शनिवार, 19 दिसंबर 2009

"तिलक" का विज्ञान एवं दर्शन

हिंदू परंपरा में मस्तक पर तिलक या टिका लगाना धार्मिक कृत्यों के साथ जुड़ा हुआहै। प्रत्येक शुभ अवसर पर ऐसा करना प्रसन्नता का, सात्विकता का, सफलता का चिन्ह माना जाता है। किसी महत्वपूर्ण कार्य या विजय अभियान में निकलने पर रोली, हल्दी, चंदन या कुंकुम का तिलक लगाया जाता है। तीर्थो में देवदर्शन हेतु उपस्थित होने पर वहाँ माथे पर तिलक लगाकर शुभकामना दी जाती है। भारतीय संस्कृति में कर्मकाड़ों , परंपराओं, प्रथाओं को विनिर्मित करने वाले हमारे प्राचिन ऋषि एक साथ वैज्ञानिक भी थे और महान् दार्शनिक भी थे। इसलिएकिसी भी शुभ प्रचलन की स्थापना में उन्होनें इन दोंनो दृष्टियों को ध्यान में रखा, ताकि कोई एक पक्ष सर्वथा उपेक्षित न पड़ा रहे एवं दूसरे के दुरुपयोग की संभावना न बढ़ जाये। इसके पीछे संतुलन-समीकरण का प्रायोजन ही प्रमुख था, जिससे दोनों वर्ग के अनुयायी संतुष्ट हो सकें और स्थापना को समान महत्व दे सकें। सर्वप्रथम इसके विज्ञान पक्ष को लेंगे। ललाट में टिका यातिलक जिस स्थान पर लगाया जाता है, वह भ्रू-मध्य या आज्ञाचक्र है। शरीरशास्त्र कीदृष्टि से यह स्थान पीनियल ग्रंथि का है। प्रयोगो द्वारा यह सिद्ध हो चुका है कि प्रकाश से गहरा संबंध हे। प्रयोगो में जब किसी व्यक्ति की आँखो में पट्टी बाँधकर सिर को पूरी तरह से ढक दिया गया और उसकी पीनियल ग्रंथि को उद्ददीप्त किया गया , तो उसे मस्तक के अंदर प्रकाश की अनुभुति हुई। यह इस बात को प्रमाणित करता है कि ध्यान- धारणा के माध्यम से साधक में जो प्रकाश का अवतरण आज्ञाचक्र में होता है, उसका कोई न कोई संबंध इस स्थूल अवयव से अवश्य है। ऋषियों को यह तथ्य भलीभाति पता था, इसलिए उन्होनें टीका लगाने के प्रचलन को पूजा उपासना के साथ-साथ हर शुभ कार्य से जोड़कर उसे धार्मिक कर्मकाड़ का एक अविच्छिन अंग बना दिया।
यह एक वैज्ञानिक तथ्य है की दोंनो भौंहों के बीच कुछ अतिरिक्त संवेदनशीलता होती है। इसे परीक्षा करके जाना जा सकता है। यदि हम आँखे बंद करके बैठ जाएँ और कोई व्यक्ति हमारे भ्रू-मध्य के एकदम निकट ललाट की ओर तर्जनी उँगली ले जाए । तोवहाँ हमें कुछ विचित्र अनुभव होगा । यही तृतीय नेत्र की प्रतीति है। इस संवेदना को हम अपनी ऊँगली भृकुटि-मध्य लाकर भी अनुभव कर सकता है। इसलिए इस केन्द्रपर जब तिलक अथवा टीका लगाया जाता है, तो उससे आज्ञाचक्र को नियमित रुप से उत्तेजना मिलती रहती है। इससे सजग रुप में हम भले ही उससे जागरण के प्रति अनभिज्ञ रहें, पर अनावरण का वह क्रम हनवरत चलतारहता है।
तिलक का तत्वदर्शन अपने आप में अनेंको प्रेरणाएँ सँजोएं हुए है। तिलक या त्रिपुंड प्रायः चंदन का होता है। चंदन की प्रकृति शीतल होती है। शीतल चंदन जब मस्तकपर लगाया जाता है, तो उसके पीछे भाव यह होता है कि चिंतन का जो केंद्रिय संस्थान मस्तिष्क के रुप में खोपड़ी के अंदर विराजमान है, वह हमेशा शीतल बना रहे, उसके विचार और भाव इतने श्रेष्ठ हों जि अपनी तरह औंरो को भी शीतलता, शांति और प्रसन्नता प्रदान करता रहे। तिलक का महत्व जनजीवन में इतना अधिक है कि जब कोई महत्वपूर्ण, सम्मानसूचक, प्रसन्नदायक घतना घटती है,तो माथे पर तिलक लगा दिया जाता है। विवाह हो रहा हो तो तिलक, कोई युद्ध परजा रहा हो तो तिलक हो। कोई युद्ध से विजयी होकर लौट रहा हो तो तिलक हो अर्थात् कोई भी सुखमय घटना हो, उसके साथ तिलक का अविच्छिन संबंध जोड़ दिया जाता है। ऐसा इसलिए कि वह आमनद चिरस्मरणीय बना रहे।
विवाहित स्त्रियाँ माँग में सिंदूर और माथे पर बिंदी लगाती है। बिंदी टीके का रुप है, वैसे ही माँग का सिंदूर तिलक का प्रतिक है। किंतु यहाँ इन्हे परिणीता के सुहाग के साथ जोड़ा दिया गया है। यह अक्षत सुहाग के चिन्ह हैं। इनमें समर्पण और निष्ठा का भाव पूर्णरुपेण पति की ओर है। वह उसकी समर्पिता है। अबउसके नारित्व पर कोई बाधा नहीं पड़ेगी, इसलिए पत्नी को पति के जीवन रहने तक इन्हे धारण करना पड़ता है। तिलक द्रव्य के रुप में भीन्न-भीन्न प्रकार की वस्तो्ओं का प्रयोग किया जाता है। श्वेत और रक्त चंदन भक्ति के प्रतिक हैं। इनका इस्तेमाल भजनानंदी किस्म के लोग करते है। केशर एवं गोरोचन ज्ञान तथा वैराज्ञ्य के प्रतिक है। ज्ञानी तत्वचिंतक और विरक्त ह्रदय वाले लोग इसका प्रयोग करते है। कस्तूरी ज्ञान, वैराज्ञ्य, भक्ति, प्रेम, सौंदर्य, ऐश्वर्य सभी का प्रतीक है, ।
मार्कण्डेय पुराणके ‘स्त्रियसमस्ता सकला जगत्सु’ के अनुसार नारी समाज शक्ति रूपा है। नारी समाज के सौभाग्य में लाल वर्ण की प्रधानता का यही कारण और मस्तक पर लाल वर्ण के रूपमें हम मातृशक्ति धारण करने की कामना करते हैं। यही कारण है कि ज्यादातर सांस्कृतिक तिलक महिलाएं ही पुरूषों के भाल पर करती है। चाहे वह बहिन, पत्नी या माँ किसी भी रूप में हो।

