सोमवार, 31 अगस्त 2015

समन्वय बैठक में समाज से संबंधित समस्त विषयों पर होगी चर्चा – डॉ. मनमोहन वैद्य l

नई दिल्ली. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अखिल भारतीय प्रचार प्रमुख डॉ. मनमोहन वैद्य ने कहा कि राष्ट्रीय स्तर पर साल में दो बार (सितंबर व जनवरी) समन्वय बैठक का आयोजन किया जाता है. इस बार बसंत कुंज दिल्ली में होने वाली बैठक भी उसी क्रम के तहत है. इस बार बैठक का दायरा बढ़ाया गया है, पूर्व की तुलना में दोगुने कार्यकर्ता बैठक में भाग लेंगे. समन्वय बैठक का आयोजन 2, 3 व 4 सितंबर को दिल्ली में किया जा रहा है.
दीनदयाल शोध संस्थान दिल्ली के सभागार में आयोजित प्रेस वार्ता में डॉ. वैद्य ने कहा कि संघ की समन्वय बैठक कोई निर्णय करने वाली बैठक नहीं है, न ही बैठक में कोई प्रस्ताव पारित किया जाता है. संघ के अखिल भारतीय पदाधिकारी देश भर में प्रवास करते हैं, इस दौरान कार्यकर्ताओं, विभिन्न वर्गों के लोगों से इनपुट, आब्जर्वेशन मिलते रहते हैं. जिन्हें समन्वय बैठक में सांझा किया जाता है, साथ ही संगठनात्मक चर्चा होती है. इस बैठक में भी केवल अनुभवों का आदान प्रदान होगा. कार्यकर्ताओं के माध्यम से आए समाज से संबंधित समस्त विषयों पर चर्चा हो सकती है, जिसमें राजनीति, गुजरात में आरक्षण को लेकर आंदोलन का मामला, वन रैंक वन पेंशन के मामले सहित अन्य पर भी चर्चा हो सकती है. बैठक में केंद्र सरकार के कार्य पर चर्चा हो सकती है, पर समीक्षा नहीं होगी. बैठक में विभिन्न संगठनों के प्रमुख पदाधिकारी, कार्यकर्ताओं सहित संघ के अखिल भारतीय अधिकारी उपस्थित रहेंगे.  संघ के सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत जी बैठक में पूरा समय उपस्थित रहेंगे, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी समय की अनुकूलता के अनुसार बैठक में उपस्थित रहेंगे.
उन्होंने कहा कि संघ निरंतर बढ़ रहा है, नए लोग मिल रहे हैं, साथ आ रहे हैं, जो पहले संघ से दूर थे. उनसे भी सुझाव मिल रहे हैं. उन्होंने बताया कि पिछले वर्ष देशभर में संघ के प्राथमिक शिक्षा वर्ग में करीब 80 हजार लोगों ने प्रशिक्षण प्राप्चत किया था, इस वर्ष यह संख्या 1 लाख 15 हजार रही है

गुरुवार, 27 अगस्त 2015

आज देश को सशक्त तकनीकी राष्ट्रवाद की आवश्यकता है: डाॅ. भगवती प्रकाश शर्मा

आज देश को सशक्त तकनीकी राष्ट्रवाद की आवश्यकता है: डाॅ. भगवती प्रकाश शर्मा 




जोधपुर 22 अगस्त . स्वदेशी जागरण मंच जोधपुर प्रांत द्वारा ‘‘भारतीय औद्योगिक विकास के लिए स्वदेशी अवधारणा’’ विषय पर जोधपुर इण्डस्ट्रीज एसोसिएशन सभागार में प्रांतीय संगोष्ठी आयोजित की गयी।

    संगोष्ठी में क्षेत्रीय संघचालक राजस्थान व अखिल भारतीय सह संयोजक स्वदेशी जागरण मंच के डाॅ. भगवती प्रकाश शर्मा ने बताया कि देश के उद्योगो को बढाने के लिए तकनीकी राष्ट्रवाद की आवश्यकता है। अमेरीका, चीन इसी राष्ट्रवाद के कारण वैश्वीकरण के लीडर है। देश में उद्यमता को अनुकूल वातावरण देने की जरूरत है। तभी हम विश्व के अगुवा राष्ट्र बन पायेगे। आज विश्व की कुल जीडीपी में हमारा योग मात्र 2.04 प्रतिशत है जबकि 1500 वर्ष पहले 32 प्रतिशत था। उस समय हमारे देश में सभी उद्योग फलफूल रहे थे। राजाओं द्वारा उन्हें प्राश्रय देने की आवश्यकता है। इसके लिए जोधपुर में भी अलग-अलग उद्योग सहायता समूह बनाकर आर एण्ड डी विकसित करने की जरूरत है। सोलर ऊर्जा, स्टील उद्योग, ग्वारगम, हैण्डीक्राफ्ट आदि में इसके द्वारा जोधपुर देश का शीर्ष औद्योगिक शहर बनने की क्षमता रखता है। केवल इनकी उचित ब्रांडिग की आवश्यकता है। इसके लिए तकनीकी लोगो के सहयोग की आवश्यकता है। उन्होने कहा कि हम चीनी माल खरीद कर अपनेदेश को नुकसान पहुंचा रहे है। 1917 में एक रूपये में  13 डाॅलर आता था आज 63 रूपये में 1 डाॅलर आता है। इसका मुख्य कारण विदेशी व्यापार घाटा है। इसको हम स्वदेशी वस्तुओं को अपनाकर रोक सकते है। 1947 से 1991 तक समाजवाद के कारण हमारी कम्पनीयें का विकास अवरूद्ध हो गया। आज भी विभिन्न लाइसन्सों के द्वारा यह अवरूद्ध है। इसको हटाने की आवश्यकता है।

     संगोष्ठी में मुख्य अतिथि कश्मीरी लाल अखिल भारतीय संगठक स्वदेशी जागरण मंच ने बताया कि राजस्थान की धरती के अन्दर सोना है और यहां की गर्मी आने वाले दिनों में सोलर ऊर्जा द्वारा पूरे देश को रोशन करेगी। उन्होने उद्यमियों को कहा कि उन्हें आर एण्ड डी में अधिक निवेश की आवश्यकता है। नयी-नयी तकनीकों को अपनाकर ही हम विश्व की एक मजबूत आर्थिक ताकत बन सकते है। सरकार का भी दायित्व है कि उनहे खुला वातावरण प्रदान करे तथा रिसर्च के लिए वास्तविक छूट प्रदान करे। उन्होने कहा कि आज विश्व के कई देशो को हमारे फार्मा, सोलर, आईटी सेक्टरो से ईष्र्या है तथा इसको रोकने के लिए कई अवैध प्रतिबिम्बों का सहारा ले रही है। स्वदेशी जागरण मंच ऐसे बौद्धिक लोगो का समूह है जो राष्ट्रवादी राजनेता व उद्योगेपतियों के साथ लेकर किस प्रकार देश को समृद्ध बना सकता है और सभी वर्गो को समान रूप से इसका लाभ मिले। इसके लिए चिन्तन व प्रयास करता है।

    संगोष्ठी की अध्यक्षता करते हुए डीआडीओ के पूर्व अध्यक्ष प्रो. रामगोपाल ने बताया कि स्वदेशी, स्वालंबी व स्वाभिमानी लोगो के द्वारा ही एक आदर्श देश का निर्माण होता है और मंच ऐसे ही लोगो का समूह व संगठन है जो कि देश निर्माण के लिए आम लोगो, युवा व बच्चो को जागृत कर रहा है। इसके लिए मंच के लोग अनेको कार्यो के द्वरा लोगो को प्रशिक्षित कर रहा है। उन्होने कहा कि अच्छा उत्पाद वही है जिसमें ग्राहक का लाभ छिपा हो। हमारी स्वदेशी कम्पनियां इसी ध्येय से उत्पाद बनाती है। इसके लिए हमें जीरो डिफेक्ट प्रबन्धन करना पड़ेगा व टोटल क्वालिटि मेंटेन करनी पड़ेगी। यदि आज यह हसंकल्प ले कि हम चाईनीज वस्तुओं को काम में न ले तो कुछ ही वर्षो में चाइना टूट जायेगा।

    संगोष्ठी के विशिष्ट अतिथि जेआइए के उपाध्यक्ष रमेश गांधी ने बताया कि आज लघु कुटीर उद्योगो को बचाने की जरूरत है। और विदेशी उत्पादों के कारण जो धन देश से बाहर जा रहा है इसको स्वदेशी अपनाकर रोकना है। जिससे सभी को रोजगार प्राप्त होगा।

राष्ट्रीय सम्मेलन के पोस्टर का विमोचन - संगोष्ठी में दिसम्बर माह के 25, 26, 27 तारीख को प्रस्तावित स्वदेशी राष्ट्रीय सम्मेलन के पोस्टर का विमोचन भगवती प्रकाश शर्मा, कश्मीरी लाल, सतीश कुमार भागीरथ चौधरी  द्वारा किया गया।

अभ्यास वर्ग सम्पन्न - स्वदेशी जागरण मंच के जोधपुर प्रांत का जेआईए सभागार में फलौदी, बीकानेर, पाली, सिरोही, बाड़मेर आदि जिलो से आये कार्यकर्ताओं का अभ्यास वर्ग आयोजित किया गया। इसमें विभिन्न सत्र हुआ जिसमें डाॅ. भगवती प्रकाश शर्मा ने कार्यकर्ताओं को विभिन्न उदाहरणो को देते हुए स्वदेशी अवधारणा को समझाया।

    मंच के अखिल भारत के संगठक कश्मीरीलाल ने बताया कि कार्यकर्ताओं को जागरूक रहने की आवश्यकता है तभी वह समाज को जागृत कर सकेगा। मंच के उत्तरी भारत के संगठक सतीश कुमार राष्ट्रीय सम्मेलन के लिए कार्यकर्ताओं को कमर कसने को कहा तथा स्वदेशी विचारधारा को समाज के सभी वर्गो तक पहुंचाने की आवश्यकता है।

    इस संगोष्ठी में मंच के राजस्थान के संयोजक भागीरथ चैधरी, सह संयोजक धर्मेन्द्र दुबे, मंच के प्रवक्ता संदीप काबरा, राष्ट्रीय सह संपर्क प्रमुख डाॅ. रणजीत सिंह, राष्ट्रीय परिषद सदस्य देवेन्द्र डागा व लूणाराम, जिला संयोजक अनिल माहेश्वरी, सहसंयोजक मनोहर चारण, अनिल वर्मा, रोहिताष पटेल, विनोद मेहरा, मिथिलेश कुमार झा, महेश गौड़, प्रमोद पालीवाल, महेश जांगिड़, लक्ष्मीकांत, राजेश दवे आदि अनेक जिलो से आये दायित्ववान कार्यकर्ता उपस्थित थे।

रा. स्व. संघ द्वारा गुजरात मे सामाजिक सौहार्द बनाने के लिए सार्वजनिक अपील


रा. स्व. संघ द्वारा गुजरात मे सामाजिक सौहार्द बनाने के लिए सार्वजनिक अपील

आत्मीय समाज बंधुओ / बहनों

गत थोड़े दिनों से विविध कारणों से उत्पन्न हुई क्षोभजनक और सामाजिक सौहार्द के लिए अत्यंत नुकसानकारक परिस्थिति मे आप सभी से मै सामाजिक सौहार्द और सामंजस्य बिगड़े नहीं और समाज दुर्भाग्यपूर्ण आंतरिक संघर्ष का भोग न बने उसके लिए सभी प्रयत्न करने तथा इस दृष्टी से चल रहे सभी प्रयासों मे हार्दिक सहयोग देने की ह्रदयपूर्वक विनंती करता हूँ.

विश्वास है कि हमसब के सामूहिक प्रयत्नों से सामाजिक सौहार्द बनाने मे अवश्य सफल होंगे.

राष्ट्र सेवा मे आपका

मुकेश मलकान

प्रांत संघचालक, गुजरात

 

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जयनारायण व्यास विश्वविद्यालय में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद का लहराया परचम

 जयनारायण व्यास विश्वविद्यालय में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद का लहराया परचम 
 
 १२ वर्ष बाद  चारों  सीटों पर पूरा पैनल अ.भा.वि.प. का 

जीत के बाद आनंद सिंह (मध्य में ) , निकिता गहलोत एवं प्रतीक सूर्या




जोधपुर | जयनारायण व्यास विश्वविद्यालय के छात्रसंघ चुनावों में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के पूरे पैनल ने भारी मतों से जीत हासिल की। 2003 के चुनाव के बाद अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद की यह पहली बड़ी जीत है।

विद्यार्थी परिषद के आनंद सिंह जेएनवीयू के  छात्रसंघ अध्यक्ष बने। आनंद सिंह ने अपने निकटतम प्रतिद्वंदी एनएसयूआई के प्रत्याशी प्रदीप कसवा को 1974 वोटों से हराया। नव निर्वाचित अध्यक्ष ने यह जीत पिछले अध्यक्ष स्व भोमसिंह को समर्पित की है।

एबीवीपी के एपेक्स पैनल के नरेंद्र सिंह राजपुरोहित वरिष्ठ उपाध्यक्ष, महासचिव पद पर निकिता गहलोत संयुक्त महासचिव पद पर प्रतीक सूर्या विजयी रहे। नरेंद्र राजपुरोहित ने प्रियंका विश्नोई को 1207 मतों से हराया। महासचिव पर पर निकिता गहलोत ने कैलाश कुमार को 3419 वोटों से हराया। वहीं संयुक्त महासचिव पद पर प्रतीक सूर्या ने एसएफआई की नेहा को 542 मतों से हराया।

अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के प्रदेश अध्यक्ष हेमन्त घोष ने इसे कार्यकर्ताओं  के वर्ष पर्यन्त परिसर में विद्यार्थियों के बीच कार्य और विद्यार्थियों का राष्ट्रवादी संगठन में विश्वास की जीत बताया। 

