मंगलवार, 29 सितंबर 2015

ईसाई-इस्लामीकरण की ओर नेपाल !


नेपाल के समक्ष भविष्य में समस्याएं कम नहीं होंगी, इसके पीछे एक साजिश है। कुछ  शक्तियां सालों से नेपाल का ईसाई-इस्लामीकरण कर रही थीं। उनको प्रलोभन दिया जा रहा था। नेपाल का हिन्दू राष्ट्र न होने से सबसे ज्यादा नुकसान भारत को ही होगा। इससे नेपाल में पाकिस्तान, चीन और वैटिकन की घुसपैठ बढ़ जाएगी।



साम्यवादी विचारधारा वाले तथा ईसाई धर्मप्रसार के लिए प्रतिकूल चीन पर मात करने हेतु ईसाई राष्ट्रों की दृष्टि
से नेपाल एक महत्त्वपूर्ण देश है । वह वहां रहने वाले थारू व मधेशियों को सबसे पहले टारगेट करेंगे और इनका धर्म परिवर्तन कराएंगे।

भारत के एक विश्वस्त पड़ोसी नेपाल का धर्मनिरपेक्ष गणराज्य के रूप में नया जन्म हो गया है। देखा जाए हिन्दू
राष्ट्र की कब्र पर धर्मनिरपेक्ष गणराज्य नेपाल का जन्म हुआ है। इसके दुष्परिणाम क्या होंगे? क्या भारत के लोगों ने इसकी चिंता की है? शायद नही!  लेकिन आने वाले दिनों में इसके गलत परिणाम देखने को मिलेंगे। क्योंकि अब नेपाल में ईसाई-इस्लामीकरण की प्रक्रिया तेज हो जाएगी। ईसाई और इस्लामिक संगठन पहले से ही नेपाल में प्रलोभन, भय का वातावरण कायम किए हुए हैं।

भारत की तरह ही नेपाल के दूरदराज के आदिवासी और अन्य वंचित तबका ईसाई-इस्लामिक जाल में फंसते चले जा रहे हैं।

नेपाल को फिर से हिंदू राष्ट्र की मांग उठ रही है। धर्मनिरपेक्ष गणराज्य बनने के बाद पूरे देश में हिंसा भड़क गई है।नेपाल में रहने वाले हिंदू, थारू व मधेशीसमुदाय के लोग इस संविधान का विरोध कर रहे हैं। उनको डर है कि अब उनको जबरनईसाई या मुसलमान बना देंगे। सच भी यही है देर-सवेर ऐसा होगा भी! इसे हिंदुओ व उनके हिंदुत्व प्रचार के नारे की हार कहा जाएगा।
साम्यवादी विचारधारा वाले तथा ईसाई धर्मप्रसार के लिए प्रतिकूल चीन पर मात करने हेतु ईसाई राष्ट्रों की दृष्टि से नेपाल एक महत्त्वपूर्ण देश है। साथ ही पाकिस्तानी तथा बांग्लादेशी जिहादी आतंकवादियों के लिए भारत में प्रवेश हेतु नेपाल एक सरल मार्ग बन चुका है।
ऐसा दिखाई देता है कि नेपाल के ‘हिन्दू राष्ट्र’ होने अथवा वहां पर हिन्दुत्वनिष्ठ राजसत्ता होने की बात विस्तारवादी ईसाई राष्ट्रों अथवा जिहादी इस्लामी राष्ट्रों को मान्य नहीं। नेपाल की 26 मिलियन जनसंख्या में 81 फीसदी हिंदू, 9 फीसदी बौद्ध,  4.4 फीसदी मुस्लिम और 1.4 फीसदी ईसाई हैं।
देश  में ईसाई आबादी तेज़ी से बढ़ रही है और वे नेपाली हिंदुओं को मुफ्त शिक्षा, नौकरियां देकर उनका धर्मांतरण कर रहे हैं। ईसाई समूह कहते हैं कि धर्मांतरण हो रहे हैं, लेकिन उन्होंने इसके लिए प्रोत्साहन हेतु आर्थिक अथवा दूसरी तरह के सहयोग की बातों से इन्कार किया है।

नेशनल काउंसिल फोर चर्चेज़ इन नेपाल (नेपाल की राष्ट्रीय चर्च परिषद) के महासचिव के. बी. रोकाया ने कहा कि ईसाई अब स्वतंत्रतापूर्वक अपने धर्म का प्रचार कर रहे हैं। उन्होंने कहा कि हिंदू इसलिए धर्मांतरण कर रहे हैं क्योंकि उनमें से कई कठोर जाति व्यवस्था से उत्पीड़ित और महंगे धार्मिक कृत्यों से दबा हुआ महसूस करते हैं।
नेपाल के उत्तरी पहाड़ी इलाकों तथा दक्षिणी पठार के कुछ जिलों में अचानक लोग ईसाई बनने लगे हैं।
नेपाल का हिन्दू राजतंत्र समाप्त हुआ तथा माओवादियों द्वारा नया "सेकुलर" अंतरिम संविधान अस्तित्त्व में लाया गया, उसी दिन से मानो विदेशी मिशनरी संस्थाओं की बाढ़ सी आ गई। यहाँ तक कि ईसाई धर्मांतरण की बढ़ती घटनाओं के कारण वहाँ नेताओं को इस नए अंतरिम संविधान में भी "धार्मिक मतांतरण" पर रोक लगाने का प्रावधान करना पड़ा।
नए संविधान में भी जबरन धर्मांतरण पर पांच साल की जेल का प्रावधान किया गया है। परन्तु इसके बावजूद मिशनरी संस्थाएँ अपना अभियान निरंतर जारी रखे हुए हैं,  मिशनरी संस्थाओं की माँग है कि "स्वैच्छिक धर्म परिवर्तन" पर कोई रोक नहीं होनी चाहिए। एक "सेक्यूलर लोकतंत्र" का तकाज़ा है कि व्यक्ति जो चाहे वह धर्म चुनने के लिए स्वतन्त्र हो।
नेपाल में हुई जनगणना के अनुसार देश में ईसाइयों की जनसंख्या में 1 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। 10 वर्ष पूर्व हुई
जनगणना में ईसाइयों की संख्या नेपाल की कुल आबादी 26 मिलयन का 0.4 प्रतिशत थी जो बढ़कर 1.4 हो गयी है। एक प्रोटेस्टंट सी. बी. गहतराज के अनुसार उनकी कुल संख्या जनगणना की रिपोर्ट से अधिक होनी चाहिये। उन्होंने कहा कि सेन्सस के समय कई नये ख्रिस्तियों ने भयवश अपने वास्तविक धर्म को नहीं बतलाया और इसलिये उन्हें हिन्दु दिखलाया गया है। इसके साथ ऐसे लोग जनगणना के दरमियान उपस्थित नहीं थे उन्हें भी हिन्दुओं के रूप में दिखलाया गया है। मस्जिदों से ज्यादा गिरजाघरों की संख्या नेपाल में है । दिल्ली स्थित पोप के राजदूत नेपाल के कैथोलिक चर्च का भी मार्गदर्शन कर रहे हैं।
हिंदू राजशाही से एक धर्मनिरपेक्ष, संघीय लोकतंत्र के रूप में परिवर्तित होने से नेपाल की समस्याएं भविष्य में कम नहीं होंगी। इसके पीछे एक साजिश है। कुछ शक्तियां सालों से नेपाल का ईसाई -इस्लामीकरण कर रही थीं। संघीय गणराज्य नेपाल में अब महिलाओं को विदेशी पुरुष से शादी करने पर अपने बच्चों को नेपाली नागरिकता हासिल करने का अधिकार भी दिया जाएगा। इसका खामियाजा भविष्य में नेपाल को भुगतना पड़ेगा।

नेपाल का हिन्दू राष्ट्र न होने से सबसे ज्यादा नुकसान भारत को ही होगा। इससे नेपाल में पाकिस्तान, चीन और वैटिकन की घुसपैठ बढ़ जाएगी। वह वहां रहने वाले थारू व मधेशियों को सबसे पहले टारगेट करेंगे और इनका धर्मपर्विन कराएंगे।
इनका मकसद यही रहेगा, नेपाली इतिहास से  हिन्दू शब्द को जल्द से जल्द मिटाना। नेपाल के माथे से हिन्दू शब्द हटने से कई देशों को खुशी हो रही है। नेपाल को कुछ अदृश्य शक्तियां जल्द ईसाई-इस्लामीकरण की पोशाक पहनाना चाहती हैं।

 साभार :: न्यूज़ भारती

शनिवार, 26 सितंबर 2015

Abp  न्यूज़ पर आज रात्रि में  प्रसारित कार्यक्रम को देख़ने  के लिए निचे दियें  लिंक पर क्लिक करे

व्यक्ति विशेष- मोहन भागवत

व्यक्ति विशेष: मोहन भागवत कैसे बनें मोदी के 'कृष्ण'

 सबसे तकतवर हस्ती हैं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी. लोकसभा चुनाव में जीत के बाद से ही राजनीतिक के आसमान पर सबसे चमकदार चेहरा बन कर चमक रहे हैं नरेंद्र मोदी. लेकिन क्या आप जानते हैं कि राजनीति की दुनिया से अलग देश में दूसरा सबसे ताकतवर शख्स कौन हैं? दरअसल मोहन भागवत वो शख्स भी है जिन्होंने नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री बनाने में सबसे अहम रोल निभाया है.

देश के सबसे बड़े संगठन, राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ को चलाते हैं. उनका संगठन, आरएसएस यूं तो जाहिरी तौर पर राजनीतिक गतिविधियों से परहेज करता है लेकिन बीजेपी को चुनावी जंग जिताने में पर्दे के पीछे आऱएसएस औऱ उसके प्रमुख मोहन भागवत का सबसे अहम योगदान माना जाता है. मोहन भागवत का नाम यूं तो मीडिया में कभी-कभार ही चमकता है लेकिन केंद्र में बीजेपी की सरकार बनने के बाद से वो अक्सर अपने बयानों को लेकर विवादों में घिरते रहे हैं. पिछले दिनों आरक्षण के मुद्दे पर उनके ताजा बयान ने एक बार फिर देश में राजनीतिक माहौल गर्म कर दिया है.

राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ यानी आरएसएस को देश के सबसे बड़े संगठनों में से एक माना जाता है. आरएसएस की कमान संघ प्रमुख मोहन भागवत के हाथों में हैं. भागवत साल 2009 में राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ के प्रमुख बने थे लेकिन संघ प्रमुख बनने के बाद से ही वो अपने बयानों को लेकर ही ज्यादा चर्चा में रहे हैं. केंद्र में बीजेपी सरकार बनने के बाद हिंदुत्व पर दिए उनके बयान को लेकर भी हंगामा खड़ा हो गया था और अब आरक्षण के मुद्दे पर उनके बयान ने देश की राजनीति को गर्मा दिया है.

गुजरात में पटेल समुदाय को आरक्षण देने के लिए शुरु हुए आंदोलन का नाम लिए बगैर भागवत ने आरक्षण नीति की समीक्षा की मांग उठाई है. आरएसएस के मुखपत्र ऑर्गनाइजर को इंटरव्यू देते हुए मोहन भागवत ने कहा है कि आरक्षण को हमेशा राजनीतिक उद्देश्यों के लिए इस्तेमाल किया गया है. लोग अपनी सुविधा के मुताबिक अपने समुदाय या वर्ग का ग्रुप बनाते हैं और आरक्षण की मांग करने लगते हैं. लोकतंत्र में कई नेता उनका समर्थन भी करते हैं. एक गैर राजनीतिक समिति का गठन होना चाहिए जो समीक्षा करे कि किसे आरक्षण की ज़रूरत है और कब तक?

बिहार चुनाव से पहले संघ प्रमुख मोहन भागवत के इस बयान को लेकर आरोप प्रत्यारोप का एक नया दौर शुरु हो गया है. आरक्षण के मुद्दे पर राजनीतिक दलों में तलवारें खिंचती रही हैं और आरक्षण की ये बहस आजादी के वक्त से ही चलती रही है. दरअसल आजादी के बाद जब भारत का संविधान बना तो दलितों और आदिवासियों को मुख्य धारा में लाने के लिए संविधान में आरक्षण की व्यवस्था की गई थी.

