सोमवार, 16 मार्च 2009

मुस्लिमों का विचित्र मौन

मुस्लिमों का विचित्र मौन

Mar 14, 11:58 pm
गत सप्ताह पेशावर में रहमान बाबा मस्जिद को तालिबानी आतंकियों ने विस्फोट करके उड़ा दिया। पिछली लगभग साढ़े तीन शताब्दियों से सूफी संपद्राय की इस मस्जिद में मजहबी कार्य हो रहे थे और यह मस्जिद महिला श्रद्धालुओं में बहुत ही लोकप्रिय थी। हालांकि तालिबानियों ने पहले ही यह धमकी दी थी कि वे मस्जिद को नष्ट कर देंगे, बावजूद इसके इस मुस्लिम क्षेत्र की मुस्लिम सरकार ने मस्जिद की सुरक्षा के लिए कोई खास इंतजाम नहीं किए। स्थानीय प्रशासन, प्रांतीय प्रशासन, पाकिस्तान सरकार और अफगानिस्तान सरकार-सभी ने इस घटना की निंदा की। तालिबानी मुस्लिम वहाबी संप्रदाय को मानने वाले हैं, जो कि सूफी संप्रदाय के रहस्यवाद और संगीत की परंपरा का विरोध करते हैं। उनका मानना है कि यह सब इस्लाम के खिलाफ है। यह घटना बिल्कुल वैसे ही है जैसे अयोध्या में विवादित ढांचे का विध्वंस।
वास्तव में दोनों ही घटनाएं निंदनीय हैं, लेकिन अयोध्या के विवादित ढांचे में लंबे अर्से से मजहबी गतिविधियां बंद थीं, जबकि रहमान बाबा मस्जिद में मजहबी कार्य अभी जारी थे। विवादित ढांचे के विध्वंस के बाद विश्व भरके मुस्लिम समुदाय ने इस घटना के विरोध में तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की थी। गैर-मुस्लिम भी इस घटना से चकित थे। अपने देश में हम उस घटना के दुर्भाग्यपूर्ण दुष्परिणामों के साथ जी रहे हैं। रहमान बाबा मस्जिद के ढहाए जाने के बाद हमें यह देखना होगा कि मुस्लिम समुदाय इस कृत्य का विरोध करते हुए तालिबानों को गैर-इस्लामी और कट्टरपंथी संगठन करार देता है या नहीं? मुस्लिम समुदाय के सामने यह एक गंभीर चुनौती है। अक्सर यह देखने में आता है कि जब मुसलमान ही मुसलमान को मारते हैं या फिर इस्लाम को उसके ही अनुयायियों द्वारा चोट पहुंचाई जाती है तो वे चुप हो जाते हैं। उदाहरण के लिए जब लगभग दस लाख बांग्लादेशी मुसलमानों को पाकिस्तानी सेना ने मार डाला तो मुस्लिम जगत ने इसका कोई खास विरोध नहीं किया।
जार्ज बुश की तुलना में याह्या खान के माथे पर कहीं ज्यादा मुस्लिमों की मौत का दाग है। ऐसा ही अफगान युद्ध में गुलबुद्दीन हिकमतयार ने किया था। सद्दाम हुसैन द्वारा ईरान के खिलाफ छेड़े गए युद्ध में दोनों ही तरफ के लाखों लोगों की मौत हुई, लेकिन इस्लामी देशों ने इस घटना की निंदा कभी नहीं की। यह भी तथ्य है कि पिछले साठ सालों में इजरायलियों के हाथों उतने फलस्तीनी नहीं मारे गए होंगे जितने कि अरब मुस्लिमों ने मारे हैं। जब फलस्तीनी नेता यासिर अराफात के समर्थक जार्डन में ब्लैक सेपटेंबर नरसंहार कर रहे थे उस समय जियाउल हक जार्डन के शाह के सैन्य सलाहकार थे। आज दारफर में मुस्लिम शासन के अंतर्गत ही मुसलमान मारे जा रहे हैं और मुस्लिम जगत उनकी रक्षा के लिए की जा रही अंतरराष्ट्रीय मध्यस्थता का विरोध कर रहा है। दूसरी तरफ यही मुस्लिम जगत बोस्निया और कोसोवो में मुस्लिमों और क्रिश्चियन सर्ब के संघर्ष में अंतरराष्ट््रीय मध्यस्थता का स्वागत कर रहा