शुक्रवार, 17 अप्रैल 2015

कश्मीरी पंडितों की वापसी से भयभीत कौन?'

कश्मीरी पंडितों की वापसी से भयभीत कौन?'





अलगाववादियों की पीड़ा है कि उन्होंने कितने जतन और षडयंत्रों से कश्मीरी पंडितों को  यहां से भगाया और वे फिर यहां बस जाएंगें। ये वही लोग हैं जो भारत से आजादी चाहते हैं और पाकिस्तानी हुक्मरानों के तलवे चाटते हैं।
संजय द्विवेदी

कश्मीर घाटी में कश्मीरी पंडितों को वापस बसाने को लेकर अलगाववादी संगठनों की जैसी प्रतिक्रियाएं हुई हैं, वे बहुत स्वाभाविक हैं। यह बात साबित करती है कि कश्मीर घाटी में जो कुछ हुआ, उसमें इन अलगाववादियों की भूमिका और समर्थन रहा है। कश्मीर पंडितों की कालोनी बनाने की बात पर उन्हें यहूदी’ शब्द से संबोधित करना कितना खतरनाक है। यह वहां पल रही घातक मानसिकता और  विचारधारा दोनों का प्रगटीकरण है। कश्मीरी पंडित एक पीड़ित पक्ष हैं, जबकि इजराइल के यहूदी एक ताकतवर समूह हैं। उनसे कश्मीरी पंडितों की तुलना अन्याय ही है। इतने अत्याचार और दमन के बावजूद पंडितों ने अब तक अपनी लड़ाई कानूनी और अहिंसक तरीके से ही लड़ी है। वे हथियार उठाने और कत्लेआम करने  वाले लोग नहीं है। पाकप्रेरित अलगाववादी संगठन घाटी को हिंदुमुक्त करने के  नापाक इरादे में कामयाब हुए तो उन्हें यह लगा कि कश्मीर अब अलग हो जाएगा। 

किंतु हिंदुस्तान के लोग
, कश्मीर के लोग इस हिस्से को भारत का मुकुट मानते हैं। उनके सुख-दुख में साथ खड़े होते हैं, समान संवेदना का अनुभव करते हैं। कुछ मुट्ठीभर लोग इस सांझी विरासत से भरोसा  उठाना चाहते हैं। उन्हें बार-बार विफलता हाथ लगी है और आगे भी लगेगी। क्या कश्मीरी अलगाववादी यह कहना चाहते हैं कि जहां मुसलमान बहुसंख्यक होंगे वहां दूसरे पंथ के लोग नहीं रह सकते?
पाकिस्तान के द्विराष्ट्रवाद पर तमाचा   
कश्मीर दरअसल पाकिस्तान के द्विराष्ट्रवाद के सिद्धांत पर एक तमाचा है। किसी  राज्य में बहुसंख्यक मुस्लिम जनता और भारत का शासन यह पाकिस्तान से बर्दाश्त नहीं होता। हम साथ मिलकर रह रहे हैं, रह सकते हैं, यही पाकिस्तान की पीड़ा है। कश्मीर भारत का सांस्कृतिक परंपरा का अविछिन्न अंग है। हमारे तीर्थ, पर्व, मंदिर, देवस्थल सब यहां हैं। अमरनाथ और वैष्णो देवी से लेकर शंकराचार्य के मंदिर यही कथा  कहते हैं। यह क्षेत्र ऋषियों-मुनियों की तपस्यास्थली रहा है। लेकिन
अलगाववादियों के अपने तर्क हैं। उन्होंने बंदूकों
, अपहरणों, दुराचारों, लूट और आतंक के आधार पर इस इलाके को नरक बनाने की कोशिशें कीं। किंतु हाथ क्या लगा? आज भी वहां एक चुनी हुई सरकार है, जिसमें भारत का एक राष्ट्रवादी दल हिस्सेदार है। यह साधारण नहीं है कि घाटी में भाजपा को वोट नहीं मिले, यह गहरे विभाजन का संकेत है। यह बात बताती है कि एक खास इलाके में किस तरह से
लोगों को राष्ट्र की मुख्यधारा से काटकर देश के खिलाफ खड़ा कर दिया गया है। इस मानसिकता को पालने-पोसने और विकसित करने के जतन निरंतर हो रहे हैं। 