आजाद भारत का संविधान लागू होते ही एससी यानि अनुसूचित जाति के लिए 15 फीसदी और एसटी यानि अनुसूचित जनजाति के लिए 7.5 फीसदी आरक्षण की व्यवस्था की गई थी. 1990 में मंडल कमीशन की सिफारिशों के आधार पर अन्य पिछड़ा वर्ग यानि ओबीसी के लिए 27 फीसदी आरक्षण की व्यवस्था की गई. इस हिसाब से देश में आरक्षण 49.5 फीसदी हो गया और सामान्य वर्ग के लिए सरकारी नौकरियों और शिक्षा संस्थानों में 50.5 का हिस्सा रह गया.

लेकिन आजादी के 60 साल बाद आज भी देश में अलग-अलग समुदाय के लोग आरक्षण की मांग का झंडा बुलंद किए हुए हैं. इन दिनों आरक्षण की ताजा आग गुजरात में लगी है जहां हार्दिक पटेल की अगुवाई में पाटीदार समाज खुद को ओबीसी वर्ग में शामिल कराना चाहता है ताकि कॉलेज और सरकारी नौकरियों में उन्हें कोटा मिल सके.


गुजरात में पटेल तो राजस्थान में गुर्जर भी लंबे वक्त से आरक्षण की मांग करते रहे हैं. राजस्थान में बीजेपी की सरकार ने पिछले दिनों गुर्जरों को 5 फीसदी और अगड़ों में आर्थिक रूप से पिछड़ों को 14 फीसदी का आरक्षण देने के लिए दो बिल भी पास कर दिए हैं. खास बात ये है कि इन बिलों के पास होने के बाद अब राजस्थान में 68 फीसदी आऱक्षण हो गया है. जो सुप्रीम कोर्ट की 50 फीसदी आरक्षण देने की सीमा को पार कर गया है और यही वजह है कि देश में आरक्षण के मुद्दे पर बहस एक बार फिर तेज हो गई है.


गुजरात में पटेल समाज से पहले भी आरक्षण की मांग पर आंदोलन होते रहे हैं और सरकारें इन मांगों के सामने झुकती भी रही हैं. महाराष्ट्र में शिक्षा और सरकारी नौकरियों में मराठा समुदाय को 16 फीसदी आरक्षण देने का फैसला हुआ था लेकिन हाईकोर्ट ने मराठों को आरक्षण के फैसले पर रोक लगा रखी है. सुप्रीम कोर्ट ने भी केंद्र सरकार के उस फैसले को निरस्त कर दिया था जिसमें जाट समुदाय को ओबीसी में शामिल किया जाना था. सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि “जाति एक महत्वपूर्ण वजह है लेकिन सिर्फ जाति पिछड़ापन तय करने का मानक नहीं हो सकती. पिछड़ापन सामाजिक होना चाहिए, सिर्फ शैक्षिक और आर्थिक नहीं.“लेकिन सुप्रीम कोर्ट के दखल और फैसले के बाद भी आरक्षण का जिन्न एक बार फिर बोतल से बाहर आ चुका है और आरक्षण नीति की समीक्षा की बात कह कर आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने इस मुद्दे को एक बार फिर हवा दे दी है.

कांग्रेस नेता रणदीप सुरजेवाला नरेंद्र मोद जब गुजरात के मुख्यमंत्री थे. उस समय गुजरता के अंदर एक नई आरक्षण की नीति लाए जहां आरक्षण को जिला स्तर तक उन्होंने सीमित कर दिया. और उन पदों को इंटरचेंजजेबल बनाने से इंकार कर दिया. और यहां तक कि गुजरात में ग्राम पंचायतों में भी अनुसूचित जाति और पिछड़े वर्गों के लोगों को उन्होने आरक्षण से महरुम कर दिया. तो जो देश के भाजपा के सबसे अग्रिम नेता हैं अनुसूचित जाति, जनजाति और पिछड़े वर्गो को जिस पक्ष का वो होने का दम भरते हैं. ये उनका रवैया था. और शायद आज भी है. और यही रवैया उनके मार्गदर्शक आरएसएस के सरसंघचालक का भी है.

आरक्षण के मुद्दे पर संघ प्रमुख मोहन भागवत विवादों में है लेकिन उनको लेकर विवाद पहली बार नहीं छिड़ा है उनके विवादों की ये कहानी भी हम आपको सुनाएंगे आपको आगे लेकिन उससे पहले देखिए देश की मौजूदा राजनीति में मोहन भागवत होने का क्या है मतलब.

राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ दुनिया का सबसे बड़ा संगठन है. जिससे करीब तीन दर्जन छोटे बडे संगठन जुड़े हुए हैं इन संगठनों का दायरा पूरे देश में फैला हुआ है. देश के सबसे बड़े ट्रेड यूनियन में से एक भारतीय मजदूर संघ, जिसके करीब दस लाख सदस्य हैं. देश का सबसे बडा विद्यार्थी संगठन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद और देश की रूलिंग पार्टी भारतीय जनता पार्टी जैसे संघ के कई और संगठन है. जिन्हें संघ परिवार कहा जाता है. संघ परिवार देश भर में शिक्षा, जनकल्याण और हिंदू धर्म से जुड़े कार्यक्रमों समेत कई क्षेत्रों में हजारों प्रोजेक्ट चला रहा है. और संघ परिवार के इन सारे कार्यक्रमों औऱ उद्देश्यों के लिए दिशा निर्देश देना और उनका वैचारिक मार्गदर्शन करने का काम राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ के सरसंघचालक का होता है.


मोहन भागवत साल 2009 में जब सरसंघचालक बने थे उस वक्त बीजेपी लोकसभा चुनाव हार चुकी थी. लेकिन भागवत ने हार नहीं मानी वो ना सिर्फ बीजेपी में जबरदस्त बदलाए लाए बल्कि उन्होंने संघ परिवार को चुनावी जंग में बीजेपी की मदद के लिए तैयार भी किया गया. मोहन भागवत कैसे बने संघ के सरताज और कैसे उन्होंने हारी और थकी हुई बीजेपी में फूंक दी एक नई जान?

दरअसल मोहन भागवत ने भारत को हिंदू राष्ट्र बोल कर नए विवाद को जन्म दे दिया था. उन्होंने कहा कि भारत एक हिंदू राष्ट्र है और हिंदुत्व उसकी पहचान है और यह अन्य (धर्मों) को स्वंय में समाहित कर सकता है. पिछले साल अगस्त 2014 में मोहन भागवत ने कटक में कथित तौर पर कहा था कि सभी भारतीयों की सांस्कृतिक पहचान हिंदुत्व है और देश के वर्तमान निवासी इसी महान संस्कृति की संतान हैं. उन्होंने सवाल किया था कि यदि इंगलैंड के लोग इंग्लिश हैं, जर्मनी के लोग जर्मन हैं, अमेरिका के लोग अमेरिकी हैं तो हिंदुस्तान के सभी लोग हिंदू के रुप में क्यों नहीं जाने जाते? हिंदू राष्ट्र, राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ का सबसे बडा एजेंडा रहा है. ऐसे में हिंदुत्व पर संघ प्रमुख मोहन भागवत के इस बयान पर भी घमासान मच गया था.

राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ का प्रमुख बनने के बाद से ही भागवत अपने बयानों को लेकर विवादों में घिरते रहे हैं लेकिन 2014 के चुनाव से पहले जब उन्होंने नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री बनाने के लिए खुद मोर्चा संभाला तो वो और ज्यादा लाइमलाइट में आ गए थे.

ये धुआं उगलती चिमनियों का शहर है जो महाराष्ट्र में सबसे ज्यादा बिजली पैदा करने के लिए भी पहचाना जाता है और ये शहर चंद्रपुर, संघ प्रमुख मोहन भागवत का भी शहर है. मोहन भागवत का जन्म तो 11 सितंबर 1950 को महाराष्ट्र के सांगली में हुआ था लेकिन चंद्रपुर की गलियों में ही खेलते- कूदते हुए उनका बचपन गुजरा है. क्योंकि मोहन भागवत के दादा नारायण भागवत महाराष्ट्र के सतारा से चंद्रपुर में आकर बस गए थे. मोहन भागवत के दादा नारायण भागवत राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ के संस्थापक डॉक्टर हेडगेवार के स्कूल के दिनों के दोस्त भी थे यही वजह है कि मोहन भागवत का संघ से पुराना नाता रहा है. उनका संघ से ये तीन पीढ़ियों पुराना कनेक्शन है.

चंद्रपुर के लोकमान्य तिलक विद्यालय से मोहन भागवत ने स्कूल की पढाई पूरी की थी. स्कूल के उनके टीचर आज भी उन्हें एक ऐसे विद्यार्थी के तौर पर याद करते हैं जिससे इतनी कामयाबी की उम्मीद उन्हें भी नहीं थी.

चंद्रपुर से स्कूल की पढाई पास करने के बाद उन्हें शहर के ही जनता कॉलेज में बीएससी में एडमीशन ले लिया था लेकिन उन्होंने ग्रेजुएशन की ये पढाई बीच में ही छोड दी और एक साल बाद ही मोहन भागवत ने चंद्रपुर शहर को भी छोड़ दिया. उनकी जिंदगी का पहला अहम पड़ाव बना महाराष्ट्र का शहर आकोला.

मोहन भागवत ने बीएससी की पढाई छोड़कर अकोला के इसी पंजाबराव कृषि विद्यापीठ में वेटनिरी साइंसेज एंड एनीमल हस्जबेंडरी के कोर्स में दाखिला ले लिया था. स्नातक की परीक्षा पास करने के बाद उन्होंने आगे पोस्ट ग्रेजुएशन की पढाई के लिए इसी कॉलेज में एडमीशन ले लिया था लेकिन 1975 में उन्होंने ये पढाई बीच में ही अधूरी छोड़ दी और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का दामन थाम लिया.


मोहन भागवत की तीन पीढ़ियां संघ से जुडी रही है. मोहन भागवत के दादा नारायण भागवत संघ के स्वयं सेवक थे और उनके पिता मधुकर राव भागवत भी राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ के प्रचारक रहें है उन्होंने गुजरात में प्रांत प्रचारक के तौर पर भी काम किया है. आम तौर पर संघ के प्रचारक शादी नहीं करते हैं लेकिन जब मधुकर राव भागवत ने शादी करने का फैसला किया तो वह वापस चंद्रपुर आ गए और चंद्रुपर क्षेत्र के कार्यवाह सचिव पद पर रहे. मोहन भागवत की मां मलातीबाई भी संघ की महिला शाखा सेविका समिति की सदस्य थी. खास बात ये भी है कि मुधकर राव भागवत ने ही बीजेपी के दिग्गज नेता लालकृष्ण आडवाणी को संघ में दीक्षित किया था. ये है मोहन भागवत की तीन पीढियों की राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ से कनेक्शन की कहानी लेकिन अब सुनिए मोहन भागवत के नरेंद्र मोदी से कनेक्शन की ये कहानी. दरअसल जिन दिनों मोहन भागवत के पिता मुधकर राव भागवत गुजरात में संघ के प्रांत प्रचारक हुआ करते थे तब उनके संपर्क में पहली बार आए थे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी.

आकोला कें पंजाबराव कृषि विद्यापीठ से एनीमल हसबेंड्री में ग्रेजुएशन करने के बाद मोहन भागवत ने कुछ महीनों के लिए चंद्रपुर में ही एनीमल हसबेंड्री डिपार्टमेंट में नौकरी कर ली थी. क्योंकि ग्रेजुएशन के बाद ये दो साल की इंटर्नशिप जरुरी होती थी. लेकिन जब मोहन भागवत एमएससी की पढ़ाई कर रहे थे तब 1975 में उन्होंने अचानक बीच में ही पढाई अधूरी छोड़ी दी. ये वो दौर था जब देश में आपातकाल लगाया गया. ऐसे हालात के बीच मोहन भागवत पढ़ाई छोड़ने के बाद फुल टाइम संघ के प्रचारक बन गए.

आपात काल के दौरान मोहन भागवत ने संघ के लिए भूमिग होकर काम किया. 1977 में उन्हें अकोला में ही संघ का प्रचारक बना दिया गया और बाद में उन्हें नागपुर और विदर्भ क्षेत्रों का प्रचारक भी बनाया गया.

1991 में मोहन भागवत संघ कार्यकर्ताओं के शारीरिक प्रशिक्षण के लिए अखिल भारतीय शारीरिक प्रमुख भी बनाए गए और वे इस पद पर 1999 तक रहे. इसी साल उन्हें सारे देश में पूर्णकालिक काम करने वाले संघ कार्यकर्ताओं का प्रभारी, अखिल भारतीय प्रचारक प्रमुख, बना दिया गया इस तरह मोहन भागवत संघ में तेजी से तरक्की की सीढ़ियां चढते गए.