अनामिका शांति दोक्ता,मध्यमायुष्यकरी भवेत्।
अंगुष्छठ:पुष्टिव:प्रोत्त,तर्जनीमोक्ष दायिनी।।
अर्थात् तिलक धारण करने में अनामिका अंगुली मानसिक शांति प्रदान करती है, मध्यमा अंगुली मनुष्य की आयु वृद्धि करती है, अंगूठा प्रभाव, ख्याति और आरोग्य प्रदान करता है, इसलिए विजयतिलकअंगूठेसे ही करने की परम्परा है। तर्जनी मोक्ष देनेवाली अंगुली है। इसलिए मृतक को तर्जनी से तिलक लगाते हैं। सामुद्रिकशास्त्र के अनुसार, अनामिका और अंगूठा तिलक करने में सदा शुभ मानेगए हैं। अनामिका अंगुली सूर्य का प्रतिनिधित्व करती है। इसका अर्थ यह है कि साधक सूर्य के समान दृढ, तेजस्वी, निष्ठा-प्रतिष्ठा और सम्मान वाला बने।दूसरा अंगूठा है, जो हाथ में शुक्र क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करता है। शुक्र ग्रह जीवनी शक्ति का प्रतीक है। इससे साधक के जीवन में शुक्र के समानही नव जीवन का संचार होने की मान्यता है। मानस की पंक्तियाँ : चित्रकूट के घाट परभई संतनकी भीड़ , तुलसीदास चंदन घिसें ,तिलक देत रघुबीर । तिलक परम्परा का अनुमोदन करतीं हैं ।
आज भी फौजी जब शत्रु से मोर्चे के लिए घर से विदा लेता है ,तो माँ बहिन पत्नी उसको तिलक लगातीं हैं ,यात्रा पर जाने से पूर्व तिलक लगाने को शुभ माना जाता है । इस प्रकार तिलक या टीका एकधार्मिक प्रतीत होते हुए भी उसमें विज्ञान और दर्शन का साथ-साथ समावेश है। इसनाको समझ सकें और उनकी शिक्षाओं को आत्त्मसात् कर सकें तो ही उसकी सार्थकता है।

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विश्व संवाद केन्द्र जोधपुर द्वारा प्रकाशित