है। किसी भी मुसलमान की जिंदगी का समान महत्व है-चाहे उसकी मौत का कारक कोई मुस्लिम हो या फिर कोई गैर-मुस्लिम। तो फिर मुस्लिम समुदाय तभी प्रतिक्रिया क्यों व्यक्त करता है जब मुस्लिमों की मौत के पीछे कोई गैर-मुस्लिम होता है? ऐसा ही दोहरा मानदंड अलग-अलग देशों में मुसलमानों के साथ कथित भेदभाव के संदर्भ में भी देखने को मिलता है। भारत में सच्चर कमेटी की रिपोर्ट में यह कहा गया कि शिक्षा और रोजगार में मुस्लिम अल्पसंख्यकों को निष्पक्ष रूप से अवसर नहीं मिल रहे हैं। ऐसे में भारत सरकार का यह दायित्व है कि वह इस दिशा में सुधार करे, लेकिन सवाल यह भी है कि क्या मुस्लिम समुदाय के भीतर के अल्पसंख्यकों के साथ मुस्लिम बहुल राष्ट्रों में निष्पक्ष व्यवहार किया जा रहा है? मुस्लिम अल्पसंख्यकों, जैसे शिया और अहमदिया को क्या मुस्लिमों की बहुलता वाले देशों में भी समान अवसर मिल रहे हैं?
यहां यह सब कहने का आशय यह नहीं है कि भारत में अल्पसंख्यकों के साथ किसी प्रकार का भेदभाव जायज है, लेकिन मुस्लिम राष्ट्र में मुसलमानों की समस्याओं पर चुप हो जाने और गैर-मुस्लिम राष्ट्रों में मुसलमानों की दशा पर सवाल उठाने से मुस्लिमों की शिकायतों की विश्वसनीयता नहीं बढ़ने वाली। यह कैसा तर्क है कि सलमान रुश्दी के खिलाफ मौत का फतवा जारी कर दिया जाए या फिर डेनमार्क के कार्टूनिस्ट द्वारा बनाए गए चित्रों पर दंगे तक भड़क उठें, लेकिन पाकिस्तान में एक मस्जिद गिरा देने पर मुस्लिम समुदाय चुप्पी साध लेना बेहतर समझे। यह रवैया स्वयं इस्लाम के लिए बेहद खतरनाक है। रहमान बाबा मस्जिद इसलिए ढहा दी गई, क्योंकि यह एक सूफी मस्जिद थी और वहां पर संगीत बजाया जाता था। यह उन लोगों ने किया जिनका मानना है कि संगीत इस्लाम के खिलाफ है। उन्होंने उन दुकानों को भी तोड़ दिया जहां संगीत से संबंधित सामान बेचे जाते थे। क्या कुछ मतांध लोगों को इस बात की छूट दी जा सकती है कि वे संगीत को इस्लाम विरोधी घोषित कर दें? इस्लामी समाज के जिम्मेदार लोगों को संगीत की रक्षा के लिए आगे आना चाहिए और उन कंट्टरपंथी ताकतों का विरोध करना चाहिए जो इसके खिलाफ हैं। यदि वे कहते हैं कि इस्लाम में संगीत को मान्यता नहीं है तो वे विश्व की सभी सभ्यताओं से अलग हैं, क्योंकि ऐसी कोई भी सभ्यता नहीं जो संगीत को अपनी आत्मा के विपरीत मानती हो। यदि इस तर्क पर संगीत को नकारा जा रहा है कि इसका उल्लेख कुरान या हदीस में नहीं है तो उन्हें पेट्रोल, कार, हवाई जहाज, टेलीफोन, बंदूक अथवा उस विस्फोटक का भी प्रयोग नहीं करना चाहिए जिससे रहमान बाबा मस्जिद को नष्ट किया गया, क्योंकि इनका उल्लेख भी कुरान में नहीं है। यदि मुस्लिम समुदाय अपने बीच के उन कट्टरपंथियों का विरोध करने में असफल रहता है जिन्होंने इस्लाम के नाम पर एक मस्जिद गिरा दी तो उसे आने वाले वर्षो में कहीं अधिक गंभीर चुनौती का सामना करने के लिए तैयार रहना चाहिए।
[के. सुब्रहमण्यम: लेखक रक्षा एवं विदेश मामलों के विशेषज्ञ हैं]

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विश्व संवाद केन्द्र जोधपुर द्वारा प्रकाशित