भारत के खिलाफ आतंकी गतिविधियां चलाने वालों को समर्थन देने वाले तत्व आज भी घाटी में मौजूद हैं। भारतीय सेना पर पत्थर फेंकना इसी मानसिकता का परिचायक है। ऐसे असुरक्षित वातावरण में जहां पुलिस और सेना के लोग पत्थर खा रहे हों
, मार  दिए जाते हैं वहां मुट्ठीभर कश्मीरी पंडित किस भरोसे और विश्वास पर बसेंगें? निश्चय ही यह अलगाववादियों की पीड़ा है कि उन्होंने कितने जतन और षडयंत्रों से कश्मीरी पंडितों को यहां से भगाया और वे फिर यहां बस जाएंगें।
ये वही लोग हैं जो भारत से आजादी चाहते हैं और पाकिस्तानी हुक्मरानों के तलवे चाटते हैं।
अब शुरू कीजिए पाक अधिकृत कश्मीर की मांग
कश्मीर की आजादी का सवाल उठाने वाले लोग अब यह अच्छी तरह समझ चुके हैं कि उनकी हसरत पूरी नहीं हो सकती। भारत के लोग कभी यह होने नहीं देंगे। राजनीतिक पहलकदमी से परे हिंसक आंदोलन चलाने वाली ये ताकतें भारत के खिलाफ कश्मीरी मानस में जहर भरने का काम निरंतर कर रही हैं। भारत सरकार भी इनके प्रति नरम रवैया अख्तियार करती रही है। जाने किस कूटनीति के चलते भारत ने पाक अधिकृत कश्मीर के बारे में बात करनी बंद कर रखी है। जबकि भारत की सरकार को  प्रखरता से आजाद कश्मीर (पाक अधिकृत कश्मीर) के बारे में बात करनी चाहिए।
कश्मीर घाटी ही नहीं हमें पूरा कश्मीर चाहिए यही इस संकट का वास्तविक  समाधान है। राजा हरि सिंह के साथ विलय पत्र पर हस्ताक्षर के बाद हुई  राजनीतिक गफलतों ने ही कश्मीर के हालात बिगाड़े हैं। घाटी की हिंदू-सिख आबादी के साथ जो कुछ हुआ उसके भी दोषियों को दंडित करने और उन पर मुकदमे चलाने की जरूरत है। कश्मीरी पंडितों पर जो अत्याचार हुआ
, उसके दोषी आज भी मजे से घूम रहे हैं। 2012 के दंगों पर एक गुजरात की सरकार के पीछे पड़े लोग, क्या कश्मीरियों पर होने वाले अत्याचार के खिलाफ बोलेगें? गुजरात दंगों पर तो सैंकड़ों को जेल और सजा हो चुकी है। क्या कश्मीर घाटी के गुनहगारों पर भी हमारी सरकारों की नजर जाएगी? अपराध-अपराध है उसे चयनित आधार पर नहीं देखा जाना चाहिए। मलियाना के गुनहगारों के लिए सारे मीडिया में स्यापा है। लेकिन कश्मीर में जो हुआ उसे पूरी इंसानियत शर्मिंदा है। सरकार को चाहिए कि ऐसे मानवता विरोधी आतंकियों की पड़ताल कर उनके खिलाफ,उनके मददगारों के खिलाफ मामले खोले और नए सिरे से कार्रवाई प्रारंभ करे। जिन कश्मीरी पंडितों के घरों पर कब्जे करके लोग बैठे हैं, उनके कब्जे हटाए जाएं। भारत की आजादी के बाद शायद ये सबसे बड़ा विस्थापन था, जिसमें 65 हजार कश्मीरी पंडितों को अपना घर छोड़ना पड़ा। भारत औऱ राज्य की सरकार की यह जिम्मेदारी है वे गुनहगारों को कतई माफ न करें।
यहां सिर्फ सेना ही है भारत के साथ