सोमवार, 24 अगस्त 2015

अपनी बात - छल-छद्म का आवरण

अपनी बात - छल-छद्म का आवरण

अपनी बात - छल-छद्म का आवरण

भारत-पाक वार्ता यानी एक ऐसी बात जिस पर दुनिया भर की निगाहें लगी हैं। सफलता या विफलता से परे इस वार्ता का महत्व इस बात में है कि यह इकलौती घटना अपने आप में भविष्य के कई घटनाक्रमों के बीज समेटे है। इसके संभावित महत्व और शक्ति का अंदाजा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि 'यदि' वार्ता सकारात्मक
रूप से संपन्न होती है तो वैश्विक व्यवस्था का क्रम बदलने तक की ताकत रखती है।

इस 'यदि' को कम मत आंकिए। क्योंकि, जहां पक्ष दो हों और उनमें भी एक पाकिस्तान हो तो सकारात्मकता को लेकर परिभाषाएं बदल जाती हैं। ऐसा पक्षकार, जिसके बारे में दुनिया में उसका कोई साझीदार कोई भी बात पूरे भरोसे से नहीं कह सकता।

विश्वसनीयता के मामले में सदा-सर्वदा संदिग्ध बने रहते हुए पाकिस्तान ने अपने लिए अनूठी पहचान अर्जित की है। लगी हों दुनिया की निगाहें...दुनिया की परवाह करता कौन है!! पाकिस्तान का यही वह नजरिया है जिसके चलते कोई उसकी बात का भरोसा नहीं करता। यही कारण है कि उसके एक वक्त के परम मित्र अमरीका ने जब तालिबानी सरगना ओसामा बिन लादेन को पाकिस्तान के एबटाबाद स्थित उसके घर में घुसकर मारा तब नेवी के सील दस्ते की इस कार्रवाई की जानकारी तक पाकिस्तान से साझा नहीं की गई।

निश्चित ही वार्ता द्विपक्षीय है और केवल सुरक्षा सलाहकारों के बीच है, लेकिन कुछ सवाल हैं जो इस वार्ता के वैश्विक महत्व और पाकिस्तान के रुख को स्पष्ट करते हैं। उदाहरण के लिए, सुरक्षा को लेकर पाकिस्तान का दृष्टिकोण। सुरक्षा के मायने भारत के लिए क्या हैं, पाकिस्तान के लिए क्या हैं और किस पक्ष के तर्क दुनिया के     हित में हैं?

पाकिस्तान से विश्व क्या व्यवहार करे और भारत जैसा पड़ोसी क्या बर्ताव रखे, अब यें बातें सिर्फ पाकिस्तान के नजरिए से तय नहीं हो सकतीं। पृथक भूखंड, जनता और शासकीय तंत्र की कसौटी पूरी करने वाला पाकिस्तान अन्य राष्ट्रों से इस मामले में अलग है कि उसकी पहचान केवल उपरोक्त राजनीतिक कारकों तक सीमित नहीं है। आज यह विश्व व्यवस्था में गड़बडि़यां फैलाने वाले आतंकी नेटवर्क के 'घर' की हैसियत रखता है। यही कारण है कि पाकिस्तान से संबंध रखने वाले हर देश के लिए हर पल इस बात पर निगाह रखना जरूरी हो जाता है कि इस संबंध की उसे क्या कीमत चुकानी होगी? ब्रिटेन के इस्लामी उन्मादी, चीन को बेचैन करते उइगुर, बच्चों को
भूनते, पत्रकारों को जिबह करते मानवता के हत्यारे...इन सबके दर्दमंद आज किसी एक देश में मिल सकते हैं तो उसका नाम पाकिस्तान है। दुनिया बेचैन होती है तो होती रहे!!

दरअसल, पाकिस्तान में सेना, आईएसआई और सरकार की गांठें आपस में ऐसी उलझी हैं कि शासन के निर्णायक सूत्र खो गए हैं।

अपनी-अपनी चिंताओं के इतने धड़े हैं कि एक जिम्मेदार राष्ट्र के तौर पर व्यवहार करने की कल्पना भी खो सी गई है। यही वह बात है जो पाकिस्तान को दुनिया का सबसे अस्थिर, अविश्वसनीय और संदिग्ध राष्ट्र बनाती है और जिसके साथ द्विपक्षीय वार्ता, चाहे वह किसी स्तर की क्यों न हो, सबसे मुश्किल कामों में से एक है।

पाकिस्तान किन मुद्दों पर राष्ट्र और अंतरराष्ट्रीय व्यवहार के लिए तय सीमाएं लांघकर आतंकियों के साथ खड़ा दिखेगा, कब इस्लामी मुल्क का चोगा पहन लेगा और कब मानवाधिकारों का वकील बन जाएगा, इसके बारे में कोई भी निश्चित तौर पर कुछ कह नहीं सकता।

निश्चित ही, बहुपक्षीय परेशानियों का पर्याय बन चुके देश के साथ द्विपक्षीय वार्ता के मंच पर भारत के लिए उलझाव कुछ कम नहीं हैं।

ओसामा बिन लादेन या दाऊद इब्राहीम, पाकिस्तान के लिए दोनों विदेशी हैं मगर अपने नागरिकों की सुरक्षा चिंताओं से बढ़कर रहे हैं। विदेशी आतंकियों को पनाह देते वक्त दुनिया की चिंताओं को ताक पर रखने वाला पाकिस्तान आतंक के खात्मे को कैसे अपनी संप्रभुता पर हमले से जोड़ लेता है! मौके के मुताबिक कायांतरण और छद्म गढ़ने को अगर खूबी कहा जा सकता है तो पाकिस्तान में यह खूबी है। लेकिन यह सच है कि पाकिस्तान के इस छल-छद्म को उघाड़े और ललकारे बिना सुरक्षा के मुद्दे पर कोई वार्ता अपना उद्देश्य हासिल नहीं कर सकती।

ओसामा को निपटाने की कार्रवाई करने वाला अमरीका सही था या उसे सैन्य सूचना और सुरक्षा की छतरी तले पनाह देने वाला पाकिस्तान?

दाऊद इब्राहीम सहित तीन दर्जन से ज्यादा आतंकियों के मामले में भारत से सहयोग का संयुक्त अरब अमीरात का नजरिया सही है या उसे गुप्त ठिकानों पर रखकर शह देता पाकिस्तानी तंत्र? ये ऐसे सवाल हैं जिनका एक पक्ष पाकिस्तान है और दूसरा पक्ष भारत सहित पूरा विश्व। भारतीय डोसियरों में क्या है, ये छनकर सामने आने से पहले ही घाटी के अलगाववादियों से लेकर आतंकी हाफिज सईद तक के मोहरे बैठाने का काम पाकिस्तान शुरू कर चुका है। वार्ता की यह पाकिस्तानी शैली है। इस शैली की राह उसे वार्ता की मेज पर लाएगी या नहीं, यह इन पंक्तियों के लिखे जाने तक तय नहीं हो पाया है। इस्लामाबाद से आ रहे बयानों से उसके फिर मुकरने का अंदेशा ज्यादा हो रहा है। बहरहाल, अगर बात हो, तो अब पाकिस्तान से उसी की शैली में बात करना जरूरी है। भारत के लिए, और दुनिया के लिए भी।
साभार: पाञ्चजन्य

मंगलवार, 18 अगस्त 2015

विमर्श-नेपाल फिर बनेगा हिन्दू राष्ट्र - सतीश पेडणेकर




'क्या नेपाल में फिर इतिहास दोहराया जाएगा? क्या नेपाल फिर से हिन्दू राष्ट्र बनेगा? यह सवाल इन दिनों राजनीतिक और राजनयिक हल्कों में चर्चा का विषय बना हुआ है। हाल ही में नेपाल की राजनीतिक पार्टियों ने नए संविधान से 'पंथनिरपेक्ष' शब्द हटाने पर सहमति बना ली है। नेपाल की कट्टर यूनीफाइड कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल-माओवादी  (यूसीपीएन-एम) के दशकों लंबे चले हिंसक संघर्ष के बाद राजनीति की मुख्यधारा से जुड़ जाने के बाद 2007 में नेपाल को पंथनिरपेक्ष राष्ट्र घोषित किया गया था। इस फैसले ने नेपाल के सदियों पुराने हिंदू साम्राज्य होने की पहचान को समाप्त कर दिया था।

नेपाल की 85 फीसद से ज्यादा जनसंख्या हिंदू है। राजनीतिक दलों ने नए संविधान पर लाखों लोगों की प्रतिक्रिया का सम्मान करते हुए पंथनिरपेक्ष शब्द हटाने का फैसला किया है। संविधान सभा के अनुसार, अधिकांश लोग पंथनिरपेक्ष की जगह 'हिंदू' और 'धार्मिक आजादी' शब्द संविधान में शामिल कराना चाहते हैं। नेपाल में जल्द ही नए संविधान की घोषणा की जाएगी। यूसीपीएन-माओवादी के अध्यक्ष पुष्प कमल दहल उर्फ प्रचंड ने मीडिया
से कहा, 'पंथनिरपेक्ष शब्द इसमें फिट नहीं बैठता। इसलिए हम इसकी जगह दूसरा शब्द जोड़ रहे हैं।' उन्होंने कहा, 'इस शब्द ने लोगों को परेशान किया है।

इसने लाखों लोगों की भावनाओं को आहत किया है। हमें लोगों के फैसले का आदर करना चाहिए।' नेपाली कांग्रेस, कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल-यूनिफाइड मार्कसिस्ट लेनिनिस्ट और मधेशी पार्टियों ने भी पंथनिरपेक्ष शब्द हटाने पर सहमति जताई है।

यह कदम उन सभी प्रतिगामी शक्तियों के लिए करारा झटका है जो 2006 से देश पर शासन कर रही थीं। माओवादियों और सात अन्य पार्टियों में सुलह से यह सुनिश्चित हुआ कि राजा ज्ञानेंद्र देश पर सीधे शासन न कर पाएं। इससे उत्साहित सत्तारूढ़ पार्टियों ने किसी भी मुद्दे पर जनता की राय जानना और बहस कराना जरूरी नहीं समझा और एकतरफा घोषणा कर दी कि नेपाल संघीय, सेकुलर और गणतंत्र होगा। जब कथित क्रांतिकारी कदम उठाए गए तब उसके लिए जरूरी प्रक्रिया का पालन नहीं किया गया। भारत के नेतृत्व में अंतरराष्ट्रीय समुदाय इन बदलावों का स्वागत करता रहा, बिना यह समझे कि जनता की प्रत्यक्ष भागीदारी ही बदलावों को संस्थागत करने की दिशा में सबसे बड़ी गारंटी है।

वास्तव में परिवर्तन के ये नौ साल नेपाली राजनीति का सबसे असहिष्णु कालखंड रहे। हिन्दू सम्राट के साथ हिन्दू राष्ट्र कहे जाने के बावजूद नेपाल ज्यादा उदारवादी, अन्य पंथों के प्रति सहिष्णु था, हालांकि वहां कन्वर्जन को लेकर कठोर कानून था। लेकिन आज पुन: देश के बहुसंख्य लोग नेपाल को हिन्दू राष्ट्र घोषित किए जाने के पक्ष में हैं।
आखिर नेपाल के इन प्रमुख राजनीतिक दलों का अचानक ह्रदय परिवर्तन कैसे हुआ? 2006 में सत्तारूढ़ पार्टियां, जिनमें माओवादी पार्टी भी शामिल थी, नेपाल के विदेशी दानदाताओं, अंतरराष्ट्रीय समुदाय और देश की सिविल सोसायटी की  इस दलील से प्रभावित हो गईं कि यदि नेपाल को गणतंत्र बनना है तो उसे अपनी हिन्दू पहचान से मुक्ति पा लेनी चाहिए। पंथनिरपेक्षता पर कभी बहस ही नहीं हुई लेकिन देश को सेकुलर घोषित कर दिया गया।

इससे आगे बढ़कर पश्चिमी देश, अंतरराष्ट्रीय एनजीओ और संयुक्त राष्ट्र के कुछ संगठन खुलेआम  सेकुलरिज्म के अपरिहार्य अंग के तौर पर कन्वर्जन के अधिकार की बात करने लगे। ब्रिटेन के राजदूत एंड्रयू स्पार्क को तो तब इस्तीफा देना पड़ा जब उन्होंने कन्वर्जन के अधिकार की 'लॉबिंग' करने के लिए संविधान सभा के सदस्यों को खुली चिट्ठी लिखी। सरकार ने उन्हें  खूब फटकारा। यह घटना बताती है कि संविधान निर्माण के काम में विदेशी राजनयिक बहुत दिलचस्पी ले रहे हैं। राजनीतिक पार्टियों के संविधान निर्माण में पूरी तरह से नाकाम होने पर हिन्दू समूहों ने मुखर होना शुरू किया। वे दबाव डालने लगे कि नया संविधान लिखते हुए धर्म और उसकी भूमिका के मुद्दे को सही तरीके से सुलझाया जाए।

सेकुलरिज्म के मुद्दे पर बाहरी शक्तियों के अनावश्यक हस्तक्षेप के कारण अब तक जो हिन्दू संगठन असंगठित थे वे एकजुट हुए और नेपाल को फिर से हिन्दू राष्ट्र घोषित करने की मांग करने लगे। पिछले वर्ष उन्होंने अपनी मांग के समर्थन में देशभर में आंदोलन छेड़ा जो काफी सफल रहा। उसके बाद से संविधान सभा में मांग उठने लगी कि लोगों की राय जानी जाए। यह बात मान तो ली गई लेकिन 48 घंटे में जनता की राय जानने की बात कही
गई, इससे लोगों में भारी असंतोष पैदा हुआ। इसलिए संविधान सभा के सदस्य जनता की राय जानने के लिए जनता के बीच गए तो उन्हें जनता के गुस्से का सामना करना पड़ा। संविधान सभा की सदस्य नजमा खातून संविधान के प्रारंभिक मसौदे पर लोगों की राय जानने गईं तो हैलमेट पहन कर गईं क्योंकि इससे पहले माधव कुमार नेपाल और माओवादी नेता प्रंचड भी जनता के आक्रोश का शिकार बन चुके थे। उन्हें सुरक्षा बलों की मदद लेनी पड़ी।

