAS5337
_DAS5282इस अवसर पर ज्येष्ठ विदर्भवादी नेता और पूर्व सांसद जांबुवंतराव धोटे ने बताया कि विक्रम राव सावरकर चैतन्य स्रोत थे. हर वस्तु की एक उम्र होती है, उसी तरह नैतिक मूल्यों की भी एक उम्र होती है. नैतिक मूल्यों की यह उम्र समाप्त हो रही है, उसी समय विक्रमराव जैसे द्रष्टा हमें छोड कर चले गये यह हमारे हित में नही है. आज हमारे देश में बहुत विकट स्थिति निर्माण हो गयी है. खुद को पूरोगामी कहने वाले लोग अगर कोई अपने विचार रखते है, तो उन पर हमला बोल देते है. हिंदू, हिंदूत्व व हिंदूराष्ट्र जैसे शब्दों का उच्चारण करते ही इन लोगों के पसीने छूट जाते है. सरसंघचालक डॉ. भागवत ने मदर टेरेसा के बारे में जो कहा वह शत प्रतिशत सत्य था. इतना ही नहीं हमारे देश के लगभग सभी इसाई व मुस्लिम इतिहास काल में हिंदू ही थे. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ देशभक्त बनाने वाला कारखाना है.

साभार: vskbharat.com

गुरुवार, 26 फ़रवरी 2015

संघ को जानें भी

जनसत्ता के २४ फ़रवरी के अंक में प्रकाशित महेश जी शर्मा की प्रतिक्रिया


संघ को जानें भी
जनसत्ता के लेखक विद्वान और विचारक हैं, उनके विश्लेषण में पैनापन भी होता है, लेकिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और हिंदुत्व के बारे में उनकी जानकारियों और विश्लेषण पर आश्चर्य होता है। संघ की प्रत्यक्ष जानकारियां जिनके पास हैं, उन्हें हास्यास्पद लगते हैं, इनके आलेख। पचास साल से संघ का स्वयंसेवक होने के बावजूद जनसत्ता के लेखकों से हमें जानकारी मिलती है कि हिटलर संघ के प्रिय नायक हैं। पचास सालों में संघ के बौद्धिकवर्गों में या साहित्य में हमने एक भी बार सकारात्मक अर्थों में यह नाम नहीं सुना या पढ़ा।

साम्यवादी लेखक गोलवलकर के नाम से लिखी पुस्तकवी डिफाइन आॅवर नशनहुडका हवाला हमेशा देते हैं। यह पुस्तक 1939 में प्रकाशित हुई थी, तब तक द्वितीय महायुद्ध हुआ था, गोलवलकर संघ के सरसंघचालक थे। वह बाबा साहब सावरकर की पुस्तकराष्ट्र मीमांसाका इंगलिश रेंडरिंग था, उसकी प्रस्तावना तत्कालीन कांग्रेस के वरिष्ठ नेता बापू अणे ने लिखी थी। यह पुस्तकश्री गुरुजी समग्रका भी हिस्सा नहीं है। कम्युनिस्ट पार्टी कार्यालय के अलावा शायद कहीं यह पुस्तक उपलब्ध भी नहीं है।

डॉ हेडगेवार, श्री गुरुजी या दीनदयालजी ने यह कभी नहीं कहा कि हमें भारत कोहिंदू राष्ट्रबनाना है। संघ का आग्रह है कि हमें आत्म साक्षात्कारपूर्वक जानना है कि भारतहिंदू राष्ट्रहै। यह राजनीतिक अवधारणा नहीं है। हमेंराष्ट्र-राज्यऔर राष्ट्रावधारणा के अंतर को भी समझना चाहिए। राष्ट्र कोई कृत्रिम इकाई नहीं है, राष्ट्र बनाए नहीं जाते। भू-सांस्कृतिक रूप से उत्पन्न होते हैं।

संघ संस्थापक डॉ हेडगेवार ने कहाहिंदुत्व ही राष्ट्रीयत्व है।अत: भारतहिंदू राष्ट्रहै। मजहब और राजनीति को राष्ट्रीयत्व का आधार स्वीकार करने को वे तैयार नहीं थे। उन्होंनेहिंदूशब्द का प्रयोग मजहब या रिलीजन के संदर्भ में नहीं किया। इसी संदर्भ को आगे गोलवलकर और दीनदयाल उपाध्याय नेसांस्कृतिक राष्ट्रवादकी अवधारणा के नाते विकसित किया। इस अवधारणा से किसी की असहमति हो तो आपत्ति नहीं, लेकिन हिंदू को मजहबी बना कर संघ की आलोचना करना, अवधारणात्मक तथ्यों की अवहेलना करना है।

संघ की धारणा है कि मुसलमान और ईसाई के समांतर हिंदू कोईसंप्रदायनहीं है, और हिंदू के समांतर मुसलिम और ईसाई कोईराष्ट्रनहीं है। मुसलिम की पृथक राष्ट्रीयता की मान्यता ने ही द्वि-राष्ट्रवाद को स्थापित किया और भारत का विभाजन हुआ। पृथक अस्मिता के इस तत्त्व का संघ विरोधी है। भारतीय संप्रदायों के साथ ही सामी संप्रदायों का भी सहअस्तित्व संभव है। दीनदयाल उपाध्याय ने मोहम्मदपंथी और ईसापंथी हिंदू की अवधारणा दी थी।

भारत की संप्रदाय, भाषा और लोकाचार की विविधता को संघ भारत की राष्ट्रीयता का शृंगार मानता है। ये विविधताएं हमारे पूर्वजों ने मेहनत से संजोई हैं। ये विविधताएं पृथकता की नियामक नहीं हैं बल्कि एकात्मकता की पोषक हैं। विविधताओं को पृथकता मानने वालाबहु राष्ट्रवादीचिंतन संघ को स्वीकार नहीं है। साम्यवादी विचारक भारत मेंबहुराष्ट्रवादके समर्थक रहे हैं, इसलिए उन्होंने भारत विभाजनकारीद्वि-राष्ट्रवादका भी समर्थन किया था। आज भी यह विचारधारा विभाजक तत्त्वों को उभारती और उनका पोषण करती है।

जनसत्ता के अधिकतर लेखकधर्मशब्द का प्रयोग रिलीजन और मजहब के रूप में करते हैं। क्या ये लोग पंथ या संप्रदाय शब्द का अर्थ नहीं जानते? ‘धर्मएक भारतीय शब्द-पद है, इस पर पाश्चात्य अर्थों का आरोपण इस शब्द और अवधारणा के साथ अन्याय है। असहमति अवश्य जताएं लेकिन संघ को जानें भी।

महेश चंद्र शर्मा, अध्यक्ष, एकात्म मानवदर्शन अनुसंधान एवं विकास प्रतिष्ठान, नई दिल्ली

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विश्व संवाद केन्द्र जोधपुर द्वारा प्रकाशित