मोहन भागवत संघ के प्रचारक है और संघ की परंपरा के मुताबिक उन्होनें शादी भी नहीं की है. साल 2000 में जब राजेंद्र सिंह ऊर्फ रज्जू भय्या और एच पी शेषाद्रि ने सरसंघचालक और संघ सरकार्यवाहक के पद से इस्तीफा दिया तो के एस सुदर्शन संघ के नए सरसंघचालक बने और मोहन भागवत सरकार्यवाहक. और आखिरकार साल 21 मार्च 2009 को भागवत संघ के सरसंघचालक बना दिए गए.

मोहन भागवत को करीब से जानने वाले उन्हें एक विनम्र औऱ व्यावहारिक शख्स के तौर पर पहचानते हैं जो संघ को राजनीति से दूर रखने का नजरिया रखता हैं लेकिन 2014 के लोकसभा चुनाव में जिस तरह उन्होंने बीजेपी को जिताने और नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री बनाने के लिए खुल कर बैटिंग की उसने संघ के राजनीति से दूर रहने के दावे को चर्चा में ला दिया है. भागवत ने कैसे दूर की मोदी के प्रधानमंत्री बनने की राह में आने वाली रुकावटें?

2009 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी की बुरी हार हुई थी. हार से बीजेपी और संघ में निराशा का माहौल था तो वही गुजरात में लगातार दो चुनावों में जीत के बाद मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने दिल्ली की दावेदारी के लिए अपनी तैयारी भी तेज कर दी थी. इसीलिए उस वक्त चुनाव नतीजों के बाद संघ प्रमुख मोहन भागवत ने भी प्रेस कांफ्रेस करके अपने इरादे जता दिए थे कि वो बीजेपी में बड़े परिवर्तन चाहते हैं दरअसल हार के बाद संघ के निशाने पर खास तौर पर लाल कृष्ण आडवाणी और उनकी टीम के वो केंद्रीय नेता थे जिन्होंने इन चुनावों की रणनीति बनाई थी.

आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने कहा था कि भाजपा के काम आज के नहीं है, लाखों कार्यकर्ता उनके देश भर में हैं और उन्होंने तपस्या की है इसके चलते उनके पुण्य काम आएंगे ऐसे होता नहीं है. इतने नीचे तक गहराई तक वो काम किया गया है, गांव गांव में लोग मिलते हैं अब अगर गांव में कोई व्यक्ति भाजपा के लिए आखों में आंसू लेकर खड़ा है तो उस पार्टी का पतन नहीं हो सकता जितना होना है.

बीजेपी की हार के बाद ये भी तय किया गया था कि अब पार्टी की कमान लालकृष्ण आडवाणी नहीं बल्कि कोई और संभालेगा लेकिन तब संघ के आगे भी ये सवाल खड़ा था की आडवाणी के बाद आखिर किसे बीजेपी की कमान सौंपी जाए.

वरिष्ठ पत्रकार जयंतो घोषाल बताते हैं कि नरेंद्र मोदी का ब्रांड इक्युटी जो है वो ब्रैड इक्युटी के सामने ना राजनाथ है ना नितिन गडकरी है. बीजेपी का जो अपना संविधान है उसमें तो नरेंद्र मोदी नंबर 1 ब्रैंड है. तो इसलिए आरएसएस ने भी काम्प्रोमाइज किया. उनके जो इएस मैन रोयलिस्ट को छोड़ के एसे एक बन्दे का जिसका एक ब्रैंड है जिसके साथ वर्किग रिलेशनशिप को सुधारा और आगे बढ़ाया तो इसमें मुझे लगता है कि आरएसएस ने सोचा कि नरेंद्र मोदी एक सर्वश्रेष्ठ बेट हैं.

गुजरात में जीत की हैट्रिक लगाने के बाद नरेंद्र मोदी ने 6 फरवरी 2013 को पहली बार दिल्ली के दरवाजे पर दस्तक दी थी. दिल्ली के श्री राम कॉलेज में जब मोदी बोले तो साफ हो गया की अब उनकी अगली मंजिल दिल्ली ही है. लेकिन नरेंद्र मोदी की प्रधानमंत्री पद की उम्मीदवारी की राह में अभी कई रोड़े बाकी थे और सबसे बडी दीवार बन कर खड़े थे खुद बीजेपी के दिग्गज नेता लालकृष्ण आडवाणी. लेकिन मोदी को लेकर संघ में फैसला हो चुका था. इसीलिए बीजेपी ने भी जून 2013 में उन्हें केंद्रीय चुनाव अभियान समिति का अध्यक्ष बना कर अपना संदेश साफ कर दिया था.

गुजरात से निकलकर नरेंद्र मोदी चुनाव अभियान समिति का अध्यक्ष बनने में तो कामयाब रहे थे लेकिन मोदी के विरोध में आडवाणी रुके नहीं बल्कि 10 जून को उन्होंने पार्टी के सभी अहम पदों से इस्तीफा भी दे दिया था. औऱ ये पहला मौका था जब संघ ने सीधे तौर पर खुल कर बीजेपी के मामले में दखल दिया. संघ प्रमुख मोहन भागवत ने आडवाणी को समझाने औऱ मनाने के लिए खुद मोर्चा संभाला.

संघ प्रमुख मोहन भागवत का पहला बडा एक्शन तब हुआ था जब नितिन गड़करी को बीजेपी का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाया गया था और उनका दूसरा बड़ा एक्शन था नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाना. यहीं नहीं उन्होंने बीजेपी और संघ के अंदर नरेंद्र मोदी की राह की हर रुकावट को साफ करने में अहम भूमिका निभाई. ये मोहन भागवत की ही रणनीति थी कि संघ कार्यकर्ताओं ने चुनाव में सौ फीसदी वोटिंग का लक्ष्य बनाया औऱ उसे काफी हद तक हासिल भी किया. जिसका नतीजा चुनाव में  बीजेपी की बडी जीत के तौर पर सामने आया है औऱ बीजेपी की इस जीत का सबसे चमकदार चेहरा  बनकर उभरे हैं नरेंद्र मोदी लेकिन पर्दे के पीछे इस जीत का हकदार एक चेहरा और भी है.



  • साभार ::abpnews.abplive.in

गौ संवर्धन के कार्य की गति बढाकर नए-नए प्रयोगों के आधार पर कार्य विस्तार करना चाहिए- डॉ. मोहन भागवत,

हमीरपुर, 26 सितम्बर, 2015 - राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डॉ. मोहन राव भागवत ने कहा है कि गौ आधारित खेती का महत्व समाज के ध्यान में आ रहा है. भारतीय नस्ल की गाय के औषधीय गुणों के परिणाम सब अनुभव कर रहे हैं. इसलिए गौ संवर्धन के कार्य की गति बढाकर नए-नए प्रयोगों के आधार पर कार्य विस्तार करना चाहिए. डॉ. मोहन भागवत, ठाकुर जगदेव चंद स्मृति शोध संस्थान नेरी, हमीरपुर में संघ के उत्तर क्षेत्र के कार्यकर्ताओं की बैठक को सम्बोधित कर रहे थे. इस बैठक में दिल्ली, हरियाणा, पंजाब, जम्मू-काश्मीर तथा हिमाचल प्रदेश के सामाजिक समरसता, ग्राम विकास, गौ संवर्धन तथा कुटुंब प्रबोधन के प्रदेश स्तर के लगभग 100 कार्यकर्ता उपस्थित थे.
कार्यकर्ताओं को सम्बोधित करते हुए उन्होंने कहा कि समाज में जातिगत भेदभाव को शीघ्रातिशीघ्र दूर करके एक समरस समाज की निर्मिती करने से ही समाज का स्वाभिमान एवं पुरुषार्थ प्रकट होगा.
उन्होंने कहा कि कुटुंब प्रबोधन और ग्राम विकास दोनों विषय बहुत महत्व के हैं. कुटुंब समाज का और ग्राम देश की अर्थ व्यवस्था का मेरुदंड है.
समाज के मूलभूत दोषों को दूर करने की क्षमता इन गतिविधियों में है. इसलिए समाज की सर्वांगीण उन्नति करने के लिए इन गतिविधियों का अधिक गतिमान होना आवश्यक है.
बैठक के समापन से पहले सरसंघचालक ने कार्यकर्ताओं की जिज्ञासाओं का समाधान भी किया.  
इस अवसर पर संघ के अखिल भारतीय प्रचार प्रमुख डॉ. मनमोहन वैद्य, अखिल भारतीय सह संपर्क प्रमुख श्री अरुण कुमार, उत्तर क्षेत्र कार्यवाह श्री सीताराम व्यास, सह क्षेत्र कार्यवाह श्री विजय कुमार, हिमाचल के प्रान्त संघचालक कर्नल (सेनि.) रूप चंद जी, सह प्रान्त संघचालक डॉ. वीरसिंह रांगडा, जम्मू-काश्मीर के प्रान्त संघचालक ब्रिगेडियर (सेनि.) सुचेत सिंह जी भी उपस्थित थे.
डॉ. भागवत जी कल उत्तर क्षेत्र कार्यकारिणी के सदस्यों, दिल्ली, हरियाणा, पंजाब, जम्मू-काश्मीर तथा हिमाचल प्रदेश के प्रान्त संघचालकों, कार्यवाहों तथा प्रान्त प्रचारकों की बैठक को सम्बोधित करेंगे.

गुरुवार, 24 सितंबर 2015

समाज के अंतिम व्यक्ति तक समरसता की अनुभूति हो – डॉ. मोहनराव भागवत जी

संगोष्ठी का शुभारम्भ दीप प्रज्ज्वलन करते हुए. 

डॉ. मोहन भागवत जी का स्थानीय परम्परा से स्वागत

शिमला, 24 सितम्बर, 2015 (विसंकें) – राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डॉ. मोहन राव भागवत ने सामाजिक समरसता पर बल दिया है. उन्होंने कहा है कि समाज यदि एकमत होकर चलेगा तो इससे सामाजिक एकता को बल मिलेगा. उन्होंने कहा कि सबको मन्दिर में प्रवेश, पानी का सामूहिक स्रोत तथा अंतिम संस्कार के लिए समान श्मशान स्थल की व्यवस्था हो. समाज के अंतिम व्यक्ति तक समरसता की अनुभूति हो इस ओर सबके प्रयास रहने चाहिए. यदि ऐसा नहीं हुआ तो समाज को तोड़ने वाली ताकतें अधिक प्रभावी होंगी. इसके लिए जाति बिरादरी के प्रमुखों तथा संत समाज को अधिक प्रयत्न करने होंगे. समाज में सद्भाव बढाने के लिए सभी सामाजिक, धार्मिक संगठनों को आपस में संवाद बढ़ाकर मिलकर प्रयास करने चाहिए. उन्होंने कहा कि हमारा विचार तो एकात्मता का है लेकिन यह हमारे आचरण में भी आना चाहिए इसी में इसकी सार्थकता है. डॉ. मोहन भागवत कुल्लू के देव सदन में कुल्लू जिला के देव प्रतिनिधियों (कारदार, पुजारी तथा गुरों) की सगोष्ठी को सम्बोधित कर रहे थे. इस संगोष्ठी का आयोजन सत्संग सभा कुल्लू ने किया था. इस कार्यक्रम में कुल्लू जिला के लगभग 200 देव प्रतिनिधियों ने भाग लिया.

देव प्रतिनिधियों को सम्बोधित करते हुए उन्होंने कहा कि देव संस्कृति ही हिन्दू संस्कृति है. जब देव संस्कृति प्रभावी थी तब विश्व में कोई युद्ध नहीं थे, पर्यावरण भी शुद्ध था, हमने अपनी संस्कृति को छोड़ा इसीलिए समस्याएं बढी. हमारी संस्कृति तो मानवता की भलाई के लिए काम करती है, इसमें कट्टरता के लिए कोई स्थान नहीं है. मतान्तरण के कारण देश में ऐसे राष्ट्र विरोधी तत्व खड़े हो गए जो देश को हानि पहुंचा रहे हैं. उन्होंने आह्वान किया कि सभी मत-पंथ सम्प्रदाय एकजुट होकर चलें तभी भारत सुरक्षित रहेगा.

परिवार व्यवस्था में क्षरण और पारिवारिक मूल्यों में आ रही गिरावट पर चिंता व्यक्त करते हुए उन्होंने कहा कि परिवार व्यवस्था को सुदृढ़ बनाने के लिए प्रत्येक परिवार ने सप्ताह में एक बार सामूहिक भोजन व सामूहिक भजन और खुलकर चर्चा करनी चाहिए. बच्चों को अपनी संस्कृति का ज्ञान और गौरव बताएँगे तो वह कभी भटकेंगे नहीं और देश के अच्छे नागरिक बनेंगे. अपने उत्सवों का उपयोग समाज प्रबोधन के लिए करें.