इस मुद्दे पर वहां दो तरह की सोच हावी है। आरपीपी-एन के अध्यक्ष कमल थापा  का कहना है कि नेपाल को पंथनिरपेक्ष बनाने की वकालत करने वाले नेता पश्चिमी देशों से पैसे लेकर देश की जनता को गुमराह कर रहे हैं। थापा ने कहा कि नेपाल के संविधान को देश की हिंदू राष्ट्र की पहचान को सुनिश्चित करना होगा। उनका कहना था कि जब दुनिया में 40 से ज्यादा मुस्लिम और 70 से ज्यादा ईसाई देश हो सकते हैं तो नेपाल एक हिंदू राष्ट्र क्यों नहीं हो सकता है? उन्होंने संविधान में गो-हत्या रोकने के प्रावधान करने की भी मांग की है। दूसरी तरफ हिन्दू संगठन नेपाल को हिन्दू गणतंत्र बनाने के हामी हैं।
1962 के संविधान में तत्कालीन राजा महेंद्र बीर विक्रम शाहदेव ने नेपाल को हिंदू राष्ट्र घोषित किया था। उससे
पहले 1913 में महाराजा चंद्र शमशेर नेपाल को 'प्राचीन हिंदू अधिराज्य' कहकर संबोधित करते थे। 2008 में हिंदू राष्ट्र नेपाल को माओवादियों ने 'सेकुलर स्टेट' घोषित किया था। इसे देखकर हैरानी होती है कि जो लोग लंबे समय तक राजतंत्र के विरोधी रहे, वे भी हिंदू राष्ट्र बनाए जाने के लिए हामी भरने लगे हैं। कुछ समय पहले नेकपा-एमाले के नेता के.पी. शर्मा ओली ने मोहन प्राश्रित जैसे पुराने कामरेड को पार्टी की स्थायी समिति में अतिथि वक्ता के रूप में विचार व्यक्त करने के लिए बुलाया। मोहन प्राश्रित तो जैसे हिंदू राष्ट्र बनाने के वास्ते प्राण देने को तैयार दिखे। उन्होंने तो यहां तक कह दिया कि पृथ्वी नारायण शाह के जन्मदिन को 'राष्ट्रीय एकता दिवस' के रूप में मनाया जाना चाहिए। मोहन प्राश्रित जैसे सैकड़ों कामरेड 'नेकपा-एमाले' में मिल जाएंगे, जो हिंदू राष्ट्र के आग्रही हैं।

उल्लेखनीय है कि नेपाली कांग्रेस का बड़ा तबका भी नेपाल को हिन्दू राष्ट्र बनाए जाने के पक्ष में है। उसके नेता नेपाल को हिन्दू राष्ट्र बनाने के अभियान में हिस्सा ले रहे हैं।

नेपाल के प्रस्तावित संविधान में हिन्दू राष्ट्र शब्द जोड़ने की दिशा में गोरखपुर से भी एक प्रयास हो रहा है। यह प्रयास गोरक्ष पीठाधीश्वर एवं भाजपा सांसद योगी आदित्यनाथ कर रहे हैं। इसके लिए काठमांडू में विश्व हिन्दू महासंघ की एक संगोष्ठी में उनके नेतृत्व में एक प्रस्ताव पास कर नेपाल सरकार और संविधान निर्माण सभा को भेजा गया। संगोष्ठी में पहली बार नेपाल के पचास से ज्यादा सांसद, कई पूर्व मंत्री और विभिन्न दलों के प्रतिनिधियों के साथ हजारों नेपाली शामिल हुए। इस धार्मिक-सांस्कृतिक कार्यक्रम को नेपाली मीडिया ने भी महत्व देते हुए सीधा प्रदर्शित  किया।

3 अगस्त को योगी आदित्यनाथ ने नेपाल के प्रधानमंत्री सुशील कोइराला और पूर्व नरेश ज्ञानेन्द्र से मुलाकात की। आधे घंटे की बातचीत में कोइराला ने उनको आश्वस्त किया कि नए संविधान में नेपाल के बहुसंख्यक हिन्दुओं की भावनाओं का ध्यान रखा जाएगा। गोरक्ष पीठ नेपाल से गहरा सरोकार रखती है। माना जाता है कि नेपाल का एकीकरण महायोगी गुरु गोरक्षनाथ ने ही किया था। इसीलिए गोरक्षपीठ के प्रति आम नेपालियों में गहरी श्रद्धा रहती है।

नेपाल में संविधान निर्माण का काम अंतिम चरण में है। 3 अगस्त को सभी दलों ने नेपाल की बहुसंख्यक आबादी की भावनाओं का सम्मान करते हुए एकमत से संविधान से पंथनिरपेक्ष शब्द निकालने का निर्णय किया। अब तय
होना है कि उसकी जगह कौन सा शब्द  जोड़ा जाए। फिलहाल 'हिन्दू' और 'धार्मिक आजादी' शब्द जोड़ने पर विचार चल रहा है।

नेपाल के पंथनिरपेक्ष राज्य बनने के बाद से वहां कन्वर्जन की प्रक्रिया तेज हो गई है। उत्तरी पहाड़ी इलाकों तथा दक्षिणी पठार के कुछ जिलों में अचानक लोग ईसाई बनने लगे हैं। इस बीच लाखों लोगों का कन्वर्जन हुआ है।

लगभग आठ साल पहले सन् 2006 में जब नेपाल का हिन्दू राजतंत्र समाप्त हुआ तथा माओवादियों द्वारा नया सेकुलर अंतरिम संविधान अस्तित्व में लाया गया, उसी दिन से मानो विदेशी मिशनरी संस्थाओं की बाढ़ सी आ गई। मिशनरी गतिविधियों के कारण नेपाल के पारंपरिक बौद्ध एवं शैव हिन्दू धर्मावलंबियों के बहुमत वाले समाज में तनाव निर्मित होने शुरू हो गए हैं। यहां तक कि ईसाई कन्वर्जन की बढ़ती घटनाओं के कारण वहां नेताओं को इस नए अंतरिम संविधान में भी पांथिक कन्वर्जन पर रोक लगाने का प्रावधान करना पड़ा।

नए संविधान में भी जबरन कन्वर्जन पर पांच साल की जेल का प्रावधान किया गया है। परन्तु इसके बावजूद मिशनरी संस्थाएं अपना अभियान निरंतर जारी रखे हुए हैं।

साभार :: पाञ्चजन्य

बाड़मेर में अखंड भारत दिवस

बाड़मेर में अखंड भारत  दिवस



बाड़मेर।  14 अगस्त 2015 अखंड भारत दिवस को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तत्वाधान में स्थानीय गांधीचौक में आयोजित किया गया।

मंच पर साध्वी सत्यासिद्धा जी, गिरधारीलाल जी चांडक, श्रीमान पुखराज जी गुप्ता, श्रीमान श्यामसिंह जी का सानिध्य प्राप्त हुआ।

 सर्वप्रथम श्यामसिंह जी ने अखंड भारत का परिचय करवाया । अखंड भारत का सपना देखने के लिए खुद को आहूत करने वाले महापुरुषों का स्मरण करवाया।

    साध्वी जी ने अपने ओजस्वी उद्बोधन से युवाओं में देशभक्ति का संचार किया।

    संघचालक जी ने अपने उद्बोधन में कहा कि अखंड भारत विभाजन settled fact नहीं है। भारत पुनः अखंड होकर ही रहेगा। जर्मनी पुनःअखंड हुआ है। इज़राइल का पुनः निर्माण हुआ है। इतिहास साक्षी है।

    कार्यक्रम का समापन अखंड भारत के पूजन से हुआ। अंत में आगंतुकों ने अखंड भारत की मिटटी से बनी सुन्दर कलाकृति पर पुष्पर्जन किया।

सोमवार, 17 अगस्त 2015

प. पू. सरसंघचालक को स्वर्ण स्याही लिखित भगवत गीता अर्पित

प. पू. सरसंघचालक को स्वर्ण स्याही लिखित भगवत गीता अर्पित 


साभार :: राजस्थान पत्रिका


त्रिदिवसीय आचार्य सम्मेलन का हुआ शुभारम्भ

त्रिदिवसीय आचार्य सम्मेलन का हुआ शुभारम्भ

जोधपुर १६ अगस्त २०१५.  विद्याभारती अखिल भारतीय शिक्षा संस्थान के मार्ग दर्शन में जोधपुर महानगर में त्रिदिवसीय (16 से 18 अगस्त ) आचार्य सम्मेलन आज प्रातः से आदर्श विद्यामन्दिर उच्च माध्यमिक, केशव परिसर कमला नेहरू नगर, जोधपुर में प्रारम्भ हुआ।

 
आचार्यों का मार्ग दर्शन करते हुए विद्याभारती जोधपुर प्रान्त के माननीय मंत्री श्री अमृत लाल जी दैय्या ने बताया कि मेकेले पद्धिति को अनिवार्य रूप से परिर्वतित करने क दायित्व विद्याभारती का है। विद्याभारती ने इसी लक्ष्य को ध्यान में रखते हुए अपना लक्ष्य निर्धारित कर श्रेष्ठ कार्य में निष्ठा पूर्वक प्रयासरत है। किसी भी देश का भविष्य उस के यहां चलने वाले विद्यालयों की कक्षा में निष्ठावान शिक्षक पर निर्भर करता है। हिन्दू संस्कृति स्वयं के लिए नहीं दूसरों के लिए जीना सिखाती है। हमारे देश की चालीस प्रतिशत जनता वनों गिरिकन्दराओं एवं झुग्गी  झोपडि़यों में निवास करती है। अभावग्रस्त अपने बान्धवों को सामाजिक कुरीतियों शोषण एवं अन्याय से मुक्त कराकर राष्ट्र जीवन को समरस, सुसम्पन्न एवं सुसंस्कृत बने उन के लिए जीने वाली पीढ़ी का निमार्ण करना ही हमारा लक्ष्य है।   

उद्घाटन सत्र में दीप प्रज्जलन  विद्याभारती जोधपुर प्रान्त के माननीय संगठन मंत्री श्री चन्द्र शेखर जी, प्रान्त के माननीय मंत्री श्री अमृत लाल जी दैय्या, प्रान्त पूर्व छात्र का कार्य देखने वाले श्री प्रवीण कुमार शारदा व जोधपुर महानगर सचिव श्री संग्राम जी काला ने किया ने किया ।

रविवार, 16 अगस्त 2015

राष्ट्रीयता की रक्षा, समरसता के बंधन से !

राष्ट्रीयता की रक्षा, समरसता के बंधन से !
-प्रमोद बापट

अपने हिंदू समाज के व्यक्तिगत तथा पारिवारिक जीवन में रीति, प्रथा तथा परंपरा से चलती आयी पद्धतियों का एक विशेष महत्व है. अपने देश की भौगोलिक विशालता तथा भाषाई विविधता होते हुए भी समूचे देश में विविध पर्व, त्यौहार, उत्सव आदि सभी सामूहिक रीति से मनाये जाने वाले उपक्रमों में समान सांस्कृतिक भाव अनुभव किया जाता है. इसी समान अनुभव को ‘हिंदुत्व’ नाम दिया जा सकता है. कारण ‘हिंदुत्व’ यह किसी उपासना पद्धति का नाम नहीं है. सर्वोच्च न्यायालय ने भी इसी कारण ‘हिंदुत्व’ को एक जीवनशैली बताया है.

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने आरंभ से ही हिंदू जागरण तथा संगठन के अपने स्वीकृत कार्य को बढ़ाने तथा दृढ़ करने हेतु समाज के मन में सदियों से अपनायी हुई इसी समान धारणा को अपनी कार्यपद्धति में महत्वपूर्ण स्थान दिया. आगे आने वाला ‘रक्षाबंधन’ पर्व संघ के छह वार्षिक उत्सवों में से एक प्रमुख उत्सव है. श्रावण मास की पूर्णिमा को भारतवर्ष में रक्षाबंधन पर्व के नाम से मनाया जाता है. राजस्थान, गुजरात जैसे पश्चिमी प्रदेशों में अधिक हर्षोल्लास से इसे मनाया जाता है. अपने सभी उत्सव, पर्वों से प्रायः कोई पराक्रम, वीरता का प्रसंग जुडा रहता है. रक्षाबंधन त्यौहार से भी अनेक पौराणिक और ऐतिहासिक घटनाएं जुड़ी हैं.

पौराणिक काल में देवराज इंद्र की पत्नी शुची ने देव-दानव युद्ध में विजय प्राप्ति के लिये इंद्रदेव के हाथ पर रक्षासूत्र बांधा था. तो माता लक्ष्मी ने बलिराजा के हाथ में रक्षासूत्र बांधकर विष्णुजी को मुक्त करावाया था. इस प्रसंग का स्मरण कराने वाला ‘येन बद्धो बलिराजा…’ यह श्लोक प्रसिद्ध है. इतिहास में चित्तौड़ के वीर राणा सांगा के वीरगति प्राप्त होने पर चित्तौड़ की रक्षा करने रानी कर्मवती ने राखी के बंधन का कुशलता से प्रयोग किया था.

आधुनिक काल में स्वातंत्र्य संग्राम में बंगभंग विरोधी आंदोलन में राष्ट्रकवि गुरुदेव रवींद्रनाथ ठाकुर जी ने बहती नदी में स्नान कर एकत्रित आये समाज को परस्पर रक्षासूत्र बांधकर, इस प्रसंग के लिये रचा हुआ नया गीत गाकर अपनी एकता के आधार पर ब्रिटिशों पर विजय की आकांक्षा जगायी थी. साथ-साथ समाज में बहनों ने भाई को, विशिष्ट जाति  के आश्रित व्यक्तियों ने धनवानों को श्रावण पूर्णिमा के दिन राखी बांधने की प्रथा प्राचीन काल से प्रचलित है.

