बुधवार, 11 जुलाई 2012


तुष्टीकरण आधारित अलगाववादी रपट-2 

अलगाववादियों की सभी मांगें मानकर सरकारी वार्ताकारों ने तैयार कर दिया 'आजाद-कश्मीरका रोडमैप' 

- नरेन्द्र सहगल -


पाकिस्तान प्रेरित 65 वर्ष पुरानी कश्मीर समस्या को तुरंत सुलझाने के लिए सरकारी वार्ताकारों ने राजनीतिक घड़ी की सुइयों को 60 वर्ष पीछे घुमाने अर्थात् जम्मू- कश्मीर के 6 दशकों के संवैधानिक इतिहास को खारिज करने के लिए यह रपट तैयार की है। 178 पृष्ठों की इस रपट की एक महत्वपूर्ण सिफारिश के अनुसार 1952 के बाद जम्मू-कश्मीर में लागू भारतीय संसद के सभी कानूनों की समीक्षा के लिए एक संवैधानिक समिति का गठन किया जाए। यह समिति उन अधिनियमों को बदलेगी जिनके माध्यम से इस सीमावर्ती प्रदेश को भारत से न केवल जोड़ा गया, अपितु उसे विकास की राह पर भी आगे बढ़ाया गया। जाहिर है कि यह समिति भारत के संविधान और संसद को चुनौती देने वाली एक ऐसी टोली होगी जो इन वार्ताकारों की ही अलगाववादी मानसिकता की लकीरों पर चलेगी।
देश-विरोधी सिफारिश
वार्ताकारों द्वारा जम्मू-कश्मीर में 1953 से पूर्व की राज्य व्यवस्था की सिफारिश करना सीधे तौर पर देशद्रोह की श्रेणी में आता है। इस तरह की सिफारिश का अर्थ है जम्मू-कश्मीर में भारतीय प्रभुसत्ता को चुनौती देना, देश के किसी प्रदेश को भारतीय संघ से तोड़ने का प्रयास करना और भारत के राष्ट्रीय ध्वज, संविधान और संसद का विरोध और अपमान करना।
वार्ताकारों ने जम्मू-कश्मीर में जिस 1952 वाली राजनीतिक व्यवस्था की पुनस्स्थापना की सिफारिश की है उसका एक नजर में अवलोकन करना न्याय संगत होगा। 26 अक्तूबर 1947 को जम्मू-कश्मीर रियासत के राजा हरिसिंह ने रियासत का विलय भारत में कर दिया। प्रथम प्रधानमंत्री नेहरू की 'मेहरबानी' से शेख अब्दुल्ला जम्मू-कश्मीर के वजीर-ए-आजम और डा.कर्णसिंह सदर-ए-रियासत बन गए। भारत के राष्ट्रीय ध्वज तिरंगे के स्थान पर नेशनल कांफ्रेंस के चांद सितारे वाले लाल झंडे को सरकारी मान्यता मिल गई। शेष देशवासियों के लिए जम्मू-कश्मीर में जाने के लिए पहले से लागू परमिट व्यवस्था और ज्यादा मजबूत कर दी गई।
भारत से कट जाएगा कश्मीर
जम्मू-कश्मीर को अपना अलग संविधान बनाने की इजाजत दे दी गई। इस राज्य को सर्वोच्च न्यायालय के प्रभाव क्षेत्र से पूर्णत: मुक्त रखा गया। चुनाव आयुक्त का वहां कोई अधिकार नहीं था। भारतीय संविधान में धारा 370 जोड़कर जम्मू-कश्मीर को देश के शेष प्रांतों के ऊपर वरीयता दे दी गई। संक्षेप में यह स्थिति है 1953 के पूर्व की। यही संवैधानिक व्यवस्था 1952 के नेहरू-शेख समझौते का आधार है। यहां ये बताना जरूरी है कि इसी व्यवस्था को बदलने के लिए प्रजा परिषद का महा आंदोलन हुआ। डा.श्यामा प्रसाद मुखर्जी के बलिदान के परिणामस्वरूप जम्मू-कश्मीर को पूर्णत: भारत में मिलाने के संवैधानिक संशोधन प्रारंभ हुए।
1953 से लेकर आजतक भारत सरकार ने अनेक संवैधानिक संशोधनों द्वारा जम्मू-कश्मीर को भारत के साथ जोड़कर (अन्य प्रांतों की भांति) ढेरों राजनीतिक, आर्थिक सुविधाएं दी हैं। जम्मू-कश्मीर के लोगों द्वारा चुनी गई संविधान सभा ने 14 फरवरी 1954 को प्रदेश के विलय पर अपनी स्वीकृति दे दी। अगर सत्ताधारियों ने अपने वोट बैंक को मजबूत करने के लिए वार्ताकारों की 1952 की तरफ लौटने की सिफारिश को मान लिया तो प्रदेश को देश से कटने में तनिक भी देर नहीं लगेगी। इस राजनीतिक व्यवस्था के अन्तर्गत जम्मू-कश्मीर में राष्ट्रपति के सभी अध्यादेश, संवैधानिक संशोधन, संसद के अधिकार और सर्वोच्च न्यायालय का नियंत्रण सब कुछ समाप्त हो जाएगा।
स्वायत्तता के भयानक दुष्परिणाम