इस अवसर पर देव प्रतिनिधियों ने परिचर्चा में भाग लिया और देव संस्कृति के संरक्षण के लिए अनेक उपयोगी सुझाव भी दिए.

इससे पूर्व कुल्लू पधारने पर सरसंघचालक का स्थानीय परम्परा के अनुसार भव्य स्वागत किया गया.  सत्संग सभा के अध्यक्ष श्री राकेश कोहली ने सबका धन्यवाद किया. इस अवसर पर संघ के अखिल भारतीय प्रचार प्रमुख डॉ. मनमोहन वैद्य जी, उत्तर क्षेत्र कार्यवाह श्री सीताराम व्यास जी, प्रान्त संघचालक कर्नल (सेनि.) रूप चंद जी, सह प्रान्त संघचालक डॉ. वीरसिंह रांगडा जी, जिला संघचालक श्री राजीव करीर भी उपस्थित थे.

बाबासाहेब की अंतर्दृष्टि के अनुरूप हैं सरसंघचालक के विचार



राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के सरसंघचालक डॉ. मोहनरावजी भागवत के आरक्षण व्यवस्था पर पुनर्विचार की आवश्यकता व्यक्त करने से वैचारिक तूफ़ान खड़ा हो गया है। संघ प्रमुख ने आरक्षण के औचित्य पर प्रश्न कतई नहीं किया है, यह स्पष्ट है। मीडिया ने जानबूझकर उनसे बीते वर्षों में समय-समय पर सार्वजनिक
तौर पर उलझाने वाले आरक्षण आधारित प्रश्न सदैव किए हैं। बीते वर्षों में संघ प्रमुख ने आरक्षण पर जिस प्रकार के वक्तव्य दिए हैं उनसे संघ का आरक्षण के प्रति तार्किक समर्थन भी प्रकट होता रहा है। हमारा समाज और नव उपजे संचार माध्यम, यदि नवाचारों व प्रयोगधर्मिता पर बवाल खड़ा करने के स्थान पर आत्मपरीक्षण व आत्मसमीक्षा का अभ्यस्त होता तो आज परिस्थितियां कुछ और होतीं।
संविधान शिल्पी बोधिसत्व बाबासाहेब अम्बेडकर ने भारतीय समाज की इस प्रयोगधर्मिता पर विश्वास करके ही आरक्षण का तर्क तथा समय सम्मत ढांचा खड़ा किया था। हाल के अपने साक्षात्कार में सरसंघचालक जी ने आगे कहा कि आरक्षण का राजनीतिक उपयोग हो रहा है और अब समय आ गया है कि एक अराजनीतिक समिति का गठन किया जाए जो यह परिक्षण करे कि किसे और कितने समय के आरक्षण की आवश्यकता है। आरक्षण नीति पर पुनर्विचार मात्र का विचार व्यक्त करने से समाज में इतना वितंडा हो तथा इतना भय निर्मित किया जाए ऐसा हमारा भारतीय समाज कभी नहीं रहा! हमारा समाज तो सदा से प्रयोगधर्मी व नवाचारों के विकास वाला समाज रहा है। सरसंघचालक मोहन भागवतजी के व्यक्त विचारों का यदि किसी प्रयोगशाला में परीक्षण हो सकता है तो वह केवल बाबासाहेब की वैचारिक प्रयोगशाला ही हो सकती है। आज के समय में संघ प्रमुख द्वारा व्यक्त विचार वस्तुतः बाबासाहेब की अंतर्दृष्टि तथा उनके मानस में चल रहे भविष्य बोध का प्रकटीकरण मात्र ही है।

भारत की चरों दिशाओं में जन्मे और आदरपूर्वक स्वीकार किए गए समाज विज्ञानी इस बात का ज्वलंत प्रतिनिधित्व करते हैं; इनमें ज्योतिबा फुले, बोधिसत्व बाबासाहेब, छत्रपति साहू जी महाराज, सावित्रीबाई फुले, श्रीनिवास पेरियार, अयोथिदास पंडितर, नारायण स्वामी आदि प्रमुख हैं। इस राष्ट्र का मुख्य हिन्दू समाज मूलतः
उन्नयनोमुखी, बहिर्मुखी, प्रयोगधर्मी व समय-समय पर नव-विशिष्ट विचारों का जन्मदाता समाज रहा है। तनिक कल्पना कीजिए कि जब इन उपरोक्त लिखित महान संतों ने अपने समय में अपने विचारों को समाज के सम्मुख रखा होगा तो उन्हें कितना साहस व शक्ति लगी होगी? स्पष्टतः स्वीकार किया जाना चाहिए कि इन महान संतों व प्रयोगधर्मियों की बातों को सुनने, समझने व परीक्षण करने की प्रवृत्ति सदैव हमारे समाज में उपस्थित रही है।
यदि हमारा भारतीय हिन्दू समाज सदा से चैतन्य, जागृत व संवेदनशील व अर्पण भाव का धनी न रहा होता तो ये संत समाज में कभी भी आदरपूर्ण स्वीकार नहीं किए गए होते। यद्यपि इनकी स्वीकार्यता के पीछे सदैव संघर्ष रहा है तथापि स्वीकार्य हो जाना हमारे तत्कालीन व वर्तमान समाज के परिपक्व, परिवर्तन व प्रयोगधर्मी रहने का अकाट्य प्रमाण है। वस्तुतः इस देश में कांग्रेस और वामपंथियों ने स्वतंत्रता पूर्व और प्रारम्भिक स्वातंत्र्योत्तर दौर में बाबासाहेब के सामाजिक न्याय की अवधारणा को वर्ग संघर्ष का नाम देने का जो साशय प्रयास किया वह दुष्प्रयास बाद के दशकों में देश की नसों में विष की भांति प्रवाहित हुआ। इस विष ने ही बाद के वर्षों में आरक्षण जैसे पुण्य शब्द को एक ततैया शब्द बना डाला।

महाड़ आन्दोलन जैसे संघर्षों के उन दिनों में जब महात्मा गांधी देश में सर्वाधिक स्वीकार्य थे और बाबासाहेब से उनके मतभेद सार्वजनिक थे। तब डॉ.भीमराव आंबेडकर देश में हिंदुत्व और जातिवाद के नाम पर पनपी सामाजिक विषमता और सामाजिक असुरक्षा के विरुद्ध संघर्ष को आगे बढाते हुए स्पष्टता से कह रहे थे कि उनका सामाजिक न्याय से आशय सामाजिक सुरक्षा, सामाजिक समानता और सामाजिक स्वतंत्रता से है। और सामाजिक सुरक्षा से आशय प्राण, परिजन, आजीविका और संपत्ति की सुरक्षा से है और संविधान प्रदत्त मौलिक
अधिकारों के निष्कंटक प्रवाह से है। बाबासाहेब की बड़ी ही स्पष्ट भाषा और अभिव्यक्ति के बाद भी संकीर्ण राजनीतिक मानसिकता के चलते कांग्रेस के कई नेताओं ने उनकी भूमिका को संदिग्ध बनाने और इतर दलित समाज में उनकी स्वीकार्यता कम करनें के लिए बदनाम किया।
बाबासाहेब के विरुद्ध कांग्रेस का यह जन्मजात पूर्वाग्रह व बाद के वर्षों का सत्तामोह भारत में जातिगत समीकरणों को इस कदर उलझा गया कि भारतीय समाज की राजनीतिक प्रयोगधर्मिता व आत्मपरीक्षण की प्रवृत्ति ही समाप्त होती चली गई। स्मरण रहे कि एक समय में हम हमारे इस प्रगतिशील व प्रयोगधर्मी आचरण से ही हम एक ओर सोने की चिड़िया बनें तो दूसरी ओर विश्वगुरु भी कहलाए! इसके आगे चले तो हमारे राष्ट्र-समाज
ने यह भी देखा कि जब हम नवविचार, नवआचार, नवचरित्र से तनिक दूरी बना कर परिवर्तनों को नकारने लगे तब हम न तो सोने की चिड़िया रहे और न ही विश्वगुरु! अपितु हम तो पिछले कुछ दशकों में आत्मग्लानि, आत्मसंकोच तथा आत्मविश्वास विहीन समाज के रूप में भी दिखे थे! निस्संदेह यह कहना होगा कि इस स्थिति की जवाबदारी केवल परिवर्तन हीनता से भरे हुए एक दौर पर ही आती है। साथ ही यह भी कहना होगा कि विश्व के साथ अपने संवाद-संचार का मिलान गलत दृष्टियों से करने का व पश्चिमोंन्मुखी समाज निर्माण का जो निकृष्ट कार्य
पिछले दशकों के कांग्रेस काल में हुआ; वह भी इन परिस्थियों हेतु मुख्यतः जवाबदेह है।
हमारे समाज के समय की धुरी पर चलने के एक बड़े उदाहरण के रूप में देखें तो उसके एक प्रतिनिधि तौर पर कोल्हापूर के छत्रपति साहूजी महाराज का समय दिखता है जब उन्होंने 1902 दक्षिणी विंध्य के प्रेसीडेंसी रियासतों में पिछड़े वर्गों हेतु आरक्षण का प्रारम्भ किया था। बड़ी ही व्यापक सोच का यह आदेश भारत में प्रथम आरक्षण केन्द्रित अधिसूचना के रूप में जाना जाता है। 1932 के ‘पूना समझौता’ की परिस्थितियों में से कांग्रेस नेतृत्व के कुछ दुराग्रहों, पूर्वाग्रहों को घटा दिया जाए तो इसे भी हम हमारें सामाजिक नवाचार का एक विशिष्ट उदाहरण कह सकते हैं। स्वतंत्रता पश्चात मध्य का एक दौर रहा जब हमारी राजसत्ता जातिगत असंतोष तथा उनमें विभिन्न स्तर पर आती विसंगतियों को समझ पाने में असफल रही। अपने समाज को समय के साथ चैतन्य तथा जागृत करने के स्थान पर उसे बैसाखियों का आदती व लती बना देने की आत्मघाती व तुष्टिकारक नीतियों का ही परिणाम रहा कि भारत को 1990 का मंडल कमंडल जैसा भयावह दावानल झेलना पड़ा। उस समय वोट केन्द्रित
भारतीय सत्ताधीशों का हो न  हो किन्तु भारतीय समाज ऐसा अवश्य था कि इस अनियंत्रित मंडल उलझन के बाद हमारे समाज ने जातिगत संवेदनाओं को पहचाना भी और उस अनुरूप स्वयं को ढाला भी।
बाबासाहेब आंबेडकर ने जिस जातिगत विसंगति और असमानता के शब्द को स्वतंत्र भारत के समक्ष रखा था उस शब्द में भारतीय जनमानस ने संवेदनशीलता के साथ प्राण स्थापना की। बंधुत्व तथा समता आधारित भारतीय समाज ने जातिगत असमानताओं के अंधे कुए में से स्वप्रेरणा से स्वयं को बाहर निकाला। मध्य में एक विचार जाति मुक्त भारत का भी चला जो संभवतः समय पूर्व जन्मा विचार था और जिसके कारण अनावश्यक टकराव उत्पन्न हुए थे। इन टकरावों में हिन्दू समाज ने समय-समय पर जातिगत संदर्भों में अपने चरित्र में अपने आपद धर्म का तथा प्रायश्चित भाव का मुखर तथा विनम्र प्रदर्शन भी किया है। अपने संघर्ष मार्ग में बोधिसत्व बाबासाहेब ने अपने जिस लेखन संसार के माध्यम से अपनी व्यथा, वेदना संत्रास व आशाओं को व्यक्त किया उसमें “द एनिहिलेशन आफ कास्ट” में भी उन्होंने जो विचार व्यक्त किए वे भारतीय समाज की मूल भावना व आत्मा के साथ समय आधारित परिवर्तनों के विचार थे। भारत में जातिगत परिस्थितियां केवल परिवर्तन शील नहीं रहेगी अपितु विकासशील भी रहेगी यह बाबासाहेब को विश्वास था किन्तु नेहरु के दौर में जन्मी राजनीतिक धुंध
ने व बाद के दशकों में कांग्रेस के सत्ता मोह ने बाबासाहेब के इस अंतर्तत्व को कभी समझा ही नहीं। यदि समय के साथ साथ बाबासाहेब के विचारों पर नए नए प्रयोग, परीक्षण व उन पर शोध होते रहता तो हमारे देश को आरक्षण के नाम पर इतना भययुक्त वातावरण कभी न मिलता।  
साभार : न्यूज़ भारती