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने इन सारी कथा, प्रसंग, प्रथाओं के माध्यम से व्यक्त होने वाले भाव को अधिक समयोचित स्वरुप दिया. कारण उपरोल्लिखित सारी कथाएं और प्रथाएं भी राखी के साधन से, आत्मीयता के धागों से परस्पर स्नेह का भाव ही प्रकट करती है. यही स्नेह आधार का आश्वासन भी देता है और दायित्व का बंधन भी. समाज में परस्पर संबंध में आये हुए विशिष्ट प्रसंग के कारण पुराण या इतिहास काल में रक्षासूत्र का प्रयोग हुआ होगा. पर ऐसा प्रत्यक्ष संबंध न होते हुए भी हम सब इस राष्ट्र के राष्ट्रीय नागरिक है, हिंदू है, यह संबंध भी अत्यंत महत्वपूर्ण है. और व्यक्तिगत से और अधिक गहरा यह महत्वपूर्ण नाता ही सुसंगठित समाज शक्ति के लिये आवश्यक होता है. यह नाता समान राष्ट्रीयता का, समान राष्ट्रीय अभिमान, अस्मिता तथा आकांक्षा का है. समान ऐतिहासिक धरोहर का और परम-वैभवलक्षी भवितव्य का है. इस राष्ट्रीय सांस्कृतिक रक्षा बंधन से हमारा पारस्परिक एकात्म भाव बढ़ेगा. किसी भी दुर्बल की उपेक्षा नहीं होगी और बलसंपन्न दायित्व से दूर नहीं रहेगा.

डॉ. आंबेडकर जी ने अपने ग्रंथों एवम् भाषणों में हिंदू समाज की आंतरिक गहरी एकात्मता का वर्णन किया है. इस आंतरिक गहरे एकात्म भाव का प्रकटीकरण ही उसके अस्तित्व की पुष्टी करेगा. और रक्षा बंधन ही हमारे भीतरी, अटूट एकरसता को व्यक्त करने का समरसता-प्रेरक पर्व है और राखी यह एक सरल सादा साधन है, जिसके धागे से न केवल हाथ बंधेंगे, पर उससे अधिक मन बंधेंगे, हृदय बंधेंगे. अपने समाज में एकत्व जगाने का ऐतिहासिक कार्य आरंभ में संतों ने किया था. बारहवीं सदी से संपूर्ण देश में भक्ति आंदोलन की एक ज्वार उठी. भक्ति के, परमार्थ के पथ पर एकात्मता के मंत्र ने समाज को संगठित किया. आगे ब्रिटिश काल में अनेक समाज सुधारकों ने विचारों के आधार पर सामाजिक समता का अलख जगाया. स्वतन्त्रता के पश्चात भी संपूर्ण समाज के एकात्म, एकरस होने की आवश्यकता बनी रही और कुछ नये कानून, दंड विधान, आरक्षण जैसी व्यवस्थाओं के माध्यम से प्रयास होते रहे. पर, अभी भी पूर्ति से दूर ही रहे है. इसका एक कारण यह होगा कि, एकात्म एकरस समाज यह किसी बाह्य उपचारों से प्राप्त नहीं होंगे. इसकी आवश्यकता समाज के सभी घटकों में निर्माण हो और उस की प्रत्यक्ष अनुभूति भी समाज का हर एक घटक स्वयं करें, आने वाला रक्षाबंधन का पर्व इसी अनुभूति का पर्व हो और इस अवसर पर प्राप्त अनुभूति अपने समाज की स्थायी, सहज स्थिति हो इसलिये हम सब प्रयत्नशील हो.


शनिवार, 15 अगस्त 2015

आज का दिन देश के लिए संकल्पबद्ध होने का दिन है – डॉ. मोहन जी भागवत

आज का दिन देश के लिए संकल्पबद्ध होने का दिन है – डॉ. मोहन जी भागवत

स्वतंत्रता दिवस पर पू. सरसंघचालक जी ने सूरत में फहराया ध्वज







गुजरात (विसंकें). डॉ. आंबेडकर वनवासी कल्याण ट्रस्ट, सूरत, गुजरात द्वारा स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर आयोजित ध्वजवंदन के कार्यक्रम में पू. सरसंघचालक डॉ. मोहन जी भागवत द्वारा ध्वजवंदन किया गया. डॉ. मोहनजी भागवत ने कहा कि अपने देश को 1947 में स्वतंत्रता मिलने के पश्चात प्रतिवर्ष 15 अगस्त को हम सब देशवासी ध्वजवंदन करते हैं. यह संकल्प का दिन है, जैसे अपनी स्वतंत्रता प्राप्ति के दिन का हम स्मरण करते हैं, वैसे ही उसके लिए संकल्पबद्ध होने का भी यही क्षण है. और जिस प्रकार हम इस उत्सव को मानते हैं, वही हमारा मार्गदर्शन भी करता है कि हमको क्या संकल्प लेना है. पहले तो एकदम ध्यान में आता है कि आज का दिवस पूरा देश मना रहा है. अपने देश में अनेक पंथ संप्रदाय हैं. सब लोग सब त्यौहार नहीं मनाते, कुछ त्यौहार संप्रदाय विशेष के होते हैं. अपने देश में अलग-अलग जाति है, उनके भी अपने कुछ विशिष्ट दिवस होते हैं वो सब नहीं मानते, केवल वो जाति ही मानती है. लेकिन आज का दिवस यहां जाति, पंथ, प्रांत, राजनीतिक पार्टी सब भूलकर लोग इस ध्वज को वंदन करते हैं. एक राष्ट्रगीत-राष्ट्रगान गाते हैं और केवल भारत माता की जय, वन्देमातरम, जय हिन्द कहते हैं. संघ का सरसंघचालक आया है, इसलिए केशव की जय जय, माधव की जय जय ऐसा कहने की प्रवृति नहीं है, होनी भी नहीं चाहिए.


स्वतंत्रता दिवस पर पू. सरसंघचालक जी ने सूरत में फहराया ध्वज
आज के दिन हम स्मरण करते हैं कि हमारे देश में ये सारी विविधताएं हैं, भेद नहीं हैं. अतः विविधता में जो एकता है, उसके स्मरण का आज का दिन है. उस विविधता में एकता साधकर हम देश के नाते बहुत प्राचीन समय में खड़े हुए और बहुत उतार-चढ़ाव देखे. अभी आधुनिक उतार-चढ़ाव में हमने विजय पायी अपने देश को स्वतंत्र किया, यह आज का दिन है. उस सारे संघर्ष का उतार-चढ़ाव देखकर परिस्थिति पर विजयी होने का कारण क्या है? उसका स्मरण अपना यह तिरंगा राष्ट्र ध्वज हमको करवाता है. इसके तीन रंग हैं और उसके उपर धर्मचक्र है. यह जो धर्मचक्र है यह बताता है कि हमसब लोगों को अपने देश में धर्म के प्रवर्तन के लिए जीना है और संपूर्ण दुनिया को खोया हुआ धर्म उनको वापस देना है. धर्म के आधार पर सब लोग जुड़ते हैं, उन्नत होते है. धर्म यानि पूजा नहीं, पूजा तो धर्म का एक छोटा सा हिस्सा होता है जो धर्म है व्यापक धर्म, मानव धर्म जिसको हिन्दू धर्म भी कहा जाता है. उसमें सब प्रकार की विविधताओं की, पूजा पद्धतियों की अनुमति है. परन्तु अपनी अपनी विविधता का गौरव मन में रखते हुए सब लोग एक हो कर जियें और देश का, दुनिया का, मानवता का गौरव बढ़ायें. इसका संदेश देने वाला यह धर्मचक्र है. धर्म संकल्पना यह केवल भारत की विशेषता है. भारत का व्यक्ति पूरी दुनिया के लिए जीता है.

हमारे राष्ट्र ध्वज का पहला रंग सबसे उपर केसरिया भगवा रंग है. यह त्याग का रंग है, यह कर्मशीलता का रंग है, यह ज्ञान का रंग है. मैं कौन हूँ, दुनिया क्या है और इसमें मेरा संबंध क्या है ? यह आत्म ज्ञान प्राप्त कर उसके आधार पर सबको अपना मानकर, सबको आगे बढ़ाना. सर्वेपि सुखिनः सन्तु, सर्वे सन्तु निरामयाः, सर्वे भद्राणि पश्यन्तु, माकश्चिद्दुःखभाग्भवेत्. इस प्रकार का मनुष्य जीवन सृष्टि में उत्पन्न करना. इसके लिए प्राचीन समय से हमारे पूर्वजों ने, ऋषि मुनियों ने, योद्धाओं ने, राजाओं ने, भक्तों ने त्याग किया. उस त्याग का रंग भगवा है. त्याग करने वालों के वस्त्रों का रंग भगवा है. सुबह उठते है.. सूर्योदय होता है तो आसमान में जो रंग दिखता है, अंधकार समाप्त कर प्रकाश बढ़ाने वाला वही यह रंग है. उठने के बाद लोग काम में लग जाते है, रात को सो जाते है, फिर उठकर काम में लग जाते हैं. यह कर्मशीलता का रंग है और यह कर्मशीलता किनकी है, त्याग किनका है ? जिनका जीवन विशुद्ध है, निर्मल है. उस निर्मलता का, पवित्रता का प्रतीक सफेद रंग है. और ऐसा करने से होता क्या है? तो संपूर्ण विश्व में सबके लिए समृद्धि मिलती है, उसी समृद्धि का प्रतीक हरा रंग
देश को स्वतंत्रता मिली, लेकिन इस स्वतंत्रता का प्रयोजन क्या था ? क्यों हम स्वतंत्र होना चाहते थे ? तो हम एक ऐसी दुनिया बनाना चाहते हैं, जिसमें भारतवासियों के त्याग, कर्मशीलता और ज्ञान के आधार पर और उनके हृदय की निर्मलता, शांतिपूर्णता के आधार पर संपूर्ण विश्व समृद्ध होकर श्रेयस की ओर आगे कूच जारी रखें. यह कर्तव्य पूरा करने के लिए भारत को स्वतंत्र होना, भारत को समर्थ होना, भारत को सुरक्षित होना और भारत को परम वैभव संपन्न होना आवश्यक है. वो करने के लिए मेरा जीवन है, मेरे जीवन की सारी शक्तियां, अपने इस कर्तव्य को पूरा करने में लगा दूंगा. यह संकल्प प्रतिवर्ष अपने स्वतंत्रता दिवस पर हमको लेना चाहिए. वैसा आप संकल्प धारण करेंगे और उस संकल्प की पूर्ति के लिए प्रयास करेंगे, उस संकल्प की पूर्ति के लिए अपने जीवन में आवश्यक जीवन परिवर्तन आप स्वयं करेंगे, इस आशा और विश्वास के साथ आपको धन्यवाद देता हुआ मैं अपनी बात समाप्त करता हूँ.

कार्यक्रम में मंच पर हिमांशु भाई भट्ट ( अध्यक्ष,डॉ. आंबेडकर वनवासी कल्याण ट्रस्ट), डॉ. जयंतीभाई भाड़ेसिया (मा. संघचालक, पश्चिम क्षेत्र), सुरेशभाई मास्टर (विभाग संघचालक, सूरत) उपस्थित रहे.

शुक्रवार, 14 अगस्त 2015

अखण्ड भारत का तेजश्वी पुनर्दर्शन करेंगे - प पू गुरूजी

अखण्ड भारत का तेजश्वी पुनर्दर्शन करेंगे - प पू गुरूजी 

 बुधवार, 4 जून 2014  प्रकाशित ब्लॉग पोस्ट फिर से एक बार

 

महापुरुषों की संकल्पनानुसार भारत निर्माण के लिए उनके विचारों को समझना होगा – डॉ. मोहन राव भागवत

महापुरुषों की संकल्पनानुसार भारत निर्माण के लिए उनके विचारों को समझना होगा – डॉ. मोहन राव भागवत

दिल्ली में डॉ. आंबेडकर जी पर आधारित पुस्तकों का लोकार्पण समारोह
दिल्ली में डॉ. आंबेडकर जी पर आधारित पुस्तकों का लोकार्पण समारोह
नई दिल्ली. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डॉ. मोहन राव भागवत जी ने कहा कि भारत निर्माण की कल्पना करने वाले प्रत्येक व्यक्ति को समझना अत्यंत आवश्यक है. निर्माताओं ने क्या सोचा था, उनकी दिशा दृष्टि, विचार क्या थे, उस पर विचार करना होगा. मेरा मत है कि अभी भारत निर्माण हुआ नहीं है, अभी भारत निर्माण करना बाकी है. महापुरुषों की संकल्पना के अनुसार भारत निर्माण करने के लिए उनके विचारों को समझना होगा. सरसंघचालक जी ने कहा कि वर्तमान में महापुरुषों को हमने अलग-अलग श्रेणियों में बांटकर पिंजड़ों में बंद कर दिया है. महापुरुषों को बांटकर रख दिया, लेकिन सबकी दृष्टि समान थी, एक राष्ट्रीय धारा थी. सब इस पवित्र मिट्टी के जाये (जन्मे) भारत माता के सपूत थे. इसलिए हमें महापुरुषों के प्रति देखने की अपनी दृष्टि बदलनी होगी. यदि देशहित में काम करने वाली, सोचने वाली दो विचारधाराएं साथ आएं, तो दुख कैसा.
सरसंघचालक जी बाबा साहेब आंबेडकर जी पर अर्थशास्त्री डॉ. नरेंद्र जाधव द्वारा संपादित, संकलित पुस्तकों के लोकार्पण समारोह में संबोधित कर रहे थे. पुस्तकों में डॉ. आंबेडकर जी के विचारों, भाषणों को शामिल किया गया है. उन्होंने कहा कि हमारा मार्गदर्शक कौन है, इस परदिल्ली में डॉ. आंबेडकर जी पर आधारित पुस्तकों का लोकार्पण समारोह

