तो अब हम अरिहंतों का नमन पराए होकर करेंगे?
अल्पसंख्यकवाद की अवधारणा ही देश के विरुद्ध है, समाज को तोड़ने वाली है।
-भैयाजी जोशी, सरकार्यवाह, रा. स्व.संघ
तरुण विजय
जैन समाज के प्रभावशाली लोगों ने अंतत:
स्वयं को हिन्दू समाज से अलग घोषित करवा ही लिया। अल्पसंख्यकवाद और सेकुलर
वोट बैंकों का ऐसा चलन चला है कि लगभग पचास लाख की आबादी वाला यह वर्ग भी
स्वयं को अल्पसंख्यक घोषित करने में ही लाभ और श्रेष्ठतर भविष्य ढूंढने
लगा। कहीं कोई सन्नाटे को तोड़ने वाली आवाज भी नहीं हुई। हम सुनना चाहते थे
हिन्दू और राष्ट्रीयता की दृष्टि से सोचने वाले हमसे अलग लोग भी कम से कम
इतना तो कहेंगे कि हिन्दू समाज को तोड़ते-तोड़ते कहीं भारत न टूटने लगे। यह
अलगाव का उन्माद कहीं तो थमना चाहिए। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के
सरकार्यवाह श्री भैयाजी जोशी के इस बारे में स्पष्ट मत हैं। जैन समाज को अब
अल्पसंख्यक घोषित करने पर उनसे हुई चर्चा में कहा कि अल्पसंख्यकवाद की
अवधारणा ही देश के विरुद्ध है, समाज को तोड़ने वाली है। राजनीतिक दलों में
जिस प्रकार से तात्कालिक स्वार्थों के लिए दीर्घकालिक हितों पर आघात का चलन
चला है वह भविष्य के लिए ठीक नहीं है। राष्ट्रीयता और समरसता की भावना ही
सामाजिक एकजुटता को मजबूत कर सकती है।
विडंबना यह है कि इतने बड़े आघात
के बावजूद केवल 2014 का चुनाव राजनीतिक पटल पर छाया हुआ है। वे जैन समाज के
संत और महात्मा जो सम्पूर्ण हिन्दू समाज की अबाधित और असंदिग्ध श्रद्धा
एवं सम्मान के पात्र हैं, क्या अब केवल इसलिए हमसे अलग, पराए और पृथक मान
लिए जाएंगे क्योंकि सरकार के कागज में उन्हें अल्पसंख्यक घोषित कर दिया गया
है और अचानक उनकी गिनती मुस्लिम और ईसाई समाज के साथ होने लग जाएगी? क्या
केवल छह दशक पुराना सरकारी संविधान हजारों वर्ष पुराने भारतीय सामाजिक,
सांस्कृतिक संविधान पर हावी हो जाएगा? अपने शिक्षण संस्थान बचाने, व्यापार
और धार्मिक स्थानों में बेहतर सुविधा और सुरक्षा के लिए जैन समाज के
मूर्धन्य चिंतक अल्पसंख्यकवाद के समक्ष इस प्रकार झुक जाएंगे? क्या अब हम
सब अरिहंतों का नमन पराए होकर करेंगे? या चूंकि अब आप अल्पसंख्यक हो गए हैं
इसलिए रोटी-बेटी के रिश्ते, शादी-ब्याह, धर्म-कर्म में साझेदारी, मां,
बेटे, बेटी, पिता और नाते-रिश्तेदारों के संबंध अब सरकारी कागजों के फतवे
से निर्धारित होने लगेंगे? क्या किसी ने इस राजनीतिक और गर्हित फैसले के
अगले बीस, पचास और सौ साल में होने वाले असर के बारे में सोचा है जब तीन,
चार, पांच पीढि़यों के बाद नई नस्ल सीधे-सीधे ये सवाल किया करेगी कि जब
सरकार और हमारे ह्यमहानह्ण नेताओं ने ही हमें हिन्दू नहीं माना तो हमारा
तुमसे संबंध ही क्या है? इसका परिणाम भारत और यहां के सामाजिक ताने-बाने पर
क्या होगा?