सोमवार, 21 सितंबर 2015

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ  के अखिल  भारतीय प्रचार  प्रमुख  डॉ  मन मोहन वैद्य ने कहा है की परम पूजनीय सरसंघचालक ने वर्तमान आरक्षण व्यवस्था पर कोई टिप्पणी नहीं की  

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ  के अखिल  भारतीय प्रचार  प्रमुख  डॉ  मन मोहन वैद्य ने कहा है की परम पूजनीय सरसंघचालक ने वर्तमान आरक्षण व्यवस्था पर कोई टिप्पणी  नहीं की 

‘Strengthening the weakest link will lead the nation to Development’




‘Strengthening the weakest link will lead the nation to Development’


Deendayalji was a reluctant politician. By nature, he was a thinker and organiser.
Still, when he was told to take the responsibility of Bharatiya JanaSangh, he tried his best to transform the nature of Bharatiya politics with his golden touch. This 25th September marks the beginning of his birth centenary year. On this occasion, RSS Sarsanghachalak Mohan Bhagwat had a frank conversation with Prafulla Ketkar, Editor, Organiser and Hitesh Shankar, Editor, Panchjanya about this committed swayamsevak and Pracharak, and relevance of his thinking propounded in the form of Integral Humanism. Excerpts:
  • Do you see reflection of Deendayalji’s political philosophy in the present day party politics? Is reality in tune with his vision?
It is clearly evident that the nature and conduct of the present day politics is not in tune with theprinciples of Integral Humanism. Presently, politics is not for nation, not for the last man standing, but revolving around the interests of political parties. In rajniti (politics), raj that means power comes
first, followed by niti (policy). When everyone thinks in the same way, everything revolves around ‘power’. Attaining power is an easy task, but policy making on certain principles is difficult. Society also thinks on the same lines, as people also evaluate political parties and politicians on electoral victory and defeat, and not what they do after victory or defeat. Victory and defeat depend on momentary waves, issues converted into calculations for votes. I am not saying it is because of the Constitutional provisions or political parties and the politicians are responsible for this, but this is a general melody. Even if a political party decides to work on ideological and policy lines, it gets defeated by people with selfish interests. In the absence of political maturity, parties tend to play with emotions for gaining power. Politics thus has become a race for attaining power.

This political system, revolving around shortcuts for political power, has to be transformed and merely people sitting there cannot do that. Society has to do that. If voters come out of petty interests, forgoing individual, caste or community interest in larger national interest, only then will the situation change. Then, political parties will also have to follow the rule. If real political reforms take place, then things can change.

Sometimes at critical junctures, when the situation becomes unbearable, people have voted for change, going beyond narrow interests. But this has to be more permanent than momentary.  Consistent and stable political maturity of the society can transform the system in line with Integral
Humanism.
  • We are celebrating birth  centenary year of Deendayalji. This year is also the golden jubilee year of his enunciation of Integral Humanism. The contexts have changed. How
    far do you see the relevance of his thinking in the present context?
Context has definitely changed, but relevance of Integral Humanism will remain as the philosophical
framework since it is based on eternal principles. Of course, principles have to be redefined in the present context. The strength of a society depends on the condition of the last man standing. Weakest link should be strengthened. This should be everybody’s concern. This will never change. But what kind of schemes should be devised to strengthen the weakest link so that it can change according to the context. This has to be done in the light of Integral Humanism.
  • When Integral Humanism was  articulated, Socialism was the buzz word in Bharat. Now there is talk of liberalisation and globalisation. How far has the context changed and
    Integral Humanism re-contextualised?
The real issue is not about which word or ideological framework is in fashion, but honesty and intention in implementing the principles that ideology espouses. Both, Socialism and Liberalism were propounded for the overall development of the humanity.
After establishing Communist rule in Russia in 1917, the credibility of Socialism and Communism deteriorated. The same is true for Liberal Capitalism. The US is trying to dominate the world in the name of Liberal Principles, but in reality there are only selfish interests and no liberalism. There was never a struggle for ideological supremacy, but of selfish interests.

The action verifies the principles and not the other way round. Tomorrow if Communists come to power and sincerely follow the principles of Communism after attaining power, then perhaps they will realise the limitations of Communist ideology and can make necessary amends. Both Socialism and Capitalism come and go in reaction to each other. Socialists become Capitalists and vice a versa.

But no one says that it is the failure of Socialism or Capitalism as for them it is not an ideological question, but just of power and selfish interests. In Bharat, can we really address this issue of sincerity about ideological positions, nurture the political culture of being honest about our ideological principles and act accordingly, is the real question. Here Integral Humanism shows the way.
  • ‘Politics for Nation’ was at  the basis of Deendayalji’s philosophy. Now there is a political change  in the country and people have lot of expectations. Do you see this as  an end of divisive and appeasement politics and beginning of a new era?
I think I have addressed this in my answer to the first question. They will have to do it, but merely change of guard is not going to change the overall situation. If only one party tries to do that then there will always be doubt about how far they can go. If appeasement policies are followed, then how far they can go, I am not sure. Social awakening is also necessary for this.

Ultimately, people get the government they deserve. Whether the society is ready to live and die for the nation is the real issue we need to address. Politicians will have to play their role, but society has to create the environment for as per that role. Both should go hand in hand. Slogans such as Garibi Hatao (eradicate poverty) will work until there is poverty. Once poverty is eradicated, once people are educated, then people in power will have to face more questions and challenges. So they may not like to face such a situation. Politicians should stay away from such temptation. They should facilitate all efforts to change the atmosphere towards national reconstruction.
  • What can be the practical approach to bring Integral Humanism in practice?
Whenever we think of a Darshan or philosophy, we do not limit it only for Bharat, but extend it for the whole universe. Saintly figures like Dyaneshwar also said that the whole world should see the rise of own Dharma. Dr Hedgewar also proposed a resolution in the Congress session on ‘Complete Independence for Bharat to free the world from the capitalist imperialism’, unfortunately which was not accepted. This goal of Bharat as Nation should be clear to the common people of Bharat. Integral Humanism is the thought process to realise the true potential of Bharat. This can resolve many problems of the world and not only of Bharat. World over all ideologies are exploitative and suppressive. Deendayalji provided alternative to all of them through Integral Humanism, based on the concept of Dharma. Till date, we have experimented with the system on the basis of foreign ideologies. This has been the fashion of the day. Without completely discarding them, we need to accept their positive aspects and adding inputs from the soil of Bharat we need to think of constructing a new model. Some efforts are going on in this direction through the present dispensation. This darshan of a powerful and prosperous Bharat is for the welfare and peace all over the world, which is all the more relevant today. To realise this, we need to explore relevant policy experiments.

  • Though Bharat is primarily  considered an agrarian nation, the plight of farmers is really sad. How  can we find solutions to the problems of farmers in the light of  philosophical direction shown by Deendayalji?
Our inherent connectivity to Nature including agriculture and forests is the secret of our enriched life
values and culture. We consider Nature an integral part of human life. We always lived as a unit in the world. Presently also, Bharat is primarily agrarian. Farmers and Vanvasis are true carriers of Bharatiya interests and way of life. Even policy reforms should follow them. While doing this, one thing should be clear that industries should also be in tune with our conventional wisdom. Before British started ruling us, 200 years ago, we were leaders both in agricultural and industrial production. Many researchers have proved with data that we integrated these two ways of production for thousands of years. After British ruining this tradition, we are also thinking in a fragmented way where we think agrarian and industry in isolation and antithetical to each other. This is typical a western approach. We need not carry either agrarian or industrial tag, we need both. All the policies should be such that even poorest of the poor farmer should come out of poverty.

Landless labourer should not be forced to commit suicide. At the same time, to be relevant in the world, we need to move ahead in the field of industry and technology. Deendayalji said, necessary industrialisation should take place without deforestation and maximum utilisation of barren land. Once we should assess our need of agricultural land so that we can fulfil our needs and also ensure some food supplies to the world. We need to evaluate the forest covers to ensure environmental balance. Then how much land to allocate for the industry, can also be calculated.

In this regard, Man. Sudarshanji, former RSS Sarsanghachalak, did an exemplary experiment in Jharkhand. Calling a group of Scheduled Tribes, he presented a technology of iron making with a small tandoor like mould. Taking such examples into account, we need to find new ways and do new experiments. American and European conditions are different. Therefore their systems of planning are different. They cannot be uniformly applied everywhere. Whatever is good with them we will definitely learn, but primarily we need to devise technology and policies as per our needs. I firmly believe that the integration of our technology, knowledge and tradition of Bharat can give a system, which can ensure happiness and welfare of all.In political science it is taught that pressure groups make democracy vibrant. Panditji believed that we need to take care of each other’s interests and move forward.
  • How you see agitations such as demand for ‘One Rank, One Pension’ or  reservations from the Integral humanist perspective?
  •  
I do not think that Integral Humanism has negated the role of interest groups. Interest groups are formed because we have certain aspirations in democracy. At the same time, we should remember that through interest groups we should not strive to address those aspirations at the cost of others. We should have integral approach of welfare for all. It is sensible to realise that my interest lies in larger national interest. Government also has to be sensitive to these issues that there should not be any agitations for them. From the Integral Humanist perspective, the thinking that Government is different from us, should be altered. For instance, you need a fan on fast speed while I don’t want it at all, still we can both agree to have a fan on lesser speed. Harmonisation of interests is possible with this perspective. We can move forward with synchronisation and not struggle.

My interest is in collective interest, should be realised by both, government and society. This balance is required from both sides. In fact, they are not two sides but just parts of the integral whole.  Everyone should realise that suppression and oppression of one section by the other is against the interests of all. That should be the approach we need to inculcate.
  • There seems to be a  contradiction here. On the one hand you are saying that society is not  that matured but at the same time you expect this weakest link to  perform a transformative role. Don’t you think this is more ideal than  practical?
This may look impractical and difficult, but this is the only way forward. There is no alternative. Government has to formulate effective policies and society should be organised with integral perspective. These complementary processes have to go hand in hand. Political parties will have to resolve that ‘yes we can do this’. We have not tried this so could not achieve it. If both, social and political elites, accept this and strive in the same direction we can achieve this. Sometimes we will have to pass through difficult situations but we have to continue in the desired direction. For instance, while taking a route march with drums, we face a situation where instruments cannot be played, but marching has to be on by finding the alternate route. Finally, we have to synchronise again. This may
look a small example but this is the right example as it reflects the mindset. People in power and those working in society together can make the nation stronger, not with struggle. Integral Humanism is the most practical approach, we have to walk a bit with this approach to realise it on the ground. Unless we demonstrate it through adequate experimentation we cannot prove the practicability of the same.

  • There have been strains in the  Centre-State relations. Sometimes in the name of special packages, while sometimes on identity issues. How can we find a way out to this problem
    through Integral Humanism?
Emotional cordiality is the only solution to this. Both Centre and States are running governments for the Nation. Unitary states are constituents of the nation, they are not separate. As hands, legs or brain cannot claim that they are independent; similarly states are also integral parts of body politic.