विचार करने के लिए मनुष्य के व्यक्तित्व, उसके त्याग, निस्वार्थ भाव, लोगों के दुख को नष्ट करने की सोचता है या नहीं अथवा अपनी प्रसिद्धि के बारे में सोचता है…यह विचार करना होगा. देश के प्रत्येक घटक के प्रति जिनके मन में दर्द है, वह वास्तव में हमारे मार्गदर्शक हैं. डॉ. आंबेडकर जी का संघ से नाता काफी पुराना है, वर्ष 1939 में संघ शिक्षा वर्ग में डॉ. आंबेडकर जी अचानक आए थे, तो उस दौरान डॉ. हेडगेवार जी ने दोपहर बाद बौद्धिक वर्ग के स्थान पर भारत में दलित समस्या और दलितोद्धार विषय पर बाबा साहेब का भाषण करवाया था.
सरसंघचालक जी ने कहा कि संघ महापुरुषों को व्यापार की वस्तु नहीं मानता, न ही संघ प्रसिद्धि, लोकप्रियता के लिए कार्य करता है, यह अपने स्वभाव में ही नहीं है. संघ महापुरुषों के विचारों को अपने आचरण में लाने का अभ्यास करता है. वास्तव में किसी महापुरुष का नाम धारण करने के लिए, अपने साथ जोड़ने के लिए शील, समर्पण, प्रामाणिकता चाहिए, यह सती के व्रत के समान कठिन है, आसान काम नहीं है. डॉ. आंबेडकर जी ने समाज से विषमता उन्मूलन के लिए कार्य करने के साथ ही पूरे राष्ट्र का चिंतन किया. उन्होंने अपने जीवन में घोर उत्पीड़न, प्रताड़ना, तिरस्कार, अपमान का सामना किया, लेकिन उनके मन में एक क्षण के लिए भी देश के प्रति विद्वेश नहीं हुआ.
दिल्ली में डॉ. आंबेडकर जी पर आधारित पुस्तकों का लोकार्पण समारोह

डॉ. भागवत जी ने कहा कि हमें संपूर्ण समाज को एक साथ आगे बढ़ाना है, समाज से विषमता को दूर करना है तो डॉ. आंबेडकर जी के विचारों को पढ़ना होगा, उन्हें समझना होगा. उन्हें समझे बिना, जाने बिना, पढ़े बिना पूर्णता नहीं आ पाएगी. समाज के प्रत्येक क्षेत्र राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक क्षेत्र में समरसता लानी होगी. सबका लक्ष्य राष्ट्र को आगे ले जाना है, इसके लिए वैचारिक मतभेद होने के बाद भी संवाद करने की वृत्ति की आवश्यकता है.
अर्थशस्त्री, योजना आयोग के पूर्व सदस्य व पुस्तकों के संपादन व संकलनकर्ता डॉ. नरेंद्र जाधव ने कहा कि वह किसी राजनीतिक दल से संबंधित नहीं हैं, लेकिन वे अंबेडकरवादी थे, अंबेडकरवादी हैं तथा हमेशा रहेंगे. बाबा साहेब उनके लिए अखंड प्रेरणा स्रोत हैं. पुस्तकों में बाबा साहेब के विचार और सारगर्भित भाषण शामिल हैं. उन्होंने कहा कि भारतीय समाज ने बाबा साहेब को न ठीक से समझा और न ही जाना. वह केवल दलित नेता नहीं थे, उन्होंने सारा जीवन राष्ट्र निर्माण, समाज की चेतना जगाने में लगाया. वह देश के पहले प्रशिक्षित अर्थशास्त्री थे. डॉ. जाधव ने डॉ. आंबेडकर जी के विचारों पर विस्तार से प्रकाश डाला. उन्होंने कहा कि सरसंघचालक जी द्वारा पुस्तकों के लोकार्पण पर प्रसन्नता का अनुभव कर रहे हैं. पर, उनके कुछ मित्र कार्यक्रम का पता चलने पर आपत्ति जता रहे हैं, सोशल मीडिया पर उनकी आलोचना हो रही है, टीवी पर चर्चा हो रही है, कुछ को राजनीति भी नजर आ रही है. कुछ ने तो यह भी पूछना शुरू कर दिया है कि आप बीजेपी में कब जा रहे हैं. पर, उन्हें इससे कोई मतलब नहीं है.
कार्यक्रम में डॉ. भीमराव आंबेडकर जी पर लोकार्पित पुस्तकें – आत्मकथा एवं जनसंवाद, सामाजिक विचार एवं दर्शन, आर्थिक विचार एवं दर्शन, राजनीति, धर्म और संविधान विचार ….पुस्तकों का प्रकाशन प्रभात प्रकाशन ने किया है.
दिल्ली में डॉ. आंबेडकर जी पर आधारित पुस्तकों का लोकार्पण समारोह
दिल्ली में डॉ. आंबेडकर जी पर आधारित पुस्तकों का लोकार्पण समारोह

दिल्ली में डॉ. आंबेडकर जी पर आधारित पुस्तकों का लोकार्पण समारोह

मंगलवार, 11 अगस्त 2015

अपनी बात -अलग हैं इंडिया और भारत के गुणसूत्र

अपनी बात -अलग हैं इंडिया और भारत के गुणसूत्र

--हितेश शंकर

 स्वतंत्रता के दिवस विशेषांक की तैयारियां करती संपादकीय टोली के मन में विचार तो कई  थे लेकिन बात ही बात में प्रश्न उठा- क्या स्वतंत्रता के 69 वें साल में भी हम अपने स्व को पहचान सके हैं? या हम आज भी इंडिया और भारत में बंटे हुए  हैं?

यह छोटा सा लेकिन ऐसा प्रश्न है जिस पर इस देश का संविधान भी सफाई से कतरा कर निकल जाता है...कल्ल्रिं ३ँं३ ्र२ इँं१ं३ ...क्या इंडिया ही भारत है?  

थोड़ा गहरे उतरना होगा। इंडिया क्या है? रूमानी कल्पनाओं को जोड़कर अपने हिसाब से गढ़ी गई कोई ऐसी नेहरूवादी कथा जिसमें तथ्यों और ऐतिहासिकता की भारी कमी है!! क्षमा कीजिएगा, किन्तु जवाहरलाल नेहरू द्वारा लिखित 'डिस्कवरी ऑफ इंडिया' के बारे में प्रख्यात इतिहास लेखक पैट्रिक फ्रेंच की राय कुछ ऐसी ही है। या फिर यह देश कुछ और है! इंडिया के चमकीले मगर भुरभुरे विचार से कहीं गहरी और बड़ी बात। ऐतिहासिकता के ठोस स्तंभों पर टिकी ऐसी संस्कृति जिसकी जड़ें 'इंडिया' से पीछे भी हैं और भविष्य में मानवता की जरूरतें पूरी करने के लिए आगे तक भी जाती हैं।

...जम्बूद्वीपे भरतखंडे...भारत के चेहरे से इंडिया का पर्दा हटा कर देखने की कोशिश की कभी? क्या भारत और इंडिया, इन दोनों में कोई फर्क है? नाम ही तो है, क्या अंतर पड़ता है? ठहरिए, इंडिया और भारत को एक समझने की भूल मत कीजिए। दोनों में भारी अंतर है। यहां तक कि दोनों के गुणसूत्र अलग हैं। यह आधारभूत अंतर है जिसकी वजह से एक राष्ट्र से जुड़ी दो संकल्पनाएं एक ही स्थिति में अलग-अलग तरह से सोचती-व्यवहार करती हैं।

भारत वैश्विकता की बात करता है। इंडिया गुलामी के 'कॉमनवेल्थ' दायरे से बाहर नहीं निकल पाता। भारत मानवता की बात करता है। इंडिया तुष्टीकरण की बात करता है। भारत सही के साथ  खड़े होने की बात  करता है। इंडिया अनिर्णय और अंतर्द्वंद्व के 'गुटनिरपेक्ष' तराजू में झूलता रह   जाता है। इंडिया सेकुलर है, भारत धर्मनिष्ठ।

इंडिया कुछ लोगों के हित पालने वाली वर्गीय-वंशवादी खामखयाली है।भारत इस देश के करोड़ों लोगों का वास्तविक चेहरा...उनके जीवन का सच।

नाम का फर्क कैसे देश में चरित्रगत बदलाव लाता है, इस बात के साफ होने से कुछ लोगों को आपत्ति हो सकती है। लेकिन इंडिया और भारत के बीच का फर्क सच है, तो है।

देश की गरीबी के आंकड़े 1935 के बाद दूसरी बार सामाजिक-आर्थिक जनगणना के रूप में देश के सामने आए हैं। हाल में सामने आए ये आंकड़े 2011-12 में जुटाए गए थे। इनसे जो चित्र उभरता है वह भयानक है। 'गरीबी हटाओ' के नारे की सीढ़ी से पीढि़यों सत्ता में रहने वालों के खातों की स्थिति जो हो, जनता की हालत बुरी है। अभावग्रस्तता के आंकड़े बताते हैं कि करीब 51 प्रतिशत लोगों की कमाई का स्थाई उपाय नहीं है और वे आज भी 'कच्चे' दिहाड़ी मजदूर के तौर पर जिंदगी से जरूरतों की लड़ाई लड़ रहे हैं। देश के तीन चौथाई लोग अब भी गांवों में रहते हैं। करीब 75 प्रतिशत ग्रामीण परिवारों में जो सबसे ज्यादा कमाता है उसकी कमाई भी 5000 रुपए से कम है!

भारत को इंडिया बताने और प्राचीन सांस्कृतिक राष्ट्र की बांह पर गंगा-जमुनी 'तहजीब' का ताबीज बांधने वालों के पास इस बात का कोई जवाब नहीं है कि पिछले करीब सात दशक में देश भर में हुए छोटे-बड़े हजारों दंगों का जिम्मेदार उनका शासन क्यों नहीं है? क्यों उनके तुष्टीकरण के बावजूद उन वगार्ें का विकास नहीं हुआ जिनकी चिंता में 'इंडिया' घुला जाता है।

गांधी के भारत पर नेहरू के इंडिया की सोच का हावी होना कड़वी किन्तु सच बात है। इंडिया के हिमायतियों ने न सिर्फ भारत बल्कि खुद गांधी की सोच के साथ भी साजिश की है। गांधी जी ईसाई मिशनरियों के हथकंडों को बखूबी समझते थे और अहिंसा के उपदेशक ने इन्हें भारत के लिए खतरनाक माना था (हरिजन, 6 मार्च, 1937)।

लेकिन नेहरू की पार्टी के दामन पर कन्वर्जन और यहां तक कि भारत के ही जवानों की जान लेने वाले आतंकियों को पोसने के दाग भी हैं।

बहरहाल, देश के दो नाम कैसे दो विरोधाभासी चित्रों के पर्याय बन गए हैं इसकी पड़ताल विचारोत्तेजक और दिलचस्प  है। राजनीति इस अंतर को उभारने वाला प्रथम और सबसे प्रभावी कारक तो है किन्तु आयातित और नकली संकल्पनाओं का गहरा दंश अंतत: समाज जीवन के विविध पक्षों को झेलना पड़ा है।

इस अंक की आवरण कथा इंडिया बनाम भारत का यही द्वंद्व पाठकों के सामने रखती है। मुद्दे को सीधे न छूते हुए एक सीमित और विशिष्ट सर्वेक्षण के जरिए राजधानी स्थित तीन केंद्रीय विश्वविद्यालयों के छात्रों का मन परखने का प्रयास भी पाञ्चजन्य ने किया है। साथ ही विविध क्षेत्रों के विशेषज्ञ लेखक के तौर पर इस आयोजन में सम्मिलित हुए हैं।

व्यवस्था अपने साथ दायित्व लेकर आती है। लोकतंत्र में जनता तथ्य परखे, यह उसका कर्तव्य है। लोग भारत या इंडिया को लेकर अपनी स्वतंत्र राय बनाने में सक्षम हों, यह उनका अधिकार है।

पाञ्चजन्य का प्रयास है कि भारत और इंडिया का यह विरोधाभास लोकतंत्र के 69 वें मोड़ पर उजागर हो। आप क्या सोचते हैं? पत्र लिखें या ईमेल करें। आपकी प्रतिक्रियाएं महत्वपूर्ण हैं।


Panchjanya,                                                        पाञ्चजन्य 
Sanskriti Bhavan,                                          संस्कृति भवन
D.B. Gupta Road,                                       डी.बी. गुप्ता रोड

Jhandewalan                                                     झंडेवालान
New Delhi-110 055                                        नई  दिल्ली -110 055



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सोमवार, 10 अगस्त 2015

केवल विचार विश्लेषण से भविष्य नहीं बनता है, देश की अखंडता के लिए कुछ करना होता है - प्रो. सदानंद सप्रे

केवल विचार विश्लेषण से भविष्य नहीं बनता है, देश की अखंडता के लिए कुछ करना होता है -  प्रो. सदानंद सप्रे  
मारवाड़ विचार मंच पाली द्वारा अखंड भारत पर  संगोष्ठी आयोजित

राष्ट्रीय  स्वयंसेवक संघ के विश्व विभाग के सहसंयोजक प्रो. सदानंद सप्रे उध्बोधन देते हुए

ओम विश्वदीप आश्रम के महामंडलेश्वर महेश्वरानंद महाराज

पाली ९ अगस्त २०१५. राष्ट्रीय  स्वयंसेवक संघ के विश्व विभाग के सहसंयोजक माननीय सदानंद सप्रे ने कहा कि केवल विचार विश्लेषण से भविष्य नहीं बनता है, देश की अखंडता के लिए कुछ करना होता है। उन्होंने कहा कि अलगाव और आतंकवादियों के खिलाफ एकजुट होना पड़ेगा। वे रविवार को "हमारा संकल्प अखंड भारत" विषय पर मारवाड़ विचार मंच के तत्वावधान में आयोजित विचार गोष्ठी को मुख्य वक्ता के रूप में संबोधित कर रहे थे। 

मंडिया रोड स्थित सरस्वती शिशु मंदिर में आयोजित इस गोष्ठी में प्रो.  सप्रे ने भारत की अखंडता के संभावित समाधानों तथा विभाजन के कारणों का विश्लेषण किया। उन्होंने कहा कि अलगाववादी लोगों के कारण देश का विभाजन हुआ। साथ ही कहा कि यह चिंतन का विषय है कि 1857 की क्रांति में हिंदू मुस्लिम सभी साथ-साथ लड़े थे, फिर आजादी मिलने के वक्त विभाजन क्यूं हो गया। सप्रे ने दो सत्रों मे अपने उद‌्बोधन में हिंदुस्तान शब्द की महता समाहित करने का भाव और इतिहास की गलतियों से सीख लेने की बात कही। 