आज चारो तरफ से एक ही आवाज आती है कि घाटी से सेना से हटाओ। सवाल यह उठता है कि क्या सेना को हटाने से कश्मीर में आया अमन-चैन रह पाएगा? क्या इस हिस्से में पुनः आतंकी शक्तियां हावी नहीं हो जाएगीं? लोकतंत्र के मायने मनमानी नहीं होती। किंतु कश्मीरी अलगाववादियों ने इस राज्य को बहुत नुकसान पहुंचाया है। अहमद शाह गिलानी की लंबी हड़तालों, प्रदर्शनों ने राज्य की अर्थव्यवस्था को तो चौपट किया ही है लोगों को जान-माल के खतरे भी दिए। ऐसे नेताओं से लोग अब ऊब चुके हैं। गिलानी भी अब बूढ़े हो चुके  हैं और कश्मीर को भारत से अलग करने का उनका सपना अब तो पूरा होने से रहा। एक चुनी हुई सरकार अब कश्मीर में है। जरूरत इस बात की है कश्मीर को विकास के मोर्चे पर आगे लाकर खड़ा किया जाए। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी निरंतर कश्मीर के सवाल को अपनी प्राथमिकता में रखा है। तमाम आलोचनाओं और राजनीतिक मजबूरियों के बावजूद इस राज्य में मुफ्ती सरकार के साथ गठजोड़ किया। यह संकेत बताते हैं कि भारत सरकार इस राज्य के विकास में रोड़े अटकाना नहीं चाहती। किंतु इस पूरे खेल में सिर्फ लेना ही नहीं चलेगा। यह संभव नहीं कि भारत की सरकार आपके हर दर्द में साथ खड़ी हो और आप पाकिस्तान
के झंडे लहराएं। कश्मीर के अलगाववादी तत्वों के साफ संदेश देने की जरूरत है कि वे आतंक
, हिंसा, खून-खराबे, पत्थर फेंकने जैसे सारे हथियार आजमा चुके हैं अब उन्हें चाहिए कि वे लोकतंत्र की खुली हवा में लोगों को सांस लेने दें। ऐसे हालात बनाएं कि सेना बैरकों में जा सके। इसके पहले उन्हें यह भरोसा देना होगा कि घाटी में सेना के अलावा  अब तथाकथित अलगाववादी भी भारत के प्रति प्रेम रखते हैं। हालात यह हैं कि  घाटी में आज भी भारत विरोधी और पाक समर्थक आवाजें गूंज रही हैं। ऐसे समय.  में कश्मीरी पंडितों की वापसी का विरोध करके अलगाववादियों ने अपना असली चेहरा दिखा दिया है। हालांकि श्राइन बोर्ड के जमीन देने के सवाल पर ऐसे ही प्रपंची स्वर सामने आ चुके थे। यह समझना मुश्किल नहीं है कश्मीर का असल संकट घाटी के मुट्ठी पर अलगाववादी हैं, जो
पाकिस्तान में बैठे अपने आकाओं के इशारे पर नाचते रहते हैं। उन्हें यह समझ लेना चाहिए कि ये अलगाववादी कश्मीर की आवाज नहीं हैं। कश्मीर की जनता ने  फैसला कर दिया है
, एक लोकप्रिय सरकार वहां बनी है, उसे काम करने दें। अगर शौक है तो अगले चुनाव में उतरकर अपनी हैसियत आजमा लें।
लोकतंत्र में यही एकमात्र विकल्प है। बंदूकों के साए में आजादी-आजादी की रट लगाने से क्या हासिल है इसे वे अच्छी तरह जानते हैं।
- लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

विश्व संवाद केन्द्र जोधपुर द्वारा प्रकाशित