आज तो बड़ी सरलता से कह दिया जाएगा कि अजी, ऐसा कुछ नहीं
होने वाला। हमारा आपका तो रक्त और मांस का संबंध है। हममें आपमें फर्क ही
क्या है? ये सरकारी कागज हमें अलग थोड़े ही करेंगे। हमारे संत, ग्रंथ,
धार्मिक परम्पराएं, रीति-रिवाज अल्पसंख्यक आयोग थोड़े ही तय करेगा। जब घर
में दीवार उठती है तो ऐसा ही कहा जाता है, लेकिन दीवार तो उठ ही जाती है।
किसी को जैन समाज के उन लोगों से पूछना चाहिए जिन्होंने स्वयं को
अल्पसंख्यक घोषित करने के लिए कुछ वर्षों से लगातार अभियान छेड़ा हुआ है कि
हिन्दू समाज का अंग होते हुए उन्हें किस भेदभाव, अस्पृश्यता, उपेक्षा,
आघात और तिरस्कार अथवा आगे बढ़ने के मार्ग पर बाधाओं का सामना करना पड़ा?
क्या कभी उनको यह अनुभव हुआ कि हिन्दू समाज का अंग होते हुए वे पिछड़ेपन का
शिकार हो रहे हैं तथा जिस क्षण में वे अहिंदू और अल्पसंख्यक घोषित हो
जाएंगे उसी क्षण उनकी प्रगति और विकास के अवसर निर्बाध हो जाएंगे?
यह
स्थिति हिन्दू समाज की कमजोरी का भी द्योतक है। देश की विभिन्न पार्टियां
जो केन्द्र या राज्यों में सत्ता चला रही हैं, शासन और प्रशासन में जो
शीर्षस्थ अधिकारी सरकारी आदेश को अमल में ला रहे हैं, उनमें अधिकांश हिन्दू
ही हैं। लेकिन हिन्दू के नाते न सोचने के कारण आज सब ओर हिन्दू अरक्षित हो
गया है। कभी लाला लाजपत राय जैसे नेता पंजाब से बोलते थे तो सारा देश
सुनता था। श्यामा प्रसाद मुखर्जी बंगाल से आवाज उठाते थे तो कश्मीर तक
हिलता था। आज हिन्दू वेदना चुनावी लाभ का विषय भी नहीं है और सामाजिक
उन्नयन का भी। पंजाब में हिन्दू समाज का मनोबल राजनीतिक समझौतावादिता, वोट
राजनीति एवं तात्कालिक फायदे के लिए दबने के कारण टूटता जा रहा है। कश्मीर
से हिन्दू बाहर कर दिया गया। उत्तर-पूर्वांचल में केवल हिन्दू ही नहीं
बल्कि उनके साथ खड़े रहने वाले हिम्मती गैर-ईसाई जनजातीय संगठन डरे हुए जी
रहे हैं। उनके बीच में जितनी मात्रा में कार्यकर्ता और संसाधन भेजे जाने
चाहिए उनकी अपार कमी है। मेघालय में सेंगखासी समाज पर लगभग 90 प्रतिशत ईसाई
समाज का लगातार दबाव बना हुआ है कि वे भी मतांतरित हो जाएं। सेंगखासी को
अल्पसंख्यक दर्जा भी नहीं दिया गया ताकि उन्हें केन्द्र से अल्पसंख्यकों को
मिलने वाली सहायता से वंचित रखा जाए। पर इन बेचारे सेंगखासी समाज के लोगों
की आवाज सुनने और उन्हें बचाने के लिए दिल्ली के कोलाहल में किसे फुर्सत
है। हिन्दुओं के अधिकांश बड़े मंदिर सरकारी नियंत्रण में हैं। उनसे होने
वाली आय गैर हिन्दू कार्यों पर खर्च की जाती है। इसका भी कोई समाधान नहीं
निकल पा रहा है।
कमजोर, विखंडनवाद के शिकार एवं स्वयं ही स्वयं से
लड़ने में व्यस्त हिन्दुओं के साथ रहना अपनी रक्षा सुनिश्चित करने जैसा
नहीं रह गया है। हिन्दुओं के नेता भी सेकुलर मुद्दों पर अपना राजनीतिक जीवन
बचाना चाहते हैं। इसलिए ऐसे भ्रमों के भंवर में फंसे हिन्दुओं से अगर
मजबूत और वैभव संपन्न कोई वर्ग अलग होता है तो इसमें आश्चर्य ही क्या है?
यह समय है जब हिन्दू समाज के सभी संगठनों को आपस में मिलकर पारस्परिक
समन्वय एवं हिन्दू समाज के समक्ष आ रही चुनौतियों का सामना करने के लिए
स्वयं में अपेक्षित परिवर्तन और सुधार लाने का कोई युगांतरकारी उपाय सोचना
चाहिए।
साभार: पाञ्चजन्य