Until, this bonding is there, everything will be in line. Once special packages become a political tool and all other constituents feel that political blackmailing can take them forward then it leads to unhealthy competition. We need to logically justify and act for harmonious relations.
  • You said integrity and honesty  are the main parameters. Do you see any such policy initiative,  undertaken or suggestive, which is in tune with Integral Humanism?
  •  
Reservation for socially backward classes is the right example in this regard. If we would have implemented this policy as envisaged by the Constitution makers instead of doing politics over it, then present situation would not have arrived. Since inception it has been politicised. We believe, form a committee of people genuinely concerned for the interest of the whole nation and committed for social equality, including some representatives from the society, they should decide which categories require reservation and for how long. The non-political committee like autonomous commissions should be the implementation authority; political authorities should supervise them for honesty and integrity.
  • Integral Humanism links  education and education policy with both employability and sanskars  (values for balanced life). Can you suggest some measures to reform the present education policy?
First, if all we need to reform the prevalent thinking about education. All important education centres
accept that education should be employable and at the same time it should produce good human beings. Post-Independence, we never thought of our own model of education based on our values. Whatever little suggestions were made, those were never implemented. Based on the integral approach, we need to completely transform the condition and direction of our education system. Education policy should focus on the making of good and motivated teachers, for which, interference of people in power in the field of education should reduce. Education should be based on truth; it should give confidence to the citizens. It should make us good human beings. I am not limiting education to what is provided in schools. Education should get conducive atmosphere in family and society as well. Deendayalji used to talk about society-centric education. We need to sincerely think and move forward in that direction.  
Courtesy :: Organiser

विशेष साक्षात्कार- 'अंतिम व्यक्ति के उद्धार से निकलता है देश की प्रगति का मार्ग' सरसंघचालक श्री मोहनराव भागवत का विशेष साक्षात्कार

विशेष साक्षात्कार- 'अंतिम व्यक्ति के उद्धार से निकलता है देश की प्रगति का मार्ग'




एकात्म मानव दर्शन के माध्यम से देश के अंतिम व्यक्ति के सर्वांगीण विकास का मार्ग दिखाने वाले पंडित दीनदयाल उपाध्याय की जन्मशती को लेकर सारे देश में एक अनूठा उत्साह है। उनके द्वारा प्रतिपादित विचारों के आधार पर खड़ा राजनीतिक संगठन इस समय देश का संचालन सूत्र संभाले है तो उससे देश के मूल्यों और जीवन आदर्शों के आधार पर राष्ट्र का विकास करने की अपेक्षा सहज स्वाभाविक है। पंडित दीनदयाल उपाध्याय की जन्मशती और देश के सम्मुख उपस्थित विभिन्न विषयों के संदर्भ में पाञ्चजन्य के संपादक हितेश शंकर और आर्गेनाइजर के संपादक प्रफुल्ल केतकर ने सरसंघचालक श्री मोहनराव भागवत का विशेष साक्षात्कार लिया। प्रस्तुत हैं साक्षात्कार के प्रमुख अंश।
विशेष साक्षात्कार- 'अंतिम व्यक्ति के उद्धार से निकलता है देश की प्रगति का मार्ग'
 


* दीनदयाल जी के राजनीतिक दर्शन और आज की दलीय राजनीति में आपको क्या अन्तर दिखता है? क्या हकीकत वही है जिसका सपना देखा गया था?
दीनदयाल जी के एकात्म मानव दर्शन के अनुसार राजनीति को जैसा चलना चाहिए वैसी आज तो नहीं चल रही है, ये तो बिल्कुल साफ बात है। राजनीति में केवल दलीय स्वार्थ होना देश और समाज के लिए हितकारी नहीं होता। आज की राजनीति में राज, यह पहला शब्द है, नीति दूसरा शब्द है। इससे जो वातावरण बनता है उसमें राज्य पाना तो आसान हो जाता है लेकिन राज्य पाने के बाद नीति चलाना कठिन हो जाता है। इससे समाज में भी वही वातावरण बनता है। अभी समाज भी जो मूल्यांकन करता है वह जीत-हार के आधार पर ही करता है। जीतने के बाद कैसे रहें, हारने के बाद कैसे रहें, ये विचार नहीं होता। और जीत-हार तो उस समय की जो हवा रहती है, समस्यायें रहती हैं उसको वोटों के गणित के हिसाब से भुनाने पर निर्भर है। इसका कारण राजीनतिक दल या राजनीतिज्ञ या कोई संविधान है ऐसा नहीं है। लोगों की समझदारी भी विकसित नहीं हुई। इसलिए राज्य प्राप्त करने के लिए कोई एक दल नीति का अंगीकार करके चले भी तो स्वार्थ का अंगीकार करके चलने वाले दल आगे होते हैं। लोगों की भावनाओं से खेलकर राज्य प्राप्त करना आसान है। ऐसी अवस्था में पहले राज्य प्राप्त करना फिर बाकी की चिन्ता कैसे करना, इस दौड़ में अगर शामिल होना है तो फिर राज की तरफ झुकना पड़ता है। ये मजबूरी सभी राजनीतिक दलों की दिखाई है।

जिन गरीबों के लिए आप काम करते हैं वे तो पैसा देने वाले लोग नहीं हैं। पैसे देने वाला पूंजीपति है जो बाद में वसूलता भी है। यह सब राजनीतिक दलों को करना पड़ता है।

इस चक्र से कैसे बाहर आना, इसका उपाय होना चाहिए। चुनाव सुधार अगर हुआ तो ये सारी बातें नहीं चलेंगी। इस दुष्चक्र से बाहर आने के उपाय राजनीतिक दलों के हाथ में नहीं हैं। इस स्थिति को बदलना समाज के हाथ में है। मतदाता अगर समझदारी से मतदान करे, जाति या संप्रदाय के छोटे स्वाथार्ें से ऊपर उठकर देशहित में मतदान करे, तो फिर राजनीतिक दलों में उसके पीछे चलने का वातावरण बन सकता है।

* देश दीनदयाल जी की जन्मशती मनाने जा रहा है। एकात्म मानव दर्शन के विचार का पचासवां वर्ष है। आज के समय में क्या इसकी प्रासंगिकता या संदर्भ बदले हैं?
 
एकात्म मानव दर्शन की प्रासंगिकता बदलेगी नहीं क्योंकि जिन मूल तत्वों पर वह आधारित है वे शाश्वत हैं। सदा सर्वदा व्यक्ति के जीवन को केन्द्रित करने वाले तत्वों की प्रासंगिकता कभी नहीं बदलेगी। संदर्भ बदलते हैं, तद्नुसार उनको उसे व्याख्यायित करना पड़ता है। समाज की शक्ति उसके सबसे दुर्बल घटक की शक्ति जितनी ही होती है। कमजोर व्यक्ति समर्थ हो इसकी चिंता सबको करनी है। ये कभी नहीं बदलेगा।

* 50 वर्ष पहले जब दीनदयाल जी ने एकात्म मानवदर्शन का विचार दिया था तब समाजवाद शब्द का बोलबाला था। आज वैश्वीकरण का बोलबाला है। तो संदर्भ कितने बदले हैं और पुनर्व्याख्या कहां तक हुई है?

इन बातों का संदर्भ एक नहीं है। लेकिन मूल बात है विचारों के पीछे की प्रामाणिकता। समाजवाद की प्रामाणिकता, जों रूस में समाजवादी शासक आने के बाद कम होती गई, ऐसे ही पूंजीवाद की बात है। वे लोग शोषण करते हैं जिन्हें अपनी सुविधा की बात लेकर चलना है। जैसा बोलते हैं, वैसा करने वाले उदाहरण कम हैं।
आज रूस में समाजवाद और अमरीका में पूंजीवाद किन्हीं आदशार्ें पर चलता दिखाई नहीं दे रहा। दोनों में ही स्वार्थ मुख्य बात है। आज के संदर्भ में मुझे तो कोई विचारधाराओं की लड़ाई नहीं दिखती। अपने तत्वों पर प्रामाणिकता से चलने वाले लोग और उन तत्वों का उपयोग कर अपना उल्लू सीधा करने वाले, ये दो प्रकार के लोग हैं। यही दो पक्ष दुनिया में आज प्रबल हैं और सर्वत्र प्रभावी हैं। अपने यहां और सारी दुनिया में ऐसा ही है।

* राष्ट्रनीति के एक अंग के रूप में राजनीति पंडित जी के दर्शन का मूल थी। अब देश में एक राजनीतिक परिवर्तन हुआ है। क्या आपको लगता है कि तुष्टीकरण और समाज विभाजन की राजनीति खत्म होगी, नया दौर शुरू होगा?

यह तो करना ही पड़ेगा। नहीं तो नहीं होगा। केवल तुष्टीकरण करेंगे तो वे चल सकेंगे कि नहीं, इसका पता नहीं। समाज का प्रबोधन हो, समाज में स्वार्थ एवं भेदों के ऊपर उठकर देश के लिए जीने-मरने वाला भाव फैलाना आवश्यक है। समाज में इस दृष्टि से समझदारी बने और राजनीतिज्ञ भी इस कार्य में सहायक हों।

* एकात्म मानव दर्शन के क्रियान्वयन की दृष्टि से कौन से नीतिगत प्रयास हो सकते हैं?

हम किसी भी दर्शन या विचारधारा पर जब विचार करते हैं तो केवल भारत के लिए नहीं पूरी सृष्टि के हिसाब से विचार करते हैं। ज्ञानेश्वर महाराज ने कहा था विश्व स्वधर्म की स्थापना हो। डा़ हेडगेवार ने कांग्रेस अधिवेशन में भारत के लिए स्वतंत्रता और विश्व को पूंजीवाद के चंगुल से मुक्त कराने संबंधी प्रस्ताव दिया था जो कांग्रेस को स्वीकार नहीं हुआ। भारतवर्ष के सामान्य लोगों के सामने भी अपने देश का लक्ष्य ठीक होना चाहिए। एकात्म मानव दर्शन भारतवर्ष के पुरुषार्थ को प्रकट करने वाला विचार है। ये केवल भारत की ही नहीं, विश्व की सभी छोटी-बड़ी समस्याओं का उत्तर दे सकता है। विश्व में जो भी व्यवस्था आई वह दमनकारी और भक्षण करने वाली थी। दीनदयाल जी ने एकात्म मानव दर्शन के माध्यम से धर्म संकल्पना पर आधरित एक मौलिक योगदान संपूर्ण विश्व को दिया है। विदेशी विचारधाराओं के आधार पर आज तक जो तंत्र बने वही अपने देश में भी चलता है। 'फैशन ऑफ द डे' जैसा चल रहा है। उसकी अच्छी बातें लेकर उसमें अपनी मिट्टी के 'इन्पुट्स' देकर हम भारत का कौन सा नया मॉडल खड़ा कर सकते हैं, ये तंत्र चलाने वालों को सोचना पड़ेगा। थोड़ा-बहुत वर्तमान तंत्र में ये आ रहा है। ये दिशा उन्होंने पकड़ी है तो बहुत अच्छा है। समर्थ भारत की अवधारणा वाला यह दर्शन विश्व के लिए कल्याणकारी, मंगलकारी है। ये बात आज भी प्रासंगिक है। इसे मूर्तरूप देने के लिए नीतिगत प्रयोग करने पड़ेंगे।

* देश कृषि प्रधान है लेकिन किसान सबसे ज्यादा व्यथित है। क्या पंडित जी के दर्शन के आलोक में आज के किसान की व्यथा के कारण एवं हल ढूंढे जा सकते हैं? 

अपने देश के सारे जीवन मूल्य एवं समृद्ध संस्कृति जो बनी, उसका कारण है हमारा कृषि कार्य करना व वनों से जुड़ाव। इसी के साथ जीवन जीते-जीते हमारा विकास हुआ। हमने प्रकृति को भी अपने जैसा ही समझा। हम सारे विश्व में एक घटक के रूप में रहे। आज भी भारतवर्ष कृषि प्रधान देश ही है। भारत के हित, उसकी संस्कृति का वैभव और उसकी उन्नति के प्रेरक और जीवटता के मूल में कृषक एवं वनवासी समाज ही है। अब नीतिगत सुधारों को भी इसी दिशा में चलना पड़ेगा। केवल एक बात ध्यान में रखनी चाहिए कि उद्योगों को हमने अपनी परम्परा के अनुसार संचालित करना है। यानी आज से 200 साल पहले जब अंग्रेजी शासन हावी रहा उस समय हमारी कृषि और उद्योग पर ग्रहण लग गया। अंग्रेजों के आने से पूर्व उद्योग जगत में भी हम पहले स्थान पर थे और हजारों वर्ष की परंपरा में उद्योग और कृषि का समन्वय करके हम चले। अभी ये जो प्रवृत्ति है किसानों का हित करने में ही किसानों का हित है, उद्योगों का हित करने में ही उद्योगों का हित है, ये एकांगी विचार पश्चिम की देन है। हमने तो ये विचार किया कि ये सब समन्वित रूप से ठीक चलने चाहिए। इसके लिए कृषकों का हित और उद्योगों का हित समान रूप से देखा जाए। हम उद्योग प्रधान या कृषि प्रधान जैसा कोई एक विशेषण नहीं लेना चाहते। हमें उद्योग भी चाहिए और कृषि भी चाहिए। गरीब से गरीब किसान भी गरीब न रहे। खेतीहर मजदूर भी आत्महत्य् ाा के लिए विवश न हो। ऐसी ही नीति और कानून होने चाहिए। परन्तु उसके साथ-साथ आज की दुनिया में उद्योग और तकनीकी के क्षेत्र में भी देश को आगे बढ़ाना पड़ेगा। औद्योगिकीकरण के बाद दीनदयाल जी ने कहा कि औद्योगिकीकरण जितना आवश्यक हो उतना होना चाहिए। बिना जंगल काटे और बिना खेती की उपजाऊ जमीन लिए हमें उद्योग लगाने पर विचार करना चाहिए। हमारे सारे लोगों का भरण-पोषण होने के साथ ही दुनिया को भी हम कुछ अन्न दे सकें इसके लिए किसान हित में कृषि के लिए कितनी जमीन आवश्यक है इसका आकलन करना चाहिए। जंगल कितने चाहिए ताकि पर्यावरण इत्यादि सब ठीक रहे और शेष जमीन में उद्योगों को हम कैसे आगे बढ़ा सकते हैं, इसका हिसाब लगाना होगा। इस दृष्टि से माननीय सुदर्शन जी ने झारखंड में एक प्रयोग करवाया था। जनजातीय समाज के लोगों को बुलाकर एक परंपरागत छोटी भट्टी से लोहा निर्माण की तकनीक को उन्होंने प्रदर्शित कराया। इसका आधार लेकर भारत को तकनीक के क्षेत्र में भी अपनी नई राह खोजनी होगी, नए प्रयोग करने पड़ेंगे। अमरीका-यूरोप की परिस्थिति एवं व्यवस्था अलग है। अत: वहां अलग प्रकार की प्रणाली होगी। समूची दुनिया में उनकी प्रणाली के अनुसार बदलाव करना अच्छा नहीं है। बाहर का जो अच्छा है उसे हम स्वीकार करें परंतु मुख्य रूप से हम अपने अनुसार ही तंत्र एवं नीति का निर्माण करें। मैं समझता हूं कि भारतवर्ष अपने यहां जो तकनीक, विद्या और परम्परा है, उसका समन्वय करके सबको सुखी रखने वाली व्यवस्था दे सकता हैे।