प्रो. सप्रे ने अपने उध्बोधन में कहा कि भारत अखण्ड होगा  जर्मनी भी एक हुआ था । भारत भी होगा। 1940 में असंभव लगने वाला विभाजन 7 साल बाद हुआ। असंभव कुछ नहीं। विभाजन क्यों हुआ? मूल कारण - मुस्लिम समाज में अलगाववादी विचारों वाले लोगो का मत था की हम अलग है। सैंकड़ों वर्ष के मुस्लिम वर्चस्व का अंत हुआ तो भारत का मूल चरित्र वापस सामने आया। हिन्दू-मुस्लिम एक साथ आए और आज़ादी में एक साथ जुटे। भारत में उपासना पद्धति बदलने की कभी परंपरा नहीं रही। अंग्रेजो ने कट्टर मुस्लिमो को भड़काया। दोनों के संयुक्त प्रयासों के बाद भी मुस्लिम गणेशोत्सव में शामिल हुए।
अंग्रेजों की कुटिल चालों में आर्य बाहर से आए की थ्योरी चलना भी था। भारत अंग्रेजो के कारण  एक हुआ ये भ्रम फैलाया गया। भारत में एक राष्ट्र अनेक राज्य की परिकल्पना शुरू से रही।
19वीं  सदी में कांग्रेस के अध्यक्ष सुरेन्द्र नाथ बेनर्जी की पुस्तक अ नेशन टू बिल्ड में भारत को राष्ट्र बनाने की बात। पुस्तक में कॉम्पोसिट कल्चर की बात। इसी आधार पर राष्ट्र बनाने की बात हुई ।तत्समिक परिस्थियों में विदेशो की तर्ज पर राष्ट्र पिता का विचार आया।

भारत का इतिहास 5000 साल पुराना है । इस्लाम और ईसाई बहुत बाद यहाँ आये।  ये संस्कृति हिन्दू। जिसे नकार मिली जुली संस्कृति बताना अंग्रेजों की चाल थी । आज़ादी पूर्व सभी आन्दोलनों में हिन्दुओ के साथ मुस्लिम भी शामिल हुए व बिना शर्त। इसके बाद मुस्लिम लीग बनाई गयी।

प्रो. सप्रे ने अपने उध्बोधन में बताया कि बंग भंग विरोधी आंदोलन में हिदुओ के साथ मुस्लिम भी शामिल होते थे। सभी वंदे मातरम् का गान करते थे, मुस्लिम भी। तत्समय वंदे मातरम् का विरोध मुस्लिम नही करते थे। राष्ट्र वादी मुस्लिमो से अलगाव वादियो को अलग कर मुस्लिम लीग की स्थापना हुई थी । 1906 में स्थापित मुस्लिम लीग अलग राष्ट्र की बात करते रहे। उस समय भी आरक्षण था। तत्समय जिस श्रेणी का आरक्षण उसी को वोट का अधिकार था । 1937 में मुस्लिम लीग को मुस्लिमो में से मात्र 20% ने स्वीकारा। 80% भारत विभाजन के विरोध में थे। 1937 मे मुस्लिम लीग को 20% से 1946 में 100% आरक्षित सीटें मिली और 90% वोट मिले। हमसे हुई भूलों से सीख ले कर भविष्य में भूल न हो ऐसा विचार रख इतिहास पढ़े। इजराइल जैसी परिस्थियां अभी भारत की नहीं। 

द्वितीय सत्र  में  प्रो. सप्रे ने कहा कि इस धरती पर पैदा हुए सभी धरती माँ के पुत्र है. उपासना पद्धति से पूर्वज , मातृभूमि, संस्कृति नहीं बदली जाती । ईश्वर के जरिये मुक्ति मिलती है । सिर्फ उपसना पद्दति में अंतर आया।   1905 तक धर्म आधारित अलगाववाद नहीं था। राष्ट्रभक्ति बिना शर्त होती है। सशर्त नहीं। स्वतन्त्रता प्राप्ति में सशर्त जुड़ें अलगाववादियों की शर्ते मानना गलत था ।

कांग्रेस शासनकाल के शिक्षामंत्री मोहमद करीम छागला ने कहा की मेरी शिकायत ये है की राष्ट्रवादी मुस्लिमों के प्रति कांग्रेस और गांधीजी भी उदासीन रहे। जिन्ना और सांप्रदायिक को महत्व। राष्ट्रवादियों का समर्थन किया होता तो जिन्ना की हर बात का खंडन होता एवं अलगाववादियों को भी राष्ट्रवादी बना दिया होता।

 डॉ सप्रे ने कहा की भारत का मुसलमान डॉ कलाम जैसे बने याकुब जैसे नहीं।

सेक्युलर को इंडियन, भारतीय हिंदुस्तानी कह दो मगर हिन्दू कहो तो दुखी होते हे । हिन्दू यानि संकुचित का दुष्प्रचार।हिन्दू शब्द में संकुचित्ता नहीं। जो हिंदुस्तान में रहे वो हिन्दू।हज़ यात्रा में गए भारतीय मुसलमान को हिन्दू मुस्लमान कहा जाता है। यहाँ हिन्दू धर्म नही संस्कृति के रूप में।
विश्व में धर्म आधारित देश नहीं संस्कृति आधारित। इस्लामिस्तान और क्रिश्चिनलैंड नहीं। ऐसे में हिंदुस्तान भी धर्म आधारित नहीं संस्कृति आधारित। हिन्दू सभी को समाहित करता है।एकात्मकता श्रोत में रसखान को महापुरुष कहा है। दादा भाई नोरोजि पारसी, कलाम साहब आदर्श है अपने मज़हब का पालन करते हुए हिन्दू संस्कृति को अपनाना। अखंड भारत की संकल्पना एक राष्ट्र अनेक राज्य।

अध्यक्षता करते हुए ओम विश्वदीप आश्रम के महामंडलेश्वर महेश्वरानंद महाराज ने भारतीय संस्कृति को जोड़ने वाली बताया। जैसा संग वैसा रंग सबसे बडी भक्ति देश भक्ति है, कई राजस्थानी लोकोक्तियों से उन्होंने संस्कृति से जुड़ें रहने की बात कही। 

 महेश्वरानंद जी  ने उध्बोधन में कहा कि वसुदेव कुटुम्बकम् की भावना है हमारी ।संस्कारो से संस्कृति बनती है। संस्कारों की कमी के कारण  बंटवारा होता है।  जहाँ लालच वही विभाजन होता है ।  स्वयं में अगर विभाजन है तो अखण्ड भारत की परिकल्पना असम्भव।
महेश्वरानंद जी ने कहा कि भारत ने सिर्फ दिया ही है ,  कभी आक्रमण नहीं किया। हमें हमारी संस्कृति बचाने की जरुरत है।मारवाड़ विचार मंच के मेघराज बंब ने मंच की गतिविधियों पर प्रकाश डाला।

परिस्तिथि निर्माण से परिवर्तन सम्भव - प्रोफेसर सदानंद सप्रे

 परिस्तिथि निर्माण से परिवर्तन सम्भव - प्रोफेसर सदानंद सप्रे

प्रोफेसर सदानंद सप्रे उध्बोधन देते हुए 
 
जोधपुर ८ अगस्त २०१५। १५ अगस्त को विभाजन के प्रति वेदना मन में है। राष्ट्र स्वाधीन हुआ किन्तु दुर्भाग्यवश विभाजन भी हुआ , विभाजन मजहब आधारित हुआ जो षड्यंत्र का परिणाम था।  मुस्लिम मूलतः राष्ट्रवादी थे मजहब के नाम पर षड्यंत्र पूर्वक अलगाव पैदा कर अलगाववादी बनाया गया।  क्या 1857 का वृह्द भारत या कहे अखंड भारत का परिदृश्य पुनः  है ? संभव है सम्भावना  है। उक्त विचारो को प्रकट करते हुए प्रोफेसर सदानंद सप्रे ने कहा कि परिस्थिति निर्माण से विचार व् भाव पैदा कर अखंड भारत का परिदृश्य संभव हैं। 

इंस्टिट्यूट ऑफ़ इंजीनियर्स के सभागार में मरू विचार मंच द्वारा आयोजित "अखंड भारत : संकल्पना एवं चिंतन" विषयक संगोष्ठी एवं व्याख्यान में मुख्य वक्ता राष्ट्रीय  स्वयंसेवक संघ के विश्व विभाग के सह संयोजक प्रोफेसर सदानंद सप्रे ने कहा कि १८५७ के परिदृश्य के समक्ष आज का मानचित्र रखेंगे तो पता चलेगा कि केवल एक भाग ही स्वाधीन हुआ है।  

1857 के स्वाधीनता संग्राम का दृश्य व् इतिहास उकेरते हुए प्रो. सप्रे ने अंग्रेजों  की मानसिकता व भारतीय समाज के आंदोलन का विस्तार से बताया। उन्होंने बताया कि 1857 का संग्राम कुचलने के बाद ऐसा लगता था की अब स्वाधीन नहीं होंगे लेकिन 90 वर्षों  में यह हो गया। यहूदियों को विपरीत परिस्तिथियों में रहते हुए भी 1700 -1800  वर्षो के संघर्ष व् संकल्पशक्ति से पुनः राष्ट्र प्राप्ति व् स्वाधीनता मिली, यह असम्भव  से सम्भव  का बहुत बड़ा उदाहरण  व मिसाल है.

राष्ट्र के जीवन में 100 -200 या 400 -500 अथवा 1700 -1800 वर्ष कोई मायने नहीं रखते , भाव व विचार तथा संकल्प मौजूद व् जीवित रहना चाहिए। भारत व् नेपाल राष्ट्र पृथक है राजनैतिक दृष्टि से किन्तु आम भारतीय व नेपाली इसे अलग नहीं मानता, अपनत्व भाव है।   क्या पाकिस्तान पृथक राजनीतिक  राष्ट्र रहते हुए नेपाल जैसे  भाव वाला नहीं हो सकता क्या ? 

प्रो. सप्रे ने राष्ट्र की स्वाधीनता का इतिहास व् विचार समाज के समक्ष सही तरीके से रखने व् पुनः विचार करने पर बल दिया।  1857 का संग्राम , 1905 का बंग -भंग आंदोलन व 1937 में हुए चुनाव का उल्लेख करते हुए उन्होंने मुस्लिम समाज की राष्ट्रीय  मानसिकता का दृश्य रखा और स्पष्ट किया कि मुस्लिम पूर्व में कभी भी मज़हब  आधार पर अलग महसुस नहीं करता न ही उनके मन , मस्तिष्क  में मज़हब आधारित अलग राष्ट्र का विचार था। 1857 व् 1905 के आंदोलन में सभी मुस्लिम साथ थे।  यही नहीं 1937 में अंग्रेजों   पहली बार समुदाय की सीटे  आरक्षित कर अलगाववाद पैदा करने की नाकाम कोशिश की।  उस वक्त भी मुस्लिम लीग को आरक्षित सीटों  पर 20 % वोट मिले थे, क्योंकि भारतीय समाज मज़हब  आधारित था ही नहीं, वो संस्कृति आधारित था. 

मोहम्मद करीम छागला  जी की आत्मकथा को उद्धत करते हुए कहा कि मुस्लिम सोच वैसी थी जिसमे उन्होंने कहा था कि "Ï am muslim by religion but hindu by race" हिन्दू एक संस्कृति है मज़हब नहीं।  हिन्दू  को धर्म  के नाम पर तथाकथित साम्प्रदायिक  मानसिकता वाले, बौद्धिक आतंक फ़ैलाने वालो की साजिश बताया। 

प्रो. सप्रे ने अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा कि क्या इतने बड़े राष्ट्र में मज़हब  विभाजन  सम्भव है क्या ? यह नेतृत्व के कमजोरी थी कि उस वक्त राष्ट्रवादी मुस्लिमो की भावनाओं  व् विचारों  का सरंक्षण नहीं किया व् अंग्रेजो की चाल का शिकार हुए।  यह आज भी संभव नहीं है। 

हिन्दू संस्कृति है, जीवन पद्धति  है जो हज़ारों  वर्षों  से पल्लवित होती आ रही है जिसका ऐतिहासिक प्रमाण है।  

क्या हम अलगाववाद के विचारों के साथ जीते हुए मज़हब के आधार पर पूर्ण पृथक राज्य की कल्पना अब भी साकार होने की सोच सकते है क्या ? सम्भवतः  नहीं। 

प्रो. सप्रे ने अपने उध्बोधन में आगे कहा कि पाकिस्तान के निर्माण की पृष्टभूमि को ध्यान से देखना होगा।  जिस मुस्लिम लीग को 1937 में आरक्षित सीटों पर जो मुस्लिम समुदाय के लिए ही थी पर केवल 20 % सफलता ही मिली थी ,उसी मुस्लिम लीग को 9 वर्ष बाद 1946 में 90% वोट के साथ 40% सीटों  पर सफलता मिलि. २० फ़रवरी १९४७ को अंग्रेजों  ने घोषणा की थी कि जून १९४८ तक स्वतन्त्र  कर देंगे लेकिन फिर ३ जून १९४७ को कहा कि १५ अगस्त १९४७ को ही स्वतंत्र कर देंगे यह परिवर्तन कबीले गौर है इस पर शोधार्थियों को चिंतन कर सही तस्वीर समाज राष्ट्र के समक्ष रखनी चाहिए।  यह आश्चर्यजनक परिवर्तन षड्यंत्र कारक थे। 

भारत-पाक के रिश्ते ठीक वैसे हो जैसे भारत-नेपाल  यही अखण्ड  भारत के संकल्पना है।  यह संभव है परिस्थिति निर्माण से।  हमें सम्पूर्ण मुस्लिम समुदाय को अलगाववादी नहीं मानना  चाहिये  न ही पुरे समुदाय को राष्ट्रविरोधी कहना चाहिए।  राष्ट्रवादी मुस्लिम भाईयो  को सरंक्षण व् प्रोत्साहन देने की आवश्यकता है वो ही परिस्तिथि निर्माण करेंगे।  पूर्व में भी राष्ट्रवादी मुस्लिम के प्रति समाज व् नेतृत्व उदासीन रहा जिसका परिणाम पाकिस्तान है।  यह त्रुटि हमें  दोहराना नहीं चाहिए। १९३७ तक बहुत कम मुस्लिम अलगाववादी थे। 