वार्ताकारों द्वारा जम्मू-कश्मीर के लिए दी जाने वाली इस प्रकार की संभावित 'स्वायत्तता' से होने वाले अनेकविध एवं असंख्य परिणामों की कल्पनामात्र ही किसी भी देशभक्त एवं राष्ट्रीय सोच वाले नागरिक को झकझोर कर रख देती है। जम्मू-कश्मीर में एक समुदाय विशेष का बहुमत है। उसी का वर्चस्व वहां की सरकार पर रहेगा।
1964 में भारतीय संविधान की उन धाराओं 356-357 को जम्मू-कश्मीर में भी लागू किया गया था, जिनके अन्तर्गत भारत के राष्ट्रपति को प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लागू करने का अधिकार है। जरा कल्पना कीजिए उस स्थिति की जब भारत सरकार का यह संवैधानिक अधिकार समाप्त होगा। तब प्रदेश में किसी संवैधानिक संकट की स्थिति में यदि राष्ट्रपति शासन की जरूरत पड़ी तो क्या होगा? सब जानते हैं कि कश्मीर के प्रशासन में पाकिस्तान समर्थकों की भरमार है।
मजबूत होंगे पाकिस्तान के इरादे
पाकिस्तान का अघोषित युद्ध जारी है। वह कभी भी घोषित युद्ध में परिवर्तित हो सकता है। कश्मीर सरकार और वहां के एक विशेष समुदाय को बगावत करने से कैसे रोका जाएगा? हमारी फौज किसके सहारे लड़ेगी? जब वहां की स्थानीय सरकार, प्रशासन व्यवस्था और न्यायालय सब कुछ भारत सरकार के नियंत्रण से बाहर होंगे तो उन्हें भारत के विरोध में खड़ा होने से कौन रोकेगा?
धारा 370 ने तो पहले ही इस प्रकार के अलगाववाद को संवैधानिक मान्यता दे रखी है। इसकी आड़ में वहां के प्रशासन पर अलगाववादी तत्वों का प्राय: पूर्ण कब्जा है। यदि इस तरह की प्रशासनिक व्यवस्था में से अखिल भारतीय सेवा के अधिकारियों को निकाल दिया गया तो परिणाम भयानक हो सकते हैं। वार्ताकारों ने जम्मू-कश्मीर में अखिल भारतीय सेवाओं के अधिकारियों की संख्या कम करने का सुझाव दिया है। इस तरह के कदम उठाने से जम्मू-कश्मीर को भारत संघ से अलग एक स्वतंत्र इकाई मानने वालों के इरादे मजबूत हो सकते हैं।
यही तो चाहते हैं अलगाववादी
1952 जैसी स्थिति की बहाली करके तो प्रदेश को भारत के अंग के रूप में रखने के सारे रास्ते स्वत: बंद हो जाएंगे। भारत सरकार पाकिस्तान के साथ जिस शिमला समझौते के अन्तर्गत बात करने की बार-बार दुहाई देती है, वह समझौता 1972 में हुआ था। पाकिस्तान और कश्मीर के बहुसंख्यक लोग इसे भी रद्द मानकर फिर से वही जनमत अधिकार और सुरक्षा परिषद में सुप्त पड़े हुए कश्मीर मुद्दे को जोर-शोर से उठाएंगे। शिमला समझौते में ही युद्ध विराम रेखा को नियंत्रण रेखा माना गया था। कई अलगाववादी तत्व इसी को अन्तरराष्ट्रीय सीमा बनाने की फिराक में हैं। ताकि पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर पर भारत का अधिकार सिद्धांतत: एवं कानूनी रूप से समाप्त हो जाए।
30 मार्च 1965 को भारत के संविधान की धारा 249 के अन्तर्गत जम्मू-कश्मीर को भी लाया गया। इस धारा के अन्तर्गत भारत सरकार को प्रदेश की राज्य सूची के किसी भी मामले में संवैधानिक वर्चस्व मिल गया था। इस तरह की राज्य व्यवस्था भारत के शेष प्रांतों में भी है। राजनीतिक, आर्थिक व न्यायिक क्षेत्रों के अधिकांश मामलों से संबंधित कानूनों पर केन्द्र का नियंत्रण होना चाहिए। जम्मू-कश्मीर जैसी परिस्थितियों वाले प्रदेश में तो यह और भी जरूरी है। प्रदेश में वंचित वर्गों से संबंधित सुविधाएं, वैष्णो देवी ट्रस्ट, वक्फ बोर्ड पर असीमित अधिकार, मत गणना की व्यवस्था, चुनाव व्यवस्था इत्यादि जो सुधार के कार्य हो सके हैं वे सब इसी के अन्तर्गत संभव हो सके। भारत सरकार इस प्रदेश की जनता को आर्थिक पैकेज देती है। 1952 की स्थिति तो इन सब कदमों में बेड़ियां डाल देगी।
भारतीय प्रभुसत्ता को चुनौती