* लोकतंत्र  दबाव समूहों से मजबूत होता है, ऐसा राजनीति शास्त्र में विद्यालयों से लेकर विश्वविद्यालयों तक पढ़ाया जाता है। दीनदयाल जी का दर्शन एक-दूसरे की आवश्यकता समझते हुए आगे बढ़ने की बात करता है। 'वन रैंक वन पेंशन ' या भूमि अधिग्रहण के लिए आन्दोलन करने वाले किसान या आरक्षण की एक हवा उठाने का प्रयास, एकात्म मानव दर्शन के संदर्भ में इनको आप कैसे देखते हैं?  

मुझे लगता नहीं कि एकात्म मानव दर्शन ने दबाव समूहों को नकार दिया है। दबाव समूह क्यों बनते हैं? प्रजातंत्र में कुछ आकांक्षाएं होती हैं, लेकिन दबाव समूहों के माध्यम से दूसरों को दुखी करके इन्हें पूरा नहीं किया जाना चाहिए। सब सुखी हों, ऐसा समग्र भाव होना चाहिए। लेकिन देश के हित में हमारा हित है, ये समझकर चलना समझदारी है। शासन को इतना संवेदनशील होना चाहिए कि आन्दोलन किए बिना समस्याएं ध्यान में लेकर उनके हल के प्रयास करें। एकात्म मानव दर्शन के प्रकाश में सरकार अलग है, यह सोच बदलने की जरूरत है। आपको पंखे की हवा चाहिए और मुझे नहीं चाहिए। हो सकता है हम दोनों तय करें कि, अच्छा पंखा 4 पर मत चलाओ, 1 पर चलाओ। इसके आधार पर बात आगे बढ़ती है। आगे बढ़ने का रास्ता संघर्ष नहीं, समन्वय है। इसलिए पूरे समाज के हित में हमारा हित है, ये दृष्टि शासनकर्ताओं और समाजवेत्ताओं,  दोनों की आनी चाहिए। उचित संतुलन दोनों ओर से होना चाहिए। वास्तव में तो ये दो पक्ष हैं ही नहीं, एक ही समाज है, सत्ता से एक अंतिम फटेहाल व्यक्ति तक, ये समाज एक इकाई है। और किसी एक वर्ग के द्वारा किसी एक के हित को लगातार दबाते रहना, यह समूचे हित के खिलाफ है। ये ध्यान में रखकर इस दृष्टि से कार्य होना चाहिए।

* एक विसंगति दिखती है। आपके कहने में आया कि समाज उतना समझदार नहीं है परन्तु जब सबसे कमजोर कड़ी पर ही एक आदर्श व्यवस्था खड़ी करने की जिम्मेदारी आ जाती है तो आपको नहीं लगता कि ये व्यवस्था व्यावहारिक कम है आदर्शवादी ज्यादा है? इसे जमीन पर उतारना सरल नहीं है? जो व्यक्ति अभी इतना परिपक्व नहीं हुआ है, अभी इतना समझदार नहीं हुआ कि अपने हित से आगे कुछ बड़ा सोच पाए, ऐसे में वही उस जिम्मेदारी का केन्द्र बन जाए। इस स्थिति को आप कैसे देखते हैं?

ये स्थिति बनती है, लेकिन तब तक एक राह भी है, जो आप देख रहे हैं। पर्याय होता तो समस्या खड़ी न होती, शाासन को अपनी नीतियां प्रभावी बनानी चाहिए। ये दोनों पर्याय का समूह हैं। समाज को सही दिशा में हमें ले चलना है। उस नजरिये से ये आज की स्थिति में उतर सकता है कि नहीं ये करके देखना पड़ेगा। क्या हम इसको कर सकते हैं? मेरा मानना है कि अब तक जितने राजनीतिक दल हैं उनमें 'हां हम ये कर सकते हैं' की दृढ़ता कम दिखायी दी है। ऐसा अभीष्ट अभी तक पूर्ण नहीं हुआ है, लेकिन हमको पूर्ण करना है। ये सत्ता की भी समझ में आए और समाज की  भी समझ में आए तो सब ठीक हो जाएगा। विषम परिस्थिति में भी चलना पड़ता है कभी-कभी। फिर स्थितियां अनुकूल हो सकती हैं। घोष वादन सतत् चलना चाहिए लेकिन कभी ऐसी परिस्थिति आती है कि घोष बजता ही नहीं, लेकिन लोग बिना घोष वादन के भी संचलन में अपने-अपने कदम ठीक रखें, यह आवश्यक है। समाज में आज जो प्रयास चल रहे हैं उनमें कुछ आशा दिखती है और इस प्रकार सुशासन चल सकता है। सत्ता और समाज के आपसी सहयोग से देश बना है, इसके संघर्ष से नहीं बना है। एकात्म मानव दर्शन बिल्कुल व्यावहारिक बात है। इसे धरती पर उतारने के लिए हमको और कुछ करना पड़ेगा। जब तक हम प्रयोग द्वारा वह दिखा नहीं पाते तब तक हम इसकी व्यावहारिकता को सिद्ध नहीं कर सकते।

* केन्द्र एवं राज्यों के बीच खींचतान लगातार चलती रहती है। एकात्म मानव दर्शन के परिप्रेक्ष्य में यदि कहा जाए तो क्या किसी राज्य के लिए  राजनीति से प्रेरित  विशेष पैकेज होना चाहिए या राष्ट्र हित से प्रेरित होना चाहिए? और इस खींचतान का हल क्या है?

इसका तो एक ही हल है-सद्भाव। केन्द्र भी देश के लिए सत्ता चलाता है। राज्य भी देश के लिए सत्ता चलाता है। राज्य नामक इकाई देश में एकात्म है। यह अलग इकाई नहीं है। स्वायत्त नहीं है। हाथ कहे कि मैं स्वायत्त हूं, पैर कहे मैं स्वायत्त हूं, दिमाग कहे मैं स्वायत्त हूं। पूरा शरीर उसका है तो राष्ट्र-पुरुष के रूप में हम एक पूर्ण इकाई हैं। ये भाव अगर हैं तब सब ठीक है। और इसलिए पैकेज देते समय ये हमेशा ध्यान में होना चाहिए कि अपने शरीर के सब अंग राजनीति से प्रेरित नहीं हैं। लेकिन सब लोग उसका राजनीति के लिए उपयोग करते हैं और उस स्पर्धा में अगर हम हैं तो हमको क्या करना है। ये तो चलने वालों को तय करना पड़ता है। उन्हीं को ये तय करना पड़ता है कि इस स्पर्धा में भी आगे जाएं। यह बाद में राजनीति का ही साधन बन जाए, ऐसा हमको नहीं करना है। लेकिन हम ऐसा सोचने वाले लोग स्पर्धा में पिछड़ जाएंगे, उपयोग करने वाले लोग ही हावी हो जाएंगे और ये साधन बन जाएगा, उसे भी टालना है। इसे युक्तिसंगत तरीके से देखना और करना पड़ेगा।

आपने कहा कि प्रामाणिकता ही कसौटी होती है। कोई ऐसी नीति जिसमें आपको लगता हो कि ये ठीक है और पूरी प्रामाणिकता से लागू की गई, ऐसी नीतियों से एकात्म मानव दर्शन साकार हो सकता है। क्या ऐसी कोई एक नीति आपको दिखाई देती है जो लागू की गई  है या नहीं भी की गई है? आपकी क्या कल्पना है?

जैसे अपने संविधान में सामाजिक पिछड़े वर्ग पर आधारित आरक्षण नीति की बात है तो उसको राजनीति के बजाय जैसा संविधानकारों के मन में था, वैसा उसको चलाते तो आज ये सारे प्रश्न नहीं खड़े होते। संविधान में जब से यह प्रावधान आ गया तब से उसका राजनीति के रूप में उपयोग किया गया है। हमारा कहना है कि एक समिति बना दो। जो राजनीति के प्रतिनिधियों को भी साथ ले, लेकिन चले उन लोगों की जो सेवाभावी हों तथा जिनके मन में सारे देश के हित का विचार हो। उनको तय करने दें कि कितने लोगों के लिए आरक्षण आवश्यक है। कितने दिन तक उसकी आवश्यकता पड़ेगी। इन सब बातों को लागू करने का पूरा अधिकार उस समिति के हाथ में हो। ध्यान में रखना होगा कि ये सारी बातें प्रामाणिकता से लागू हों।

* एकात्म मानव दर्शन में शिक्षा और शिक्षा नीति, दोनों को काम से और संस्कार से भी जोड़ा गया है। आज के संदर्भ में यदि शिक्षा नीति को ठीक करना है तो आप क्या सुझाव देंगे?

पहले तो हमें प्रचलित सोच को ही एक नया रूप देना पड़ेगा, इसे बदलना पड़ेगा। दुनिया में जितने शिक्षा केन्द्र हैं सबको मालूम है कि शिक्षा एक तरफ पेट भरने की कला सिखाती है तो दूसरी तरफ एक अच्छा मनुष्य बनाती है। उस दृष्टि से अपने देश के मूल्यों के आधार पर देश की शिक्षा हो, ऐसा अपने यहां कभी सोचा ही नहीं गया। एक बार इस विषय पर विचार कर शिक्षा नीति की दशा और दिशा बदलने की आवश्यकता है। शिक्षा नीति में बहुत कुछ बदलना है। शिक्षा नीति का प्रारंभ शिक्षक से होना चाहिए। योग्य शिक्षक चाहिए। योग्य शिक्षक चाहिए तो शिक्षकों को भी वह प्रेरणा देनी पड़ेगी। शिक्षा पर सत्ता में बैठे लोगों का हस्तक्षेप कम हो। शिक्षा सत्य पर आधारित हो। सत्य पर आधारित शिक्षा नागरिकों में आत्मविश्वास भरने वाली होती है। शिक्षा मनुष्य को मनुष्य बनाने वाली संजीवनी है। और एक बात मैं कहता हूं कि शिक्षा केवल विद्यालय में नहीं होनी चाहिए, घर में, समाज के वातावरण में होनी चाहिए। दीनदयाल जी बार-बार समाज केन्द्रित शिक्षा की बात करते थे। हमें प्रामाणिकता से उस दिशा में सोचना और कदम बढ़ाना चाहिए। *