अलगाववादी मुस्लिमो को आज भी राष्ट्र में शक्ति प्राप्त नहीं होती उनका शक्ति स्त्रोत -धन आज भी बाहरी है।  हमें उस स्त्रोत को कमजोर करने का भी चिंतन करना चाहिए।  परिस्तिथि निर्माण से परिवर्तन सम्भव केवल कुछ प्रतिशत परिवर्तन से ही समाज का परिदृश्य तुरंत बदलता है। 

अपने उध्बोधन को विराम देते हुए प्रो सप्रे ने समाज से सकारात्मक चिंतन व् समग्र दृष्टि से विचार करते हुए अखण्ड भारत की संकल्पना को साकार करने का आव्हान किया। 

अध्यक्षता इंस्टिट्यूट ऑफ़ इंजीनियर्स जोधपुर के अध्यक्ष श्री आर के विश्नोई ने की एवं धन्यवाद ज्ञापन महानगर संयोजक डॉ. जी. एन. पुरोहित ने किया। 


 

शुक्रवार, 7 अगस्त 2015

राजस्थान पत्रिका के संपादक को प्रेस परिषद् की फटकार

राजस्थान पत्रिका के संपादक को प्रेस परिषद् की फटकार
स्रोत: न्यूज़ भारती हिंदी  

नई दिल्ली, अगस्त ७: भारतीय प्रेस परिषनई दिल्ली, अगस्त ७: भारतीय प्रेस परिषद् ने राजस्थान के प्रमुख हिंदी अख़बार राजस्थान पत्रिका के संपादक को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डॉ मोहनराव भागवत के भाषण को तोड़-मरोड़कर प्रस्तुत किये जाने और उस पर सम्पादकीय टिपण्णी करने का दोषी करार देते हुए उसकी भर्त्सना की हैं और उसे फटकार लगायी हैं.
जयपुर के डॉ रमेश चन्द्र अग्रवाल द्वारा २९ अप्रैल २०१३ को परेश परिषद् को इस आशय की शिकायत भेजी गयी थी जिस में राजस्थान पत्रिका के संपादक पर डॉ भागवत के इंदौर के भाषण को तोड़-मरोड़कर प्रकाशित करने का और उस पर सम्पादकीय टिपण्णी करने का आरोप लगाया था. प्रेस परिषद् ने अपने ८ जुलाई २०१५ के आदेश में राजस्थान पत्रिका को दोषी करार देते हुए परिनिन्दा (Admonition) का निर्णय दिया हैं.
राजस्थान पत्रिका से अपने पत्र को अपेक्षित प्रतिसाद न मिलने के बाद ही डॉ अग्रवाल ने प्रेस परिषद् का दरवाजा खटखटाया था और उस अख़बार के खिलाफ करवाई करने की मांग की थी.
राजस्थान पत्रिका ने “बेशर्मशीर्ष” शीर्षक से लिखे एक सम्पादकीय टिपण्णी में संघ के सरसंघचालक डॉ भागवत के इंदौर के वक्तव्य के कुछ अंश सन्दर्भ के बिना उद्धृत किये थे जिस के कारण एक विवाह जैसे पवित्र सम्बन्ध के बारे में एक गलत सन्देश समाज में गया था. राजस्थान पत्रिका में प्रकाशित वह वक्तव्य इस प्रकार था: “लोग जिस को विवाह कहते हैं वह तो पति और पत्नी के बीच एक करार होता हैं. किसी कारण से अगर वह करार पूर्ण नहीं होता हैं तो पत्नी पति को या पति पत्नी को छोड़ सकता हैं”.
वास्तव में डॉ भागवत का यह वक्तव्य उनके इंदौर में दिए गए भाषण का एक अंश हैं. यह भाषण २००-३०० साल पुराने सामाजिक करार (Social Contract Theory) के सिद्धांत की समीक्षा पर था. अपने भाषण के दौरान संघ के प्रमुख ने भारतीय और पाश्चात्य तत्वज्ञान और सिद्धांतों के अनेको उदाहरण दे कर अपने मुद्दे को अधिक स्पष्ट करने का प्रयास किया था. उनके इस वक्तव्य को सन्दर्भ के बिना प्रकाशित कर राजस्थान पत्रिका ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जैसे संगठन को और उसके सम्माननीय प्रमुख डॉ भागवत को अपमानित किया हैं, ऐसा शिकायतकर्ता ने कहा था.
यह उल्लेखनीय है की इस भाषण को जब सारा मिडिया तोड़ मरोड़ कर दिखा रहा था तब भी न्युजभारती ने उस भाषण को सही तथ्यों के साथ प्रकाशित किया था



डॉ अग्रवाल ने राजस्थान पत्रिका के संपादक को एक पत्र लिख कर गलती को दुरुस्त करने की प्रार्थना की थी और उन के द्वारा भेजे गए स्पष्टीकरण को प्रकाशित करने की विनती की थी. पर उन्हें उचित प्रतिसाद नहीं मिला जिस के चलते २९ अगस्त २०१३ को डॉ अग्रवाल ने राजस्थान पत्रिका को ‘कारण बताओ’ नोटिस जारी किया था. पर उस को भी कोई प्रतिसाद नहीं मिला.
उलटे, इस अख़बार ने अपने लिखित बयान में शिकायतकर्ता के शिकायत को आधारहीन और असत्य बताया. अख़बार ने कहा की उन्होंने जो प्रकाशित किया हैं वह पूर्णतः ‘सत्यता’ पर ही आधारित हैं. अपने समर्थन में अख़बार ने यह भी कहा की देश के अन्य कई अख़बारों ने इसी प्रकार डॉ भागवत के वक्तव्य को प्रकाशित किया हैं.
पर डॉ अग्रवाल ने राजस्थान पत्रिका के इस युक्तिवाद को खारिज कर दिया और ३१ मार्च २०१५ को फिर से प्रेस परिषद् की समिति के सामने अख़बार के खिलाफ करवाई की मांग को दोहराया.

इस प्रकरण में अंतिम बार ६ अप्रैल २०१५ को जब प्रेस परिषद् की जाँच समिति की बैठक हुई तो उस में शिकायतकर्ता की ओरसे श्री जी एस गिल और श्री हरभजन सिंह तथा अखबर की ओरसे श्री अंकित आर कोठारी ने अपने-अपने पक्ष रखे.
शिकायतकर्ता के वकीलों ने दलील दी की, श्री भागवत ने अपने विचारों को अधि सुस्पष्ट करने हेतु पाश्चात्य तत्वज्ञान में प्रचलित सामाजिक करार के सिद्धांत को उद्धृत किया था जिसे अख़बार ने शब्दशः श्री भागवत का वक्तव्य हैं ऐसा प्रकाशित किया. सम्पादकीय टिपण्णी यह दर्शाती हैं की श्री भागवत सामाजिक करार के सिद्धांत के समर्थक हैं जब की ऐसा नहीं हैं. अतः अखबार ने उनके वक्तव्य को गलत ढंग से और बिना संदर्भ के प्रकाशित किया हैं.
संपादकीय टिपण्णी और श्री भागवत के भाषण को सटीक पढने के बाद जाँच समिति ने कहा की, भारतीय तत्वज्ञान तथा पाश्चात्य तत्वज्ञान के भेद स्पष्ट करते हुए डॉ भागवत ने सामाजिक करार के सिद्धांत का उदहारण दिया था. समिति का यह मानना था की, राजस्थान पत्रिका ने सन्दर्भ को छोड़ कर केवल उतने अंश को ही प्रकाशित किया और ऐसा कर अख़बार ने डॉ भागवत के वक्तव्य को गलत ढंग से और गलत तरीके से प्रतिपादित किया हैं.
अपने इस निष्कर्ष पर आधारित समिति ने राजस्थान पत्रिका के संपादक को परिनिन्दा करने का और उक्त निर्णय को अख़बार में प्रकाशित करने का निर्देश दिया और प्रेस परिषद् को इस निर्णय की जानकारी दी. समिति के निर्णय को स्वीकार करते हुए प्रेस परिषद् ने संघ के सरसंघचालक के भाषण के गलत समाचार देने  और सम्पादकीय टिपण्णी करने के आरोप में राजस्थान पत्रिका के संपादक की भर्त्सना की और फटकार लगायी.
हाल ही में संघ के शीर्षस्थ नेताओं के भाषणों को तोड़-मरोड़कर प्रकाशित करने और उस माध्यम से जनता में भ्रम पैदा करने की कोशिशे समाचारपत्रों और टीवी चैनलों द्वारा कियी जाने के अनेक उदहारण दिखाई देते हैं. डॉ भागवत के इंदौर के इस भाषण के सन्दर्भ में भी यही हुआ हैं. राजस्थान पत्रिका के केस में प्रेस परिषद् का यह निर्णय ऐसे सभी समाचारपत्रों एवं टीवी चनेलों के लिए सीख की एक मिसाल हो सकता हैंजस्थान के प्रमुख हिंदी अख़बार राजस्थान पत्रिका के संपादक को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डॉ मोहनराव भागवत के भाषण को तोड़-मरोड़कर प्रस्तुत किये जाने और उस पर सम्पादकीय टिपण्णी करने का दोषी करार देते हुए उसकी भर्त्सना की हैं और उसे फटकार लगायी हैं.
जयपुर के डॉ रमेश चन्द्र अग्रवाल द्वारा २९ अप्रैल २०१३ को परेश परिषद् को इस आशय की शिकायत भेजी गयी थी जिस में राजस्थान पत्रिका के संपादक पर डॉ भागवत के इंदौर के भाषण को तोड़-मरोड़कर प्रकाशित करने का और उस पर सम्पादकीय टिपण्णी करने का आरोप लगाया था. प्रेस परिषद् ने अपने ८ जुलाई २०१५ के आदेश में राजस्थान पत्रिका को दोषी करार देते हुए परिनिन्दा (Admonition) का निर्णय दिया हैं.
राजस्थान पत्रिका से अपने पत्र को अपेक्षित प्रतिसाद न मिलने के बाद ही डॉ अग्रवाल ने प्रेस परिषद् का दरवाजा खटखटाया था और उस अख़बार के खिलाफ करवाई करने की मांग की थी.
राजस्थान पत्रिका ने “बेशर्मशीर्ष” शीर्षक से लिखे एक सम्पादकीय टिपण्णी में संघ के सरसंघचालक डॉ भागवत के इंदौर के वक्तव्य के कुछ अंश सन्दर्भ के बिना उद्धृत किये थे जिस के कारण एक विवाह जैसे पवित्र सम्बन्ध के बारे में एक गलत सन्देश समाज में गया था. राजस्थान पत्रिका में प्रकाशित वह वक्तव्य इस प्रकार था: “लोग जिस को विवाह कहते हैं वह तो पति और पत्नी के बीच एक करार होता हैं. किसी कारण से अगर वह करार पूर्ण नहीं होता हैं तो पत्नी पति को या पति पत्नी को छोड़ सकता हैं”.
वास्तव में डॉ भागवत का यह वक्तव्य उनके इंदौर में दिए गए भाषण का एक अंश हैं. यह भाषण २००-३०० साल पुराने सामाजिक करार (Social Contract Theory) के सिद्धांत की समीक्षा पर था. अपने भाषण के दौरान संघ के प्रमुख ने भारतीय और पाश्चात्य तत्वज्ञान और सिद्धांतों के अनेको उदाहरण दे कर अपने मुद्दे को अधिक स्पष्ट करने का प्रयास किया था. उनके इस वक्तव्य को सन्दर्भ के बिना प्रकाशित कर राजस्थान पत्रिका ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जैसे संगठन को और उसके सम्माननीय प्रमुख डॉ भागवत को अपमानित किया हैं, ऐसा शिकायतकर्ता ने कहा था.
यह उल्लेखनीय है की इस भाषण को जब सारा मिडिया तोड़ मरोड़ कर दिखा रहा था तब भी न्युजभारती ने उस भाषण को सही तथ्यों के साथ प्रकाशित किया था

सोमवार, 3 अगस्त 2015

देश को क्यों बांट रहा है मीडिया ?'



मीडिया अपना लक्ष्य पथ भूल गया है। पूरी मीडिया की समझ को लांछित किए बिना यह  कहने में संकोच नहीं है कि टीवी मीडिया का ज्यादातर हिस्सा देश का शुभचिंतक नहीं है। वह बंटवारे की राजनीति को स्वर दे रहा है और राष्ट्रीय प्रश्नों  पर लोकमत के परिष्कार की जिम्मेदारी से भाग रहा है।
- संजय द्विवेदी
काफी समय हुआ पटना में एक आयोजन में माओवाद पर बोलने का प्रसंग था। मैंने अपना वक्तव्य पूरा किया तो प्रश्नों का समय आया। राज्य के बहुत वरिष्ठ नेता, उस समय विधान परिषद के सभापति रहे स्व.श्री ताराकांत झा भी उस सभा में थे, उन्होंने मुझे जैसे बहुत कम आयु और अनुभव में छोटे व्यक्ति से पूछा “आखिर देश का कौन सा प्रश्न या मुद्दा है जिस पर सभी देशवासी और राजनीतिक दल एक है?” जाहिर तौर पर मेरे पास इस बात का उत्तर नहीं था। आज जब झा साहब इस दुनिया में नहीं हैं, तो याकूब मेमन की फांसी पर देश को बंटा हुआ देखकर मुझे उनकी बेतरह याद आई।
आतंकवाद जिसने कितनों के घरों के चिराग बुझा दिए, भी हमारे लिए विवाद का विषय है। जिस मामले में याकूब को फांसी हुई है, उसमें कुल संख्या को छोड़ दें तो सेंचुरी बाजार की अकेली साजिश में 113 बच्चे, बीमार और महिलाएं मारे गए थे। पूरा परिवार इस घटना में संलग्न था। लेकिन हमारी राजनीति और मीडिया दोनों इस मामले पर बंटे हुए नजर आए। यह मान भी लें कि राजनीति का तो काम ही बांटने का है और वे बांटेंगें नहीं तो उन्हें गद्दियां कैसे मिलेंगीं? इसलिए हैदराबाद के औवेसी से लेकर दिग्विजय सिंह, शशि थरूर सबको माफी दी जा सकती है कि क्योंकि वे अपना काम कर रहे हैं। वही काम जो हमारी राजनीति ने अपने अंग्रेज अग्रजों से सीखा था। यानी फूट डालो और राज करो। इसलिए राजनीति की सीमाएं तो देश समझता है। किंतु हम उस मीडिया को कैसे माफ कर सकते हैं जिसने लोकजागरण और सत्य के अनुसंधान का संकल्प ले रखा है।
टीवी मीडिया ने जिस तरह हमारे राष्ट्रपुरूष, प्रज्ञापुरूष, संत-वैज्ञानिक डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम की खबर को गिराकर तीनों दिन याकूब मेमन को फांसी को ज्यादा तरजीह दी, वह माफी के काबिल नहीं है। प्रिंट मीडिया ने थोड़ा संयम दिखाया पर टीवी मीडिया ने सारी हदें पार कर दीं। एक हत्यारे-आतंकवादी के पक्ष पर वह दिन भर औवेसी को लाइव करता रहा। क्या मीडिया के सामाजिक सरोकार यही हैं कि वह दो कौमों को बांटकर सिर्फ सनसनी बांटता रहे। किंतु टीवी मीडिया लगभग तीन दिनों तक यही करता रहा और देश खुद को बंटा हुआ महसूस करता रहा। क्या आतंकवाद के खिलाफ लड़ना सिर्फ सरकारों, सेना और पुलिस की जिम्मेदारी है?