इसी प्रकार 25 फरवरी 1975 को तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी एवं शेख अब्दुल्ला के मध्य हुए एक समझौते के अन्तर्गत पुन: कहा गया था कि जम्मू-कश्मीर भारत का अविभाज्य संवैधानिक अंग है। इस समझौते की धारा 2 इस प्रकार है-'यद्यपि कानून बनाने की अविशिष्ट शक्तियां राज्य के पास रहेंगी तथापि संघीय संसद को ऐसे तमाम विषयों पर कानून बनाने का अधिकार होगा, जिनमें प्रभुसत्ता को भंग करने, चुनौती देने या नकारने के किसी प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष प्रभाव और भारतीय क्षेत्र के किसी भाग को अलग करने या भारत के किसी क्षेत्र को संघ से अलग करने या भारतीय राष्ट्रीय ध्वज, भारतीय राष्ट्रीय गान व भारतीय संविधान का अपमान जैसी किसी भी गतिविधि को रोकने में हो।'
स्पष्ट है कि 1952 की स्थिति अगर बहाल हुई तो 1975 में हुए इस महत्वपूर्ण समझौते के चिथड़े उड़ जाएंगे। इसके निरस्त होने का अर्थ होगा कि कश्मीर में भारतीय प्रभुसत्ता को चुनौती मिलने, प्रदेश के किसी क्षेत्र को भारतीय संघ से अलग करने का प्रयास और भारत के राष्ट्रीय ध्वज, राष्ट्रीय गान का अपमान होने पर भारतीय सरकार हाथ बांधे खड़ी रहेगी।
सोनिया सरकार की परीक्षा
1952 जैसी राजनीतिक और संवैधानिक स्थिति ही वास्तव में नेशनल कांफ्रेंस के एजेंडे पूर्ण स्वायत्तता और पीडीपी के एजेंडे स्वशासन का आधार है। सर्वविदित है कि जम्मू-कश्मीर में नेशनल कांफ्रेंस द्वारा मुख्यमंत्री डा.फारूक अब्दुल्ला के नेतृत्व में 1996 में पूरी शक्ति के साथ 'ग्रेटर ऑटोनोमी' का मुद्दा उठा दिया गया था। एक स्टेट ऑटोनोमी कमेटी का गठन किया गया। 15 अप्रैल 1999 को इस कमेटी ने अपनी रपट प्रदेश की विधानसभा में रखी। अंत में 20 जून 2000 तक विधानसभा में चली लम्बी बहस के बाद दो तिहाई बहुमत से ऑटोनोमी प्रस्ताव पारित कर दिया गया। इस प्रस्ताव को केन्द्र सरकार के पास भेज दिया गया।
4 जुलाई 2000 को केन्द्रीय मंत्रिमंडल ने इस ऑटोनोमी प्रस्ताव को सर्वसम्मति से यह कहकर ठुकरा दिया कि यह न केवल भारत के संविधान और संसद के ही खिलाफ है अपितु यह जम्मू-कश्मीर की जनता की भलाई में भी नहीं है। उस समय केन्द्र में भारतीय जनता पार्टी नीत राजग सरकार थी। आज फिर इन कथित प्रगतिशील तथा अलगाववादियों के हमदर्द तीनों वार्ताकारों ने स्वायत्तता एवं स्वशासन जैसे भारत विरोधी एजेंडों पर आधारित अपनी रपट (आजाद कश्मीर का रोडमैप) केन्द्र सरकार के पास भेजी है। अब देखना यह है कि केन्द्र में स्थापित सोनिया निर्देशित कांग्रेस की सरकार क्या करती है।
तथाकथित प्रगतिशील वार्ताकारों द्वारा गढ़ी गई यह रपट पूर्णतया असंवैधानिकएकतरफा,अनाधिकार चेष्टा और भारत की संप्रभुताअखंडता  सुरक्षा के लिए खतरा साबित होगी। यहसोची-समझी राजनीतिक चाल देश के संविधान और संसद के लिए एक प्रबल चुनौती है।
20 जून 2000 को जम्मू-कश्मीर की विधानसभा में पारित 'पूर्ण स्वायत्तताके प्रस्ताव को 4जुलाई, 2000 को केन्द्र की भाजपानीत सरकार ने खारिज कर दिया था। अब देश को इंतजार हैकि आज की सोनिया निर्देशित सरकार इन वार्ताकारों की 'स्वायत्ततापर आधारित रपट काक्या करती है?
नेशनल कांफ्रेंस, पीडीपी, अलगाववादी संगठन, कट्टरवादी गुट और हिंसक जिहाद के झंडाबरदार आतंकवादी सभी यही चाहते हैं कि जम्मू-कश्मीर को 1952 की स्थिति में पहुंचा कर भारत के संवैधानिक वर्चस्व को समाप्त कर दिया जाए। वार्ताकारों ने इनके रास्ते की सभी बाधाएं हटाने का प्रयास किया है।
स्त्रोत: http://www.panchjanya.com

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विश्व संवाद केन्द्र जोधपुर द्वारा प्रकाशित