साभार :: पाञ्चजन्य

बुधवार, 16 सितंबर 2015

सत्ता नहीं, जनता करेगी बीस वर्ष में सपने पूरे

सत्ता नहीं, जनता करेगी बीस वर्ष में सपने पूरे



जयपुर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत इन दिनों राजस्थान प्रवास पर हैं। हाल ही दिल्ली में हुई भारतीय जनता पार्टी और संघ की समन्वय बैठक में केंद्र में सत्तारूढ़ होने के बाद एजेंडे से हटने को लेकर संघ की केंद्र सरकार से नाराजगी चर्चाओं में छाई हुई है। 
इधर, देश में भ्रष्टाचार, आरक्षण जैसे मुद्दे फिर तेजी से मुंह उठा रहे हैं। इस पृष्ठभूमि में मंगलवार को मोहन भागवत एवं पत्रिका समूह के प्रधान सम्पादक गुलाब कोठारी के मध्य जयपुर के भारती भवन में राष्ट्रहित से जुड़े अनेक महत्वपूर्ण विषयों पर चर्चा हुई।
कोठारी ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को विश्व का सबसे बड़ा जन संगठन बताते हुए कहा कि जितना बड़ा यह संगठन है, उतनी हीअधिक देशवासियों को इससे उम्मीदें भी हैं। 
ऐसे में उन्होंने भागवत से जानना चाहा कि संघ प्रमुख के रूप में वे देश के भविष्य की कैसी तस्वीर देखते हैं और देशवासियों को देश के बारे में कैसा सपना दिखाना चाहते हैं। 
उन्होंने कहा कि हम यह समझना चाहते हैं कि आने-वाले बीस-तीसवर्षों के भारत के लिए आपका क्या सपना है? 
भागवत ने कहा कि मध्यकाल के दौरान बार-बार होने वाले हमलों ने देशवासियों के आत्मविश्वास को चोट पहुंचाई थी। सनातन धर्म भी अव्यवस्था का शिकार होने से नहीं बच पाया। 
लेकिन पिछले कुछ दशकों में देशवासियों का न सिर्फ आत्मविश्वास लौटा है, बल्कि अब वे आने वाले समय में भारत को तेजी से आगे बढ़ता देख रहे हैं। उन्होंने विश्वास प्रकट किया कि अपने सांस्कृतिक वैभव के साथ अगले बीस वर्षों में भारत विश्व का अग्रणी और शक्ति-साधन सम्पन्न देश बन जाएगा। 
उन्होंने कहा, 'इस देश के मूल्यों की रक्षा में अपने-आप को झोंक देने वाले लोग अपने जीते जी इस सपने को पूरा होते देखेंगे-ऐसा मेरा दृढ़ विश्वास है। कई पुराने स्वयं सेवक भी ऐसे ही सवाल करते हैं। मैं उनसे कहता हूं, इस सपने को पूरा होते देखने के लिए उन्हें बीस साल और जीना होगा।
उन्होंने कहा कि इस तरह के सपने पूरे करना आसान नहीं होता । ऐसे सपने सरकार नहीं, जनता के भरोसे पूरे होते हैं। जनता देश को आगे बढ़ते देख रही है। हम जनता के बीच जाएंगे और वातावरण बनाएंगे। सपनों को पूरा करने का काम जनता ही करेगी। 
परिवर्तन हमेशा जनता ही लाती है, सरकार नहीं। भागवत ने कहा-'जैसा वातावरण तैयार हो रहा है, उसे देख कर कह सकते हैं-अखंड भारत का सपना भी पूरा होगा। भारत के आसपास के देशों में सरकारें भले ही अलग-अलग रहीं, लेकिन ये देश समान हितों के लिए भारत के नेतृत्व में एकजुट हो जाएंगे। 
इन देशों में भले ही धर्म भी दूसरे हों, पर इनके नागरिकों की जीवन पद्घति और जीवन-मूल्य एक जैसे हैं। उन्होंने विश्वास प्रकट किया कि सनातन धर्म समय के साथ अपने आप में परिवर्तन लाएगा। 
भाजपा भटकेगी तो संघ रोकेगा
कोठारी का कहना था कि देशवासी तो मौजूदा सरकार को संघ का ही राजनीतिक अंग मानते हैं और संघ के दिए एजेंडे पर ही यह सरकार सत्ता में आई। 
पर आज सरकार उस एजेंडे से हटती दिखाई दे रही है। देशवासियों का भरोसा हिला है। इसका भाजपा को फर्क पड़े न पड़े, संघ की छवि पर अवश्य असर पड़ेगा। उन्होंने इस बिन्दू पर भागवत के विचार जानने चाहे।
भाजपा भटकेगी तो संघ रोकेगा
सरसंघचालक ने कहा कि संघ समाज का संगठन है। सरकार या सत्ता में इसका प्रत्यक्ष तौर पर कोई हस्तक्षेप नहीं है। यह सही है संघ के स्वयंसेवक अनेक संगठनों के साथ, भाजपा और सरकार में भी हैं। पर वे अपने-अपने स्थान की परिस्थिति के अनुरूप काम करने को स्वतंत्र है। संघ से उन्हें विचारधारा मिली है, उद्देश्य मिला है। 
काम वे कैसे भी करें, मुख्य उद्देश्य-राष्ट्र को सनातन जीवन मूल्यों के साथ आगे बढ़ाने का-उन्हें ध्यान में रहना चाहिए। जिस तरह भारतीय मजदूर संघ में काम कर रहे स्वयंसेवकों को नारे भी लगाने होते हैं, प्रदर्शन भी करने होते हैं, उसी तरह सरकार चलाने में भी कई तरह की मजबूरियां सामने आती हैं। सत्ता कई कमजोरियां भी लाती है। 
हमारा मानना है-मंजिल हमेशा ध्यान में रहनी चाहिए, रास्ते सीधे भी हो सकते हैं और घुमावदार भी। भाजपा के पीछे संघ खड़ा है वह गलती करेगी या मंजिल से भटकेगी तो हम टोकेंगे, समझाएंगे। समझाते रहे भी हैं। 
बड़े मुद्दों का हल दीर्घकालीन
बातचीत में आरक्षण के मुद्दे की चर्चा करते हुए कोठारी ने कहा कि आरक्षण को जिस उद्देश्य से शुरू किया गया था, उसके विपरीत अब यह नुकसान ज्यादा पहुंचा रहा है। गांव-गांव तक में हिन्दू समाज दो वर्गों में बंट गया है। 
पिछड़ों के विकास की मूल अवधारणा पीछे छूट गई और समाज में कटुता बढ़ गई। कोठारी ने कहा कि समानता के हक के लिए युवा पीढ़ी को तैयार किया जाना चाहिए। आरक्षण गरीबों के लिए ही होना चाहिए। उन्होंने जानना चाहा कि इस स्थिति को क्या संघ एकता और अखण्डता के लिए खतरा नहीं मानता? 
भागवत ने माना कि आरक्षण की अवधारणा आज नुकसान पहुंचा रही है। इसका कारण यह है कि यह सामाजिक न होकर राजनीतिक अवधारणा है।
इसका हल सामाजिक स्तर पर ही हो सकता है। सामाजिक स्तर पर ही पिछड़े लोगों का उत्थान संभव है। इसके लिए नया वातावरण बनाना होगा। संघ इसके लिए पूरे प्रयास करेगा।
समान नागरिक संहिता, बांग्लादेशियों की घुसपैठ जैसे मूलभूत मुद्दों पर काम नहीं होने के कोठारी के सवाल पर भागवत ने कहा कि कुछ मुद्दे ऐसे होते हैं, जिनका हल दीर्घकालीन होता है, बस ध्यान यह होना चाहिए कि हम सही दिशा में बढ़ रहे हैं या नहीं। 
ये भी ऐसे ही मुद्दे हैं। बांग्लादेशियों की घुसपैठ रोकने के लिए तारबंदी हुई, वार्ताओं के दौर हुए। आगे भी और हल निकलेगा। कोठारी का कहना था कि ये महत्वपूर्ण मुद्दे हैं, जिन पर समयबद्घ और ठोस कदमों की आवश्यकता है, तभी देशवासियों में विश्वास पैदा होगा। 
संघ वातावरण बनाएगा, जनता काम करेगी
भाजपा शासित प्रदेशों के शासन का जिक्र करते हुए कोठारी ने कहा कि राजस्थान, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में विकास को आप देख ही रहे हैं। इन राज्यों में आम आदमी की चिंताएं दिखती ही नहीं। प्रमुख मुद्दे हों या भ्रष्टाचार के आरोप, प्रधानमंत्री से लेकर हर स्तर पर मौन है। ऐसे में देशवासियों को आपसे अपेक्षा है कि आप तो मौन नहीं रहेंगे। 
सर संघ चालक ने इस पर कहा कि वे समय-समय पर समाज के विभिन्न प्रतिनिधियों से मिलते रहते हैं, उनसे बात करते हैं। कई मुद्दे ऐसे हैं-जिनका हल सरकारें नहीं, केवल समाज ही निकाल सकता है। जिसके लिए वातावरण तैयार किया जा रहा है। स्वयं के मौन की बात पर उन्होंने मुस्कुरा कर कहा कि वे साल में एक बार विजयदशमी पर सार्वजनिक रूप से बोलते हैं।
बातचीत के दौरान कोठारी ने पश्चिम के बढ़ते प्रभाव पर चिंता व्यक्त करते हुए हिन्दी भाषा को समयबद्घ तरीके से काम काज की भाषा बनाने के लिए कदम उठाने की आवश्यकता बताई। इससे ही 'इंडिया की जगह 'भारत'' स्थापित होगा।
उन्होंने संविधान से धर्म निरपेक्षता के नाम पर सनातन परम्परा के प्रतीकों के चित्रों को हटाने को भी गलत बताया। भागवत ने उनके विचारों से सहमति प्रकट करते हुए कहा कि हिन्दी के लिए वे निश्चित ही कदम उठाएंगे। 
बातचीत के दौरान भागवत ने पत्रिका के संस्थापक कर्पूर चंद्र कुलिश के विजयदशमी कार्यक्रम में शामिल होने का भी जिक्र किया। इस मौके पर क्षेत्रीय प्रचारक दुर्गादास तथा प्रांत प्रचारक शिवलहरी भी मौजूद थे।
-प्रस्तुति: भुवनेश जैन
साभार:: राजस्थान पत्रिका 

सोमवार, 14 सितंबर 2015

हिन्दू जीवन दृष्टि में स्त्री-पुरुष एक ही तत्व के दो प्रकटीकरण- भागवत - स्तम्भ लेखक संगोष्ठी का समापन



हिन्दू जीवन दृष्टि में स्त्री-पुरुष
एक ही तत्व के दो प्रकटीकरण- भागवत
- स्तम्भ लेखक संगोष्ठी का समापन 


जयपुर, 13 सितम्बर। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक श्री मोहनराव भागवत ने दो दिवसीय स्तम्भ लेखक संगोष्ठी के समापन पर रविवार को कहा कि हिन्दू जीवन दृष्टि के आधार पर ही सारे विषयों को और समस्याओं को देखना चाहिए। हिन्दू जीवन दृष्टि एकात्म होने के नाते स्त्री-पुरुष को एक ही तत्व के दो प्रकटीकरण के रूप में देखती है, इसलिए समानता के बदले एकत्व पर उसका बल है।  
 
श्री भागवत ने कहा कि भारत की परिवार व्यवस्था का मूल्य और महत्व अनेक चुनौतियों के बावजूद अक्षुण्ण टिका हुआ है। यह हिंदू समाज की एक ताकत है। अपनी जड़ों की पहचान के साथ जड़ों को मजबूत करते रहने से पश्चिमीकरण या ऐसे अनेक आक्रमणों का मुकाबला करने की शक्ति समाज में निर्माण होगी।  

उन्होंने कहा कि गलत रूढ़ियों को नकारते हुए शाश्वत जीवन मूल्यों के आधार पर दुनिया से अच्छी बातों को स्वीकार करने की भारत की परम्परा रही है। इसी के आधार पर समाज संगठित होकर खड़ा रहेगा और सारी मानवता को जीवन का उद्देश्य और जीवन की दिशा देने का कार्य वह सक्षमतापूर्वक करेगा।

श्री भागवत ने कहा कि आज वैज्ञानिक कसौटियों पर प्रचलित हिंदू धर्म का विचार करने की आवश्यकता  है, कसौटियों पर खरा नहीं उतरने वाली बातों को छोड़ देना चाहिए। उन्होंने कहा कि समन्वय को लेकर सृष्टि को आगे बढ़ाने का सामर्थ्य सिर्फ हिन्दू धर्म में ही है। इसके लिए हमें सनातन मूल्य और आधुनिक परिस्थितियों को जोड़ कर आगे बढ़ना होगा।

सरसंघचालक जी के समापन भाषण के पूर्व प्रो. राकेश सिन्हा, एडवोकेट मोनिका अरोरा, डॉ. सुवर्णा रावल और श्रीमती मृणालिनी नानिवडेकर ने हिन्दू चिंतन में नारी विमर्श, मीडिया, राजनीति एवं कानूनी प्रावधान के क्षेत्रों में महिला के सामने चुनौती विषयों पर अपने विचार रखे।   

विश्व संवाद केन्द्र जोधपुर द्वारा प्रकाशित