आखिर यह कैसी पत्रकारिता है, जिसके संदेशों से यह ध्वनित हो रहा है कि हिंदुस्तान के मुसलमान एक आतंकी की मौत पर दुखी हैं? आतंकवाद के खिलाफ इस तरह की बंटी हुयी लड़ाई में देश तो हारेगा ही दो कौमों के बीच रिश्ते और असहज हो जाएंगें। हिंदुस्तान के मुसलमानों को एक आतंकी के साथ जोड़ना उनके साथ भी अन्याय है। हिंदुस्तान का मुसलमान क्या किसी हिंदू से कम देशभक्त है? किंतु औवेसी जैसे वोट के सौदागरों को उनका प्रतिनिधि मानकर उन्हें सारे हिंदुस्तानी मुसलमानों की राय बनाना या बताना कहां का न्याय है? किंतु ऐसा हुआ और सारे देश ने ऐसा होते हुए देखा।

इस प्रसंग में हिंदुस्तानी टीवी मीडिया केबचकानेपन, हल्केपन और हर चीज को बेच लेने की भावना का ही प्रकटीकरण होताहै। आखिर हिंदुस्तानी मुसलमानों को मुख्यधारा से अलग कर मीडिया क्यों देखता है? क्या हिंदुस्तानी मुसलमान आतंकवाद की पीड़ा के शिकार नहीं हैं? क्या जब धमाके होते हैं तो उसका असर उनकी जिंदगी पर नहीं होता? देखा जाए तो हिंदू-मुसलमान दुख-सुख और उनके जिंदगी के सवाल एक हैं। वे भी समान दुखों से  घिरे हैं और समान अवसरों की प्रतीक्षा में हैं। उनके सामने भी बेरोजगारी, गरीबी, मंहगाई के सवाल हैं। वे भी दंगों में मरते और मारे जाते हैं। बम उनके बच्चों को भी अनाथ बनाते हैं। इसलिए यह लड़ाई बंटकर नहीं लड़ी जा सकती। कोई भी याकूब मेमन मुसलमानों का आदर्श नहीं हो सकता। जो एक ऐसा खतरनाक आतंकी है जो अपने परिवार से रेकी करवाता हो, कि बम वहां फटे जिससे अधिक से अधिक खून बहे, हिंदुस्तानी मुसलमानों को उनके साथ जोड़ना एक पाप है। हिंदुस्तानी मुसलमानों के सामने आज यह प्रश्न खड़ा है कि क्या वे अपनी प्रक्षेपित की जा रही छवि के साथ खड़े हैं या वे इसे अपनी कौम का अपमान समझते हैं? ऐसे में उनको ही आगे बढ़कर इन चीजों पर सवाल उठाना होगा। इस बात का जवाब यह नहीं है कि पहले राजीव गांधी के हत्यारों को फांसी दो या बेअंत सिंह के हत्यारों को फांसी दो। अगर 22 साल बाद एक मामले में फांसी की सजा हो रही है तो उसकी निंदा करने का कोई कारण नहीं है। कोई पाप इसलिए कम नहीं हो सकता कि एक अपराधी को सजा नहीं हुई है। हिंदुस्तान की अदालतें जाति या धर्म देखकर फैसले करती हैं यह सोचना और बोलना भी एक तरह का पाप है। फांसी दी जाए या न दी जाए इस बात का एक बृहत्तर परिप्रेक्ष्य है। किंतु जब तक हमारे देश में यह सजा मौजूद है तब तक किसी फांसी को सांप्रदायिक रंग देना कहां का न्याय है?
कांग्रेस के कार्यकाल में फांसी की सजाएं  हुयी हैं तब दिग्विजय सिंह और शशि थरूर कहां थे? इसलिए आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई के सवालों को हल्का बनाना, अपनी सबसे बड़ी अदालत और राष्ट्रपति के विवेक पर संदेह करना एक राजनीतिक अवसरवाद के सिवा क्या है? राजनीति की इसी देशतोड़क भावना के चलते आज हम बंटे हुए दिखते हैं। पूरा देश एक स्वर में कहीं नहीं दिखता, चाहे वह सवाल कितना भी बड़ा हो। हम बंटे हुए लोग इस देश को कैसे एक रख पाएंगें? दिलों को दरार डालने वाली राजनीति,उस पर झूमकर चर्चा करने वाला मीडिया क्या राष्ट्रीय एकता का काम कर रहा है? ऐसी हरकतों से राष्ट्र कैसे एकात्म होगा? राष्ट्ररत्न-राष्ट्रपुत्र कलाम के बजाए याकूब मेमन को अगर आप हिंदुस्तान के मुसलमानों का हीरो बनाकर पेश कर रहे हैं तो ऐसे मीडिया की राष्ट्रनिष्ठा भी संदेह से परे नहीं है? क्या मीडिया को यह अधिकार दिया जा सकता है कि वह किसी भी राष्ट्रीय प्रश्न लोगों को बांटने का काम करे? किंतु मीडिया ने ऐसा किया और पूरा देश इसे अवाक होकर देखता रहा।

मीडिया का कर्म बेहद जिम्मेदारी का कर्म है। डॉ. कलाम ने एक बार मीडिया विद्यार्थियों शपथ दिलाते हुए कहा था-“मैं मीडिया के माध्यम से अपने देश के बारे में अच्छी खबरों को बढ़ावा दूंगा, चाहे वो कहीं से भी संबंधित हों।” शायद मीडिया अपना लक्ष्य पथ भूल गया है। पूरी मीडिया की समझ को लांछित किए बिना यह कहने में संकोच नहीं है कि टीवी मीडिया का ज्यादातर हिस्सा देश का शुभचिंतक नहीं है। वह बंटवारे की राजनीति को स्वर दे रहा है और राष्ट्रीय प्रश्नों पर लोकमत के परिष्कार की जिम्मेदारी से भाग रहा है। सिर्फ दिखने, बिकने और सनसनी फैलाने के अलावा सामान्य नागरिकों की तरह मीडिया का भी कोई राष्ट्रधर्म है पर उसे यह कौन बताएगा। उन्हें कौन यह बताएगा कि भारतीय हिंदुओं और मुसलमानों दोनों के नायक भारतरत्न कलाम हैं न कि कोई आतंकवादी। देश को जोड़ने में मीडिया एक बड़ी भूमिका निभा सकता है, पर क्या वह इसके लिए तैयार है? 

- लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं।   
साभार: न्यूज़ भारती

वीडियो -जालोर में स्वयंसेवकों द्वारा बाढ़ राहत कार्य का

वीडियो -जालोर में स्वयंसेवकों  द्वारा बाढ़ राहत  कार्य का

अपनी बात-भारतीय ऋषि परम्परा के वाहक

हितेश शंकर

मंथन से पहले घटनाओं की एक झांकी।
27 जुलाई को कामकाजी सप्ताह का पहला दिन। सोमवार के अखबार 'सलमान के ट्वीट से बवाल' की मुनादी कर रहे थे। 'टाइगर मेमन को फांसी दो, न कि याकूब को...।' आधी रात के ज्ञान से उपजी यह संभ्रांत पैरोकारी कायदे से ठंडी भी नहीं हुई थी कि गुरदासपुर में आतंकी हमले से माहौल गरमा गया। दीनानगर थाने से सटी इमारत पाकिस्तान प्रशिक्षित आतंकियों के कब्जे में थी। मुंबई पर आतंकी हमलों की याद ताजा हो गई। याकूब मेमन के तमाम पैरोकार अचानक दुबक गए।

मीडिया की नजर अब मुठभेड़ पर थी। शाम होते-होते आतंकियों का अंत हुआ, मुठभेड़ समाप्त हुई। लेकिन...प्राइम टाइम में बहस के मंच सजते इससे पहले एक और खबर आ गई। दु:ख से भरी ऐसी खबर जिसके साथ लिपटे थे कई जवाब। ये जवाब कई लोगों के लिए थे।

गुरदासपुर के घटनाक्रम को चोर निगाहों से देखते पड़ोसी देश के लिए। याकूब मेमन के उन पैरोकारों के लिए जिनके अनुसार देश में मुसलमानों से सौतेला व्यवहार होता है। मानवाधिकारों के उन झंडाबरदारों के लिए जिनके लिए 'दानवों' को बचाना ही मानवता है। और सबसे बढ़कर, उन लोगों के लिए जिन्हें इस देश को हिन्दू-मुस्लिम चश्मे से देखने की आदत है।

पूरा देश रो रहा था... इस बात से बेपरवाह कि उसके सबसे लोकप्रिय राष्ट्रपति किस उपासना पद्धति के मानने वाले थे। विडंबना ही है कि रामेश्वरम में उस विभूति के 'सुपुर्दे खाक' होते-होते मानवता का नकाब ओढ़े कुछ लोग फिर अपनी-अपनी मांदों से बाहर निकल आए। 257 निदार्ेष लोगों की हत्या के षड्यंत्र में साझीदार रहे व्यक्ति की दोष-सिद्धि पर रात ढाई बजे सवाल उठाने वाली इन टोलियों के मंसूबे कुछ और हैं। डॉ. कलाम को मृत्युदंड का विरोधी बताने वाले कभी यह उल्लेख नहीं करना चाहेंगे कि मानवता के लिए उनका दर्शन क्या था और आतंकियों के मानवाधिकारों के बारे में वे क्या सोचते थे।

मार्च, 2010 में एक सेमिनार के दौरान डॉ. कलाम ने आतंकवाद पर अपनी राय खुलकर लोगों के सामने रखी थी। उनका कहना था कि भारत में आतंकवाद के अंत के लिए इसके खिलाफ एक राष्ट्रीय अभियान शुरू करने की आवश्यकता है। सुरक्षा बलों को नए किस्म के आतंक से निपटने के लिए तकनीकी तौर पर ज्यादा तैयार होना चाहिए। वर्ष 2007 में डॉ. कलाम ने 'याहू इंडिया' के जरिए देश के सामने अपने मन में घुमड़ता सबसे बड़ा प्रश्न रखा था। इस गहरे-गंभीर और विस्तृत सवाल का सार था- 'अपने ग्रह को आतंकवाद से मुक्त करने करने के लिए हमें क्या करना चाहिए?'

जवाबों की संख्या और उत्तर देने वालों के स्तर की दृष्टि से याहू के लिए यह ऐतिहासिक दिन था। लेकिन, इस सवाल में 'मिसाइल मैन' की दृष्टि को समझना ज्यादा आवश्यक है। भारत या किसी अन्य क्षेत्र विशेष के लिए नहीं, बल्कि यह जुड़ाव 'अपने ग्रह' यानी पूरी 'पृथ्वी' के लिए है। मानवता को दु:ख पहुंचाने वाली आतंकवाद जैसी बीमारियों का इलाज तलाशने के लिए समाज की सज्जन शक्ति का आह्वान करने में यहां कोई हिचक नहीं दिखती।

संपूर्ण सृष्टि से एकात्मभाव रखने की चाह और समाज में सामूहिक सकारात्मक भाव जगाने की ऐसी पहल डॉ. कलाम को सिर्फ एक वैज्ञानिक, राजनेता या शिक्षाविद् से परे खालिस भारतीय ऋषि परंपरा का वाहक बना देती है। डॉ. कलाम ने अपने जीवन को माध्यम बनाते हुए 'पक्के भारतीय' जवाब दे दिए। लेकिन कई सवालों के जवाब इस समाज को खुद तलाशने हैं।

जिन्हें  डॉ. कलाम दोबारा राष्ट्रपति के तौर पर मंजूर नहीं थे, वे लोग कौन थे? मेमन को मौत से माफी दिलाने का हस्ताक्षर अभियान चलाने वाले लोग कौन हैं? याकूब मेमन की पेशबंदी करते हुए रात के तीसरे पहर न्यायपालिका की घेराबंदी करने पहुंची टोलियां कौन सी हैं? इन सूचियों को मिलाएं तो क्या किसी 'षड्यंत्रकारी साझेपन' का चेहरा  उभरता है?

इस चेहरे की पहचान और पृथ्वी पर फैलती आतंकवादी विषबेल को कुचलने की सामूहिक तैयारी ही उस राष्ट्ररत्न को सच्ची श्रद्धांजलि होगी। उन्होंने अपना काम पूरी लगन से किया, अब बारी हम सबकी है।

साभार:: पाञ्चजन्य

विश्व संवाद केन्द्र जोधपुर द्वारा